गुजरात के इस डकैत की कहानी पान सिंह तोमर से भी दिलचस्प है
कहानी उस डकैत की, जो कथित तौर पर इंदिरा गांधी की फेंटेसी का हिस्सा रहा.

आपातकाल के बाद 1977 में हुए चुनाव में इंदिरा गांधी को करारी शिकस्त मिली. मोरारजी देसाई की सरकार में गृहमंत्री बने चौधरी चरण सिंह उनसे खार खाए बैठे थे. आपातकाल में हुए गैरकानूनी कामों की जांच के लिए शाह कमीशन बना. इंदिरा चारों तरफ से घिरी हुई थीं. ठीक इसी समय 1946 से 1959 तक नेहरू के निजी सचिव रहे एम.ओ. मथाई की एक किताब आई, 'Reminiscences of the Nehru Age'. इस किताब में मथाई ने नेहरू के साथ अपने अनुभवों को साझा किया था. ये किताब अपने उस कॉन्टेंट की वजह से विवाद में आ गई, जो किताब का हिस्सा नहीं था. या फिर यूं कहें कि किताब में छपते-छपते रह गया.

एम.ओ. मथाई की पुस्तक का कवर
दरअसल, इस किताब का 29वां चैप्टर गायब था. इसकी जगह प्रकाशक की तरफ से एक नोट लिखा गया था कि किताब के छपने के ठीक पहले ये चैप्टर लेखक ने मूल प्रति से हटा लिया. हाल ही में इंटरनेट में पर मथाई और इंदिरा के बारे में काफी कुछ वायरल हुआ. कई जगहों पर तथाकथित तौर पर मथाई के खो गए चैप्टर को फिर से हासिल कर लेने के दावे किए गए. मशहूर पत्रकार सागरिका अपनी हाल ही में आई किताब "Indira: India’s Most Powerful Prime Minister" में भी इंटरनेट पर मौजूद इस किस्म के दावों का जिक्र किया है. तथाकथित तौर पर फिर से खोज लिए गए 'SHE' टाइटल वाले इस चैप्टर में मथाई ने इंदिरा गांधी के साथ अपने प्रेम संबंधों का जिक्र किया है. मथाई एक जगह लिखते हैं कि इंदिरा और उन्होंने एक-दूसरे को डकैतों का नाम दे रखा था. इंदिरा एकांत में उन्हें 'भूपत' कहा करती थीं.
हम मथाई और इंदिरा के प्रेम संबंधों को यहीं छोड़ देते हैं. किसी आदमी के प्रेम-संबंध सार्वजानिक बहस का मुद्दा नहीं हो सकते. मेरी दिलचस्पी मथाई के उस नाम में है, जो इंदिरा ने उन्हें दे रखा था. भूपत, माने की भूपत सिंह चौहान. गुजरात के काठियावाड़ का कुख्यात डाकू जो अपनी रॉबिनहुड इमेज के चलते लोकगीतों का हिस्सा बन गया. कई मामलों में इस बागी की कहानी पान सिंह तोमर से मिलती है.

भूपत सिंह चौहान
कहानी की शुरुआत होती है 1939 में. महाराजा सयाजीराव गायकवाड के इंतकाल के बाद उनके पोते प्रताप सिंह राव गायकवाड बड़ौदा के राज सिंहासन पर गद्दीनशीन हुए. प्रताप सिंह नए जमाने के थे और उनके तौर-तरीके अपने दादा से अलग थे. उन्होंने 1941 में अपने यहां खेलों का आयोजन किया. इसमें घुड़सवारी, दौड़, भाला फेंक और पोल जंप जैसी 24 प्रतियोगिताएं रखी गईं. देशभर के रजवाड़ों को न्यौता भेजा गया. कुल 22 रजवाड़ों ने इसमें भाग लिया.

