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तू मेरी फ्रेंड रिक्वेस्ट क्यूं नहीं एक्सेप्ट करती स्वीटी

कवि की पहचान रखने वाले निखिल आनंद गिरि की कहानी.

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27 दिसंबर 2016 (Updated: 27 दिसंबर 2016, 07:43 AM IST)
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निखिल आनंद गिरि छपरा (बिहार) की पैदावार हैं. रांची और जमशेदपुर में पढ़ाई हुई है. मास कम्यूनिकेशन की डिग्री जामिया मिल्लिया इस्लामिया से लेकर मीडिया के मास्टर होने का सुख भोग चुके हैं. फिलहाल दिल्ली मेट्रो में काम कर रहे हैं. पहचान एक कवि की है. बतौर कवि सम्मानित भी होते रहते हैं. लेकिन कहानियां भी लिखते हैं. सो आज एक कहानी रोज में इनकी एक कहानी...

सड़क नौ फीट चौड़ी थी. तीन फीट की नाली थी जिसमें पानी के सिवाए सब कुछ था. चिप्स, कुरकुरे की थैलियां, बैन हो चुका प्लास्टिक, सड़ी-गली सब्जियां, कॉन्डोम के पैकेट और क्विंटल भर बदबू. मुहल्ला आठ बजे सोकर उठता था, इसीलिए नाली-वाली ठीक कराने की फुर्सत किसी को नहीं थी. यानी सिर्फ छह फीट की गली थी सड़क के नाम पर और एक बजबजाती हुई नाली. सुबह नौ से ग्यारह के बीच ऑफिस जाने का समय होता तो ये मामूली गली ट्रैफिक जाम के मामले में किसी मुख्य सड़क से बीस पड़ती थी. गाड़ियों की पों-पों, तू-तू, मैं-मैं, गाली-गलौज के बीच जैसे-तैसे गाड़ियां और वक्त सरकते थे. ये देश की राजधानी दिल्ली का जनकपुरी इलाका था जहां तीन मंजिलों वाले ज्यादातर घरों के मालिक प्रॉपर्टी डीलर थे और किराएदार किसी कॉल सेंटर या एमएनसी में शिफ्ट के हिसाब से खटने वाले कर्मचारी. इसी गली का सबसे बड़ा मकान चरणजीत बावा का था. नब्बे गज की इस तीन मंजिला इमारत की कीमत लोग करोड़ों में बताते थे. हालांकि बिल्डिंग के भीतर हर फ्लोर पर दीवीरें झड़ने लगी थीं और दरवाजे बंद होने पर बहुत डरावनी आवाजें निकालते थे. भूकंप आता तो बावा की बिल्डिंग के सभी लोग पार्क में सबसे पहले भाग आते. चुनाव प्रचार में अच्छे दिनों के नारे सबसे ज्यादा लगते, मगर प्रॉपर्टी डीलरों के लिए ये सबसे बुरे दिन थे. इतने बुरे दिन थे कि अगर ग्राउंड फ्लोर के ऊपर दो-दो फ्लोर खड़े न होते तो इन अपढ़, बदमिजाज डीलरों को दिल्ली धक्के मार कर बाहर निकाल देती. बावा के किराएदारों में से एक था टुन्नू. पढ़ा-लिखा, दुबला, गोरा रंग. एसी कंपनी में बतौर मैनेजर काम करने वाले टुन्नू का असली नाम था तुषार शर्मा. मगर बावा उसे अधिकार से टुन्नू ही बुलाता था. जनकपुरी से बाहर की दिल्ली या दुनिया का पता बावा को टुन्नू से ही मिलता था. बावा के घर में हर फ्लोर पर एसी टुन्नू की बदौलत ही था. मार्केट रेट से काफी कम में टुन्नू ने ये एसी दिलवाए थे. इसके अलावा बावा के बिजली का बिल, टेलीफोन का बिल सब घर बैठे टुन्नू के स्मार्ट फोन से जमा हो जाया करता. कभी-कभी मार्केट से दूध, ब्रेड, दवाइयां लाने की जिम्मेदारी भी टुन्नू के जिम्मे ही थी. वह बावा के लिए था तो ‘ओए बिहारी’ ...