कवि और रचनाकार जब जाते हैं, तो अपने पीछे एक जलसा छोड़ जाते हैं. इस जलसे में उनकी रचनाएं होती हैं तो रचनाधर्म के कहानी-क़िस्से भी होते हैं. रचनाकार को याद करते रहने की ज़रूरत बची रह जाती है. कवि, आलोचक और पत्रकार मंगलेश डबराल का 9 दिसंबर को निधन हो गया. इस बात के आख़िर में आप उनकी एक मशहूर कविता संगतकार पढ़ेंगे. लेकिन उससे पहले संगति और साथ का एक क़िस्सा. मंगलेश डबराल बेहद शांत और भाषा को बहुत बरतने वाले व्यक्ति थे. बनारस के एक गेस्ट हाउस में एक साहित्यिक आयोजन के बाद कवियों की एक महफ़िल लगी हुई थी. मंगलेश डबराल भी थे. शराब का दौर शुरू हुआ. कुछ देर बाद वहां मौजूद एक कवि ने नशे में कुछ अपशब्द कह दिए. इस पर मंगलेश डबराल ग़ुस्सा हो गए. कहा, 'आप कवि हैं? हैं? हैं आप कवि? आप कवि हो ही नहीं सकते." उन्हें भाषा नागवार गुज़री थी. ऐसा कहकर मंगलेश डबराल अपने कमरे में चले गए. कुछ महीनों बाद उसी कवि का देहांत हो गया. इस पर उन्होंने अपने एक मित्र से फ़ोन पर कहा, 'वो (कवि) याद बहुत आयेंगे.'
संगतकार
मुख्य गायक के चट्टान जैसे भारी स्वर का साथ देती
वह आवाज सुंदर कमजोर काँपती हुई थी
वह मुख्य गायक का छोटा भाई है
या उसका शिष्य
या पैदल चलकर सीखने आने वाला दूर का कोई रिश्तेदार
मुख्य गायक की गरज में
वह अपनी गूँज मिलाता आया है प्राचीन काल से
गायक जब अंतरे की जटिल तानों के जंगल में
खो चुका होता है
या अपने ही सरगम को लाँघकर
चला जाता है भटकता हुआ एक अनहद में
तब संगतकार ही स्थायी को सँभाले रहता है
जैसा समेटता हो मुख्य गायक का पीछे छूटा हुआ सामान
जैसे उसे याद दिलाता हो उसका बचपन
जब वह नौसिखिया था
तारसप्तक में जब बैठने लगता है उसका गला
प्रेरणा साथ छोड़ती हुई उत्साह अस्त होता हुआ
आवाज से राख जैसा कुछ गिरता हुआ
तभी मुख्य गायक को ढाँढ़स बँधाता
कहीं से चला आता है संगतकार का स्वर
कभी-कभी वह यों ही दे देता है उसका साथ
यह बताने के लिए कि वह अकेला नहीं है
और यह कि फिर से गाया जा सकता है
गाया जा चुका राग
और उसकी आवाज में जो एक हिचक साफ सुनाई देती है
या अपने स्वर को ऊँचा न उठाने की जो कोशिश है
उसे विफलता नहीं
उसकी मनुष्यता समझा जाना चाहिए.