प्रताप सिंह राव गायकवाड़
जब एक खिलाड़ी ने जीते 13 मैडल
1920 में अम्रेली के बरवाला गांव में हुआ. वो उस दौर में वागनिया दरबार में चाकर थे. वागनिया अम्रेली जिले में 12 गांव की छोटी सी रियासत थी. उस दौर में अमरावाला वहां के राजा हुआ करते थे. भूपत राजा के निजी अस्तबल के 70 काठियावाड़ी नस्ल के घोड़ों की ट्रेनिंग का काम किया करते. वो कच्ची उम्र से ही इस काम लगे हुए थे. घोड़ो की ट्रेनिंग के दौरान ट्रेनर को घोड़े के साथ-साथ लंबी दूरी तक दौड़ना पड़ता है. कच्ची उम्र से इस काम में लगे भूपत का शरीर जवान होते-होते निखर आ या. लंबी कद-काठी और पेशियों से भरा शरीर. जब बड़ौदा दरबार का न्यौता अम्रेली पहुंचा, तो भूपत ने प्रतियोगिता में भाग लेना स्वीकार किया. प्रतियोगिता हुई और भूपत ने सभी 24 प्रतियोगिताओं में भाग लिया. वो 6 प्रतियोगिताओं में पहले 7 में दूसरे नंबर पर रहे.

अपने मैडल के साथ भूपत (कुर्सी पर बैठे बाएं से पहले )
ये थी डकैत बनने की कहानी
इस प्रतियोगिता के बाद भूपत का जीवन सामान्य चलता रहा. भूपत वांगनिया दरबार के घोड़ों की देखभाल करता. राजा जब शिकार पर जाते, तो वो भूपत को भी साथ ले जाते. यहां भूपत ने बंदूक चलाना सीखा. बाद में यही ट्रेनिंग भूपत के काम आई. उसकी जिंदगी एक तय ढर्रे पर चल रही थी, जिसमें कई सालों से कोई ख़ास बदलाव नहीं हुआ था.
इधर जमाना तेजी से बदल रहा था. आजादी से पहले भारत के कुछ हिस्सों पर अंग्रेजों का सीधा कब्ज़ा था, मसलन बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, जबकि कुछ जगहों पर राजे-रजवाड़े बने रहे. ये रजवाड़े अंग्रेजों को साल में एक बार तय रकम देते और बदले में अपना राज कायम रखते. शुरूआती दौर में रजवाड़ों में कांग्रेस का कोई असर नहीं था, लेकिन बाद में कांग्रेस ने ‘प्रजा मंडल’ नाम का संगठन बनाकर रजवाड़ों में भी राजनीतिक आंदोलन की शुरुआत की. गुजरात में भी तमाम जगहों पर ऐसे प्रजा मंडल बने. 1947 में देश आजाद हुआ. रजवाड़ों को भी सत्ता से बेदखल कर दिया गया. ऐसे में वहां सत्ता का समीकरण प्रजा मंडल के नेताओं के पक्ष में झुक गया.

वागानिया के राजा अमरावाला (बाएं से चौथे) के साथ भूपत सिंह (दाएं से दूसरे)
मार्कंड देसाई उस दौर में अम्रेली में प्रजा मंडल के सक्रिय नेताओं में थे. वांगनिया दरबार और उनके बीच आजादी से पहले से तनातनी चलती आ रही थी. मार्कंड वांगनिया दरबार से स्कोर बराबर करने का मौका तलाश रहे थे. जल्द ही मौका मिला भी. राजकोट में गंदल के पास ही एक जगह पड़ती है बांसावड़. यहां एक मुस्लिम व्यापारी हुआ करते थे. उन्होंने उस जमाने में 9 लाख रुपए खर्च करके अपना घर बनाया था. स्थानीय लोगों में उनके घर को नौलखा के नाम से जाना जाता है. एक दिन इस घर में डकैती पड़ी. मार्कंड ने इस डकैती का आरोप वागनिया दरबार पर लगाया. राजा अमरावाला और भूपत के खिलाफ गिरफ्तारी के वारंट निकले. इस बीच 29 साल के अमरावाला ने पारिवारिक कलह के चलते आत्महत्या कर ली. ऐसे में वारंट कुछ दिनों के लिए होल्ड कर लिया गया.