मगर फिर भी घर का हिस्सा ही था. बदले में किराए में किसी रियायत की उम्मीद न टुन्नू को थी, न मिली. ग्राउंड फ्लोर के अपने कमरे से कभी टुन्नू थर्ड फ्लोर तक भी नहीं गया, जहां बावा एंड फैमिली रहते थे. हां, कभी-कभी बावा की बीवी नीचे उतर कर दरवाजा खटखटा कर ‘परौंठे’ दे जाती थी. उसके कमरे में अक्सर बिस्तर से लेकर कुर्सी तक कपड़े सूख रहे होते और गीलेपन की ऐसी बदबू आती जैसे जनकपुरी के सी-ब्लॉक की नाली उसके कमरे से होकर गुज़रती हो. ऐसे में जब बावा की बीवी जिसे टुन्नू आंटी कहता, नाक सिकोड़कर कहती, ‘‘बेटा, वैसे तो थैंक यू. लेकिन तेरे कमरे से बदबू क्यूं आती है इतनी. बेटा, बुरा मत मानना तुम बिहारियों ने ठीक से रहना नहीं सीखा दिल्ली आकर.’’ इतना सुनकर टुन्नू के हाथ में परौंठे कूड़ा लगने लगते, मगर थक-हार कर ऑफिस से लौट कर आने के बाद मुफ्त में मिले परौंठे का स्वाद उसे बेवकूफ आंटी की बातों को निगल जाने में मदद करता. आंटी की लानतें सुनने के बावजूद न टुन्नू की इनायतें बावा परिवार पर कम हुईं और न आंटी के परौंठे. ऐसे ही एक रोज बावा की बीवी टुन्नू से मिन्नत करने आई थी कि ऑफिस से लौट कर उनकी बेटी चिन्नी को थोड़ा पढ़ा दिया करे. बदले में रात का खाना उसे बावा की रसोई से मिलता रहेगा. चिन्नी की मां बोली, ‘‘बेटा, चिन्नी के इम्तिहान करीब हैं और बारहवीं पास करने का ये आखिरी मौका है. तेरे बावा अंकल ने जहां भी चिन्नी के रिश्ते की बात की, बारहवीं फेल बताने में बहुत बुरा लगता है. तू कोई बाहर का आदमी थोड़े ही है. थोड़ा टैम निकाल कर पढ़ा दिया कर. एक-दो महीने की बात ही तो है. और फिर चिन्नी तेरी छोटी बहन ही तो है.’’ शुक्र था कि चिन्नी अपनी मां के साथ नीचे नहीं आई थी. वरना टुन्नू को आंटी की ये छोटी बहन वाली बात बड़े सदमे की तरह लगती. जैसे-तैसे उसने कहा, ‘‘जी आंटी, मैं कोशिश करता हूं. कल से भेज दीजिए.’’ टुन्नू जब शाम की शिफ्ट के बाद थका-हारा लौटता तो बावा नशे में होता. टुन्नू का दरवाजा खुलने के साथ आवाजें करता तो बावा की आवाज ऊपर के फ्लोर से ही आने लगती, ‘‘ओए टुन्नू, ये अच्छे दिन की सरकार कितने दिन रहेगी, हमारी नाली तो बनती नहीं. ये एजुकेशन मिनिस्ट्री टीवी एक्ट्रेस को दे दी. फिर तेरे जैसे पढ़े-लिखे लोग क्या करेंगे. ओए हमारा बिजली का बिल इस बार ज्यादा क्यों आया है, एक कम्प्लेन ठोंक डाल बावा के नाम से.’’ ये रोज का राग अनसुना कर टुन्नू अपना खाना बनाने की तैयारी कर रहा होता तो दरवाजे पर परौंठे की महक आ जाती. फटाफट दरवाजे के बाहर से भीतर दिख सकने भर की जगह को लात से ठीक करते टुन्नू ने आंटी की कड़वी बातों को पचाने का हौसला जुटाकर दरवाजा खोला तो देखा कोई लड़की खड़ी है. ये बावा की लड़की चिन्नी थी. आंखें मटर जैसी गोल थीं और शरीर की चिकनाई भी किसी कश्मीरी झील जैसी थी. उसके सामने हाफ पैंट और बनियान में खड़ा टुन्नू फटाफट दरवाजे के भीतर टंगी शर्ट टांगता हुआ बोला, ‘‘सॉरी, मुझे लगा आंटी हैं.’’ चिन्नी बोली, ‘‘भैया, ये परौंठे मैंने बनाए हैं. मम्मी जी आज भंडारे में गई हैं. पापा भी एक घंटे में लौटेंगे, तो मैंने सोचा परौंठे दे आऊं.’’ चिन्नी की आवाज सूरत से बिल्कुल मेल नहीं खाती थी. बोलने का अंदाज भी ऐसा जैसे बिहार की ट्रेनों में बेटिकट सफर करने वालों से मगरूर टीटी बात करते हों. फिर भी थक-हार कर लौटे टुन्नू के दरवाजे पर आया नया मेहमान सीधा उसके दिल के दरवाजे तक आ गया था. तीन साल से बावा के ग्राउंड फ्लोर पर रह रहे टुन्नू ने चिन्नी के बारे में बस सुना ही था. देखा कभी नहीं था. आवाज भी सुनी नहीं थी कभी. पूरा मुहल्ला जानता था कि चिन्नी बारहवीं में थी और पिछले दो साल से बारहवीं में ही थी. उसकी आंखें बहुत कम पलकें झपकाती थीं. बावा ने अपनी इकलौती बेटी को ग्यारहवीं के बाद घर से बाहर निकलने ही नहीं दिया था. चिन्नी के लिए घर का मतलब उसका आठ बाई दस का कमरा था. एक बार उसके कमरे की खिड़की पर किसी ने दस रुपए का नोट पत्थर में लपेटकर फेंका था, जिस पर रोमन में लिखा हुआ था, ‘‘तू मेरी फ्रेंड रिक्वेस्ट क्यूं नहीं एक्सेप्ट करती स्वीटी?’’ गल्ती से दुनिया का ये सबसे छोटा प्रेमपत्र चिन्नी के बजाए बावा को लग गया था. बावा ने ये चिट्ठी टुन्नू से ही पढ़वाई थी और उस दिन पूरे मुहल्ले के जवान होते लड़कों को पानी पी-पी कर कोसा था. चिन्नी बाद इसके आज पहली बार अपने कमरे से नीचे उतरी थी. टुन्नू ने कहा, ‘‘आप कमरे के बाहर क्यूं खड़ी हैं, भीतर आइए न.’’ चिन्नी ने कहा, ‘‘नहीं, पापा डांटेंगे. उन्होंने कहा है कि ज्यादा चेंप नहीं होना किसी से. मैं कल आऊंगी. थोड़ी स्टडी करा देना. बारहवीं के पेपर हैं. थैंक यू.” आवाज में जरा भी सलीका नहीं था, मगर कल आने की बात टुन्नू को भीतर तक झकझोर गई. दिल्ली के बाहर से आकर बसे लड़कों के लिए इतने मीठे संवाद भर में प्यार हो जाना आम बात थी. अगले दिन टुन्नू का कमरा देखने लायक था. सारे सामान सही जगह पर थे. चिन्नी ठीक सात बजे नीचे आई और दरवाजे पर दस्तक दी. टुन्नू ने नजर नीची कर इस डर से दरवाजा खोला कि कहीं आंटी भी साथ न हों. चिन्नी अकेली थी. एक हाथ में किताबें थीं और दूसरे में परौंठे. ऊपर से बावा की आवाज आई, ‘‘ओए, टुन्नू, ज़रा देख ले इस चिन्नी को. इस बार पेपर खराब हुए तो तेरा बावा जान दे देगा.’’ टुन्नू ने फटाफट उसे घर के भीतर बिठाया. चाय बनाई और खुद भी बैठ गया. पूछा, ‘‘क्या पढ़ना है आपको.’’ चिन्नी चुपचाप बैठी रही. टुन्नू की तरफ किताब आगे बढ़ा दी. किताब ऐसी नई थी जैसे कभी पलटी ही नहीं गई हो. टुन्नू ने पहला चैप्टर खोला और पढ़ाने को हुआ. चिन्नी ने उसका हाथ पकड़ लिया और रोने लगी. टुन्नू ने दरवाजे की तरफ देखा और उसे बंद देखकर तसल्ली की. ‘‘क्या हुआ आपको. सॉरी हम कुछ गलत तो नहीं बोले न.’’ चिन्नी बोली, ‘‘आप एक लव लेटर लिख दोगे, इंग्लिश में... भैया.’’ टुन्नू को लगा उसके दिल पर जहां बीती शाम दस्तक हुई थी, वहीं किसी ने हथौड़ा मार दिया है. अपनी तमाम संभावनाओं को स्थगित करते हुए उसने चिन्नी के लिए एक लव लेटर लिखा जो रजौरी गार्डन के किसी पंजाबी शोरूम मालिक को भेजा जाना था. चिन्नी को दो रातों के लिए शिमला भागना था, मगर उसका प्रेमी कई दिन से फोन नहीं उठा रहा था. चिन्नी ने उसे अनुरोध किया कि ये लेटर वो खुद ही रजौरी वाले शोरूम पर देता आए. बदले में उसने टुन्नू को तीन हजार रुपए भी दिए. टुन्नू ने अपनी हद तक इनकार किया, मगर चिन्नी की आंखें गीली होती देख उसने रुपए रख लिए. अगले दिन बावा ने कोहराम मचाया हुआ था. बिहारियों के लिए तमाम तरीके की गालियों से बावा ने पूरा मुहल्ला गुंजायमान कर रखा था. चिन्नी अपने कमरे से गायब थी. सारा शक टुन्नू पर जा रहा था क्योंकि रात से उसके कमरे पर भी ताला लगा था. कमरा तोड़ने पर अंदर एक फोल्डिंग की खटिया और एक घड़ा ही बचे थे. कमरे की दीवार पर लिखा था ‘‘तेरी बेटी चालू है.’’ बावा ने कसम ली कि अब चाहे प्रॉपर्टी डीलिंग से मिट्टी फांकनी पड़ जाए, लेकिन बिहारियों को कमरे नहीं देगा.

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