ब्रह्मानंद लाल दास की बेटी के साथ बुलाकी भाग गया
उस दिन मैंने बुलाकी से वादा किया था कि एक दिन तुम्हारी कविताओं के बारे में मैं दुनिया को ज़रूर बताऊंगा.
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फोटो क्रेडिट- सुमेर सिंह राठौड़

अविनाश दास
अविनाश दास पत्रकार रहे. फिर अपना पोर्टल बनाया, मोहल्ला लाइव
नाम से. मन फिल्मों में अटका था, इसलिए सारी हिम्मत जुटाकर मुंबई चले गए. अब फिल्म बना रहे हैं, ‘आरा वाली अनारकली’ नाम से. पोस्ट प्रोडक्शन चल रहा है. कविताएं लिखते हैं तो तखल्लुस ‘दास दरभंगवी’ का होता है. इन दिनों वह किस्से सुना रहे हैं एक फकीरनुमा कवि बुलाकी साव के, जो दी लल्लनटॉप आपके लिए लेकर आ रहा है. बुलाकी के किस्सों की पच्चीस किस्तें आप पढ़ चुके हैं. जिन्हें आप यहां क्लिक कर पा सकते हैं.
हाजिर है छब्बीसवीं किस्त, पढ़िए.
ब्रह्मानंद कहता- बाभन बेटा उपजे भभूत, उलटा लटके बनिया पूत
बुलाकी साव बहुत थोड़ा पढ़ा-लिखा था. ज्यादा जीवन में ही रमा था. उसके पास मेरे लगभग सभी प्रश्नों के जवाब थे, लेकिन कुछ प्रश्न थे - जिसका जवाब मुझे ही खोजना था. ये प्रश्न किताबों की दुनिया से जुड़े थे. बुलाकी साव ने कुछ दिन हिंदी की साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं की एक दुकान, जो गुमटी जैसी थी, मैत्रेयी साहित्य संगम के लिए रेलवे से बिल्टी कटवाने का काम किया था. डाक लगभग रोज़ आती थी. मैत्रेयी साहित्य संगम राज दरभंगा के पिछले दरवाज़े के पास था. इसके संचालक तेजनारायण जी बुलाकी साव को बहुत मानते थे. लेकिन जैसा कि बुलाकी साव का स्वभाव था, तीन महीने बाद वह इस काम से ऊब गया. लेकिन एक दिन जब मैंने उससे कहा कि मैं तुम्हारी कहानियों और कविताओं से ऊब गया हूं - वह मुझे मैत्रेयी साहित्य संगम पर ले गया.छोटी सी उस गुमटी का मुंह पश्चिम की तरफ था. दोपहर के बाद से सूरज गुमटी में रखी पत्र-पत्रिकाओं को निहारता रहता था. शाम में वहां शहर के साहित्यिक मिजाज वाले लोग जुटते थे. बुलाकी साव जब मुझे यहां लाया, तो काफी देर तक मैं किताबों और पत्र-पत्रिकाओं को उलटता पुलटता रहा. मेरी नज़र एक पुस्तक पर पड़ी. हम लड़ेंगे साथी. कवि का नाम था पाश. उसकी कीमत सौ रुपये के आसपास थी. मैंने बुलाकी साव की ओर देखा. बुलाकी साव ने तेजनारायण जी से कुछ कहा और वह किताब मुझे मिल गयी. अब चस्का ऐसा था कि एक किताब से बात नहीं बनी. मैं रोज़ वहां जाने लगा. मेरी हालत देख कर एक रुपये पन्नेे के हिसाब से तेजनारायण जी ने मुझे पीएचडी थीसिस की नक़ल उतारने का काम दिलवा दिया. इससे कुछ किताबें आयीं, लेकिन भूख बड़ी थी और किताबें बहुत ज़्यादा.
एक दिन उसी दुकान पर श्यामानंद झा नाम के एक युवक मिले. मुझसे बड़े थे और थोड़े दिनों बाद पढ़ने के लिए जेएनयू चले गए. उन्होंने बताया कि वे अभिव्यक्ति नाम की एक संस्था चलाते हैं. सीएम आर्ट कॉलेज में उसी संस्था की एक गोष्ठी में अजित बाबू से मुलाकात हुई. वे ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक थे. अजित बाबू का आवास लक्ष्मीसागर में था. श्यामानंद झा ने बताया कि अजित बाबू ने जीवन भर जितनी किताबें जमा की हैं, उन सबको पाठ-लाभ के लिए सार्वजनिक करना चाहते हैं. दरभंगा जैसे शहर में एक ठिकाना मुझे मिल गया, जहां किताबें ही किताबें थीं. जिस दिन अपनी घरेलू लाइब्रेरी को सार्वजनिक करने के लिए अजित बाबू ने अपने घर पर समारोह का आयोजन किया था - उस दिन मैं बुलाकी साव को लेकर वहां गया था. अजित बाबू जब बता रहे थे कि ज्ञान ही एेसी पूंजी है, जो बांटने से घटती नहीं - मैंने देखा एक कोने में बैठा बुलाकी साव रो रहा है.
मैं बुलाकी साव से प्यार करता था. लौटते हुए मैंने उससे रोने की वजह पूछी. उसने बताया कि वह पढ़ना चाहता था. लेकिन ऐन स्कूल जाने के वक्त उसके गांव का ब्रह्मानंद लाल दास उसे कोई काम पकड़ा देता था. कभी तेल लाने के लिए भेज देता था, तो कभी आंगन में रखी जलावन की लकड़ी को काटने के लिए कह देता. वह तब दूसरी कक्षा में पढ़ता था. वह बताता कि उसे स्कूल जाना है, तो ब्रह्मानंद लाल दास का जवाब होता - बाभन बेटा उपजे भभूत, उलटा लटके बनिया पूत. चूंकि बुलाकी साव बनिया जाति से था, ब्रह्मानंद लाल दास को लगता कि वह पढ़ कर कलक्टर तो बन नहीं सकता - इसलिए उसे उसका मूल काम करना चाहिए. यही ब्रह्मानंद लाल दास था, जिसकी बेटी से बुलाकी साव को प्यार हुआ और जब दोनों आधी रात को गांव से भागकर अपनी दुनिया में बसने जा रहे थे - मुखिया के बेटे ने दोनों को पकड़ लिया था.
उस दिन पहली बार मैंने कुपढ़ रह जाने का दंश बुलाकी साव के चेहरे पर देखा था. हालांकि वह निरक्षर नहीं था, फिर भी उसकी साक्षरता को पढ़ने-लिखने की श्रेणी में नहीं गिना जा सकता था. उस दिन मैंने उससे कहा कि मैं तुम्हारे ही हिस्से की पढ़ाई-लिखाई कर रहा हूं. उसने संतोष में अपना सिर हिलाया. उस दिन के बाद से मैं जो भी किताबें पढ़ता, उनके बारे में बुलाकी साव को बताता. धीरे-धीरे बुलाकी साव हिंदी और दूसरी भाषाओं के लेखकों के बारे में जानने लगा. चूंकि वह कविताएं बुनता था, उसकी इच्छा थी कि काश उसकी कविताएं सुनने में मेरे अलावा और भी लोग दिलचस्पी लेते. मैंने उससे वादा किया था कि एक दिन तुम्हारी कविताओं के बारे में मैं दुनिया को ज़रूर बताऊंगा. उस दिन खुश होकर उसने मुझे अपनी यह कविता सुनायी थी.
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