वागानिया के राजा अमरावाला और उनकी पत्नी
अपने मालिक को खो चुके भूपत को समझ में आ गया कि मार्कंड के इशारे पर उन्हें झूठे आरोप में जेल में पटक दिया जाएगा. भूपत ने अपने सबसे भरोसेमंद साथी राणा भगवान डांगर को साथ लिया और वागनिया छोड़ दिया. राणा मारपीट के एक मुकदमें में पहले भी जेल जा चुका था. जब राणा जेल में था, तो उसके दुश्मनों ने उसके पिता भगवान डांगर की हत्या कर दी. राणा अपनी पिता के खून का बदला लेना चाहता था.
वागनिया छोड़कर निकले दोनों दोस्त अम्रेली के ही नाजापुर गांव पहुंचे. यहां उन्होंने राणा की पिता की हत्या करने वाला शख्स उस समय अपने खेत में काम कर रहा था. भूपत और राणा ने उसे वहीं ठिकाने लगा दिया. ये बतौर बागी उन दोनों द्वारा अंजाम दी गई पहली हत्या थी.

भूपत, लखु देवायत और कालू वांक (बाएं से दाएं)
दो लोगों से शुरू हुई ये गैंग जल्द ही बढ़कर 42 लोगों की हो गई. एक के बाद एक कुल 87 हत्याएं और 8 लाख 40 हजार की लूट इस गैंग के खाते में दर्ज हो गई. भूपत सिंह गैंग की ख़ास बात ये थी कि 70 से ज्यादा लगे मुकदमों में एक भी मुकदमा बलात्कार का नहीं था. वो महिलाओं का सम्मान करता. गरीब घर की बेटियों की शादी करवाता और लूट का एक हिस्सा गांववालों में बांट देता. एक किवंदती है कि राजकोट के जेतपुर में एक सुनार की दुकान लूटने के बाद उसने सोने और चांदी के सिक्के बाजार में उछाल दिए थे, ताकि जरूरतमंद लोग उन्हें बीन सकें. इतने अप्रशों के बावजूद आम जनता में वो कुख्यात नहीं, लोकप्रिय था. लोग बड़ी दरियादिली के साथ उसे अपने घरों में छिपने के लिए पनाह देते थे. जिस भूपत से लोग डरते थे, उसकी लोकप्रियता की असल वजह क्या थी. भूपत सिंह पर 'एक हतो भूपत' नाम से गुजराती में किताब लिख चुके जीतूभाई ढाढल बताते हैं-
"भूपत हालातों के चलते बागी बना था. उसके चरित्र पर कभी दाग नहीं लगा. वो गरीबों के पक्ष में खड़ा होता. जूनागढ़ में आरजी हुकूमत के लिए चले संघर्ष में भूपत और उसके साथियों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. जब जूनागढ़ के विलय के समय सांप्रदायिक दंगे भड़के, भूपत ने बहुत से लोगों की जान बचाई. दोनों धर्मों की औरतों की आबरू की रक्षा की. इस काम ने भूपत को जनता के बीच काफी लोकप्रियता दिलाई."

भूपत के साथी कालू वांक और उनकी गुजराती किताब का पहला पन्ना
अम्रेली के छोटे से गांव बरवाला का ये नौजवान जल्द ही सौराष्ट्र में एक मिथकीय चरित्र में तब्दील हो गया. भूपत के बारे में एक मिथक ये भी है कि उसने आजादी के बाद बड़ौदा के गायकवाड़ राज परिवार को एक ख़त लिखकर कहा था कि लोकशाही आने के बाद जिन 42 कामगारों को वो सेवा निवृत्त कर रहे हैं, उन्हें मुआवजे के तौर पर कम से कम पांच-पांच बीघा जमीन दी जाए. अगर ऐसा नहीं हुआ, तो वो गायकवाड़ परिवार के हर एक आदमी को मौत के घाट उतार देगा. भूपत सिंह की ये कहानी अक्सर सुनाई जाती है, लेकिन क्या सच में ऐसा था. जीतूभाई ढाढल बताते हैं-
"भूपत सिंह पर कानिटकर की किताब के अलावा एक और दस्तावेज है. उनके साथी कालू वांक उनके साथ पकिस्तान गए थे. उन्होंने पकिस्तान में रहते हुए भूपत की पूरी जिंदगी पर गुजराती में एक किताब लिखी थी. ये किताब भारत में लंबे समय तक प्रतिबंधित रही. इस किताब में भूपत की हर छोटी से छोटी चीज का जिक्र है, लेकिन इस घटना का कहीं जिक्र नहीं मिलता. बागी ऐसा चरित्र होते हैं, जिनके साथ अक्सर कई किस्म के मिथक जुड़ जाते हैं. ये भी ऐसा ही मिथक है."

जीतूभाई और उनकी किताब 'एक हतो भूपत'
आग के लिए पानी का डर
आजादी से पहले अंग्रेज रजवाड़ों के अंदरूनी मामलों में बहुत कम दखल देते. रजवाड़ों के पास कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए अपनी पुलिस होती. रजवाड़ों का पुलिस तंत्र बहुत धीमा और सुस्त किस्म का था. आम जनता भूपत के पक्ष में थी. ऐसे में उसे पुलिस की वजह से कोई ख़ास दिक्कत नहीं हुई. वो भेस बदलने में माहिर आदमी था. इक बार भूपत की गैंग ने राजकोट के पास एक लूट को अंजाम दिया. 1948 में उसके साथी राणा ने उसे बताया कि राजकोट के एक सिनेमा हॉल में ‘चंद्रलेखा’ फिल्म लगी हुई है. एस.एस. वासन के निर्देशन में यह फिल्म मूल रूप से तमिल में बनी थी और बाद में इसे हिंदी में डब किया गया था. तय हुआ कि दोनों लोग फिल्म देखने जाएंगे.

फिल्म चंद्रलेखा का पोस्टर
दोनों ने बदन पर खद्दर डाटा. गांधी टोपी लगाई और कांग्रेसी नेता का भेष बनाकर सड़क पर चले गए. यहां उन्हें एक ट्रकवाले ने लिफ्ट दी. कुछ समय बाद में दोनों लोग राजकोट के फिल्म हॉल में ‘चंद्रलेखा’ देख रहे थे. पुलिस को इस बात की खबर लगी उनके फिर से जंगल लौट जाने के बाद.
अपने कारनामों के चलते जल्द ही भूपत राष्ट्रीय अख़बारों की सुर्खी बन गया. ऐसे में उस समय सौराष्ट्र के गृहमंत्री पुलिस की नाकामी से बहुत खफा हुए. भूपत के न पकड़े जाने तक उन्होंने पुलिस के वेतन में 25 फीसदी की कटौती करने की घोषणा कर दी. उस समय तक गुजरात बॉम्बे प्रेसीडेंसी का हिस्सा हुआ करता था. सरकार ने पुणे में काम कर रहे 1933 बैच के एक अफसर को सौराष्ट्र भेजा. इस अफसर का नाम था विष्णु गोपाल कानिटकर. साल था 1951. कानिटकर को आउट ऑफ टर्म प्रमोशन देकर राजकोट रेंज का आईजी बनाया गया. काम के शुरुआती दौर में ही कानिटकर को समझ में आ गया कि रजवाड़ों से विरासत में मिला पुलिस तंत्र भूपत का मुकाबला नहीं कर सकता. उन्होंने पूरी फ़ोर्स की नए सिरे से ट्रेनिंग शुरू की.

उस समय के अखबार भूपत की खबरों से रंग गए
इधर भूपत खुलेआम पुलिस को चुनौती दे रहा था. वो लूट की वारदात करने से पहले एक चिट्ठी पुलिस के पास भेजता. इसमें लूट की जगह और समय लिखा होता. गुजराती में इस किस्म की चिट्ठी को 'झासा' कहा जाता. भूपत अपनी चिट्ठी में कानिटकर के लिए गुजराती शब्द 'डीकरा' का इस्तेमाल करता. इसका मतलब होता है 'बेटा'. हालांकि, उम्र के लिहाज से देखा जाए तो कानिटकर भूपत से 10 साल बड़े थे.
कानिटकर एक और समस्या से जूझ रहे थे. भूपत पुलिस के मुखबिरों को शारीरिक के बजाए मानसिक तौर पर प्रताड़ित करता था. वो मुखबिरी करने वाले शख्स के नाक-कान काट लेता था. इतना ही नहीं, वो उस आदमी को चेतावनी देता था कि इस बेज्जती से बचने के लिए अगर उसने आत्महत्या की, तो उसके पूरे परिवार को खत्म कर दिया जाएगा. उस दौर में 40 से ज्यादा आदमी ऐसे थे, जो भूपत की इस यातना का शिकार हुए थे.

विष्णु गोपाल कानिटकर
कानिटकर ने दूसरा बड़ा बदलाव किया पुलिस में पागियों की भर्ती करके. कच्छ के रेगिस्तानी इलाके में पागी सदियों की अपनी एक खूबी की वजह से टिके हुए थे. ये लोग रेत पर छपे पांव के निशान पढ़ने में माहिर थे. ऐसे दो पागी कानिटकर के लश्कर का हिस्से थे. कानिटकर ने सबसे पहले भूपत के समर्थकों को गिरफ्तार करना शुरू किया. इससे भूपत के छिपने के कई ठिकाने बंद हो गए. लेकिन भूपत अभी भी उनकी पकड़ से दूर था.
इस बीच भूपत के साथी राम बसिया की मौत हो गई. भूपत को अपनी गैंग की निचली कड़ी को संभालने के लिए नए आदमी की तलाश थी. ऐसे में उसकी मुलाकात हुई अमर सिंह से. अमर सिंह छोटे-मोटे मामलों में जेल की हवा खा चुका था. भूपत ने उससे अपनी आंखों के सामने एक आदमी का क़त्ल करवाया और इस तरह अमर सिंह भी भूपत की तरह 'भाहरवटिया' बना. भाहरवटिया गुजरती का शब्द है, जिसका हिंदी तर्जुमा 'बागी' से मिलता-जुलता है. धीरे-धीरे अमर सिंह ने पूरे गैंग में अपनी पकड़ मजबूत बना ली और भूपत का भरोसेमंद बन गया.
गैराज की पर्ची पर लिखा था, एक डकैत का ठिकाना
तमाम कोशिशों के बावजूद कानिटकर को कोई ख़ास सफलता हासिल नहीं हो रही थी. उन्हें राजकोट में लूट की एक वारदात की खबर लगी. यहां उन्होंने पाया कि डकैतों का ये दल वारदात के बाद कार से फरार हुआ है. तभी वहां उन्हें एक गैराज की पर्ची मिली. पर्ची से पता लगा कि वारदात में इस्तेमाल की गई कार एक भूतपूर्व राजकुमार की है. राजकुमार की सियासी हैसियत बड़ी थी. उनके बड़े भाई आजाद भारत में मद्रास प्रॉविंस के गवर्नर हुआ करते थे. कानिटकर ने शहजादे पर दबाव डाला. बदनामी के डर से वो खुल गए. उन्होंने भूपत के साथी कालू देवायत को पनाह दे रखी थी. कानिटकर को राजपरिवार के फार्म हाउस ले जाया गया. वहां हुई गोलीबारी में देवायत को गोली लगी, लेकिन वो भागने में कामयाब रहा.

पुलिस एनकाउंटर में मारे गए भूपत के साथी
कानिटकर ने तुरंत पागियों को मदद के लिए बुलाया. पैर के निशान का पीछा करते-करते पागी पहाड़ी की तलहटी में पहुंचे कि ऊपर से गोली चलनी शुरू हो गई. काफी देर चली गोलीबारी के बाद पुलिस देवायत को मारने में कामयाब रही. इस बीच पुलिस के दो जवान भी शहीद हुए. देवायत की मौत को भूपत ने खतरे की घंटी की तरह लिया. पुलिस एक-एक करके उसके गिरोह के सदस्यों को निशाने पर ले रही थी.
इधर भूपत के सबसे भरोसेमंद साथी राणा को किसी काम के लिए बड़ौदा जाना था. वो राणा के साथ मिलकर पुलिस के 700 जवानों की घेराबंदी को चकमा दे चुका था. लेकिन देवायत की मौत के बाद भूपत कोई जोखिम लेने को तैयार नहीं था. राणा ने उससे कहा कि वो बेवजह घबरा रहा है. जल्द ही लौट आने के आश्वासन के साथ राणा बड़ौदा के लिए रवाना हुआ. पुलिस के पास पहले से ये सूचना थी कि राणा बड़ौदा आ सकता है. बड़ौदा पहुंचते ही पुलिस ने राणा को घेरकर उसका एनकाउंटर कर दिया.
वो सच में पकिस्तान चला गया
देवायत के बाद राणा के झटके ने भूपत को हिलाकर रख दिया. उसने फैसला किया कि भारत की पुलिस से बचने के लिए वो कुछ समय के लिए सीमा लांघकर पाकिस्तान चला जाएगा. पुलिस को भी अपने खुफिया तंत्र से इस बात की सूचना मिल चुकी थी. सीमा पर नाकेबंदी तेज कर दी गई. 6 जून 1952 की रात भूपत नाकेबंदी को धता बताते हुए अपने तीन साथियों के साथ पाकिस्तानी सरहद में दाखिल हुआ. यहां उसे पाकिस्तानी सुरक्षा बलों ने पकड़ लिया. गैरकानूनी तरीके से सीमा पार करने के जुर्म में उन्हें एक साल की कैद और 100 रूपए का जुर्माना हुआ.

भूपत सिंह अपने आखिरी दौर में
भूपत पकिस्तान गया तो था ये सोचकर कि जब मामला थोड़ा शांत होगा, तो वो भारत लौट आएगा. लेकिन ऐसा हो न सका. जेल से छूटने के बाद भूपत ने इस्लाम स्वीकार कर लिया. उसने वहां एक मुस्लिम लड़की से शादी कर ली और अपना नाम बदलकर अमीन रख लिया. उसने कराची के बाजार में दूध बेचना शुरू कर दिया. भारत की सरकार ने एक से ज्यादा दफा पाकिस्तान से भूपत को भारत को सौंपने के लिए कहा, लेकिन पाकिस्तान सरकार ने ऐसा करने से इनकार कर दिया. उम्र के आखिरी पड़ाव में भूपत भारत लौटना चाहते थे, लेकिन तब भारत की सरकार ने इसकी मंजूरी नहीं दी. आखिरकार 1996 में उनकी मौत के बाद उन्हें पकिस्तान में दफना दिया गया.

विष्णु गोपाल कानिटकर की पुस्तक
उसके तीन साथियों में से एक अमर सिंह सीमा पार करके भारत लौटा आया. कुछ समय तक उसने अपनी डकैतों की एक गैंग चलाई, लेकिन जल्द ही पुलिस के हत्थे चढ़ गया. इस कहानी के तीसरे किरदार वीजी कानिटकर का क्या हुआ? गुजरात से वो राजस्थान चले गए और मध्य प्रदेश- राजस्थान के सीमावर्ती इलाकों में 11 डकैत गिरोहों का खात्मा किया. 1968 में सीआरपीएफ के पहले डीजीपी बने. रिटायरमेंट के बाद पुणे लौटे. उन्होंने भूपत सिंह पर एक किताब भी लिखी. "भूपत-एक विलक्षण गुनहगार". ये किताब मराठी में थी.
साभार: इस स्टोरी का आइडिया अहमदबाद से दी लल्लनटॉप के पाठक विवेक ने दिया. उन्होंने भूपत सिंह के बारे में बुनियादी जानकारियां हमें दीं. जेतपुर के जीतूभाई ढाढल का भी दी लल्लनटॉप शुक्रगुजार है. उन्होंने हमें इस मामले में विस्तृत जानकारियां और दुर्लभ फोटोग्राफ उपलब्ध करवाए.
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