The Lallantop
Advertisement

किस्सा बुलाकी साव-12: आधी रात साथ घूमने वाली बगावती लड़की

गाड़ी से तीन लोग उतरे. ये खंडवा के प्रताप राव कदम, बरेली के वीरेन डंगवाल और पटना के आलोकधन्वा थे.

Advertisement
Img The Lallantop
symbolic image
pic
लल्लनटॉप
2 जून 2016 (Updated: 2 जून 2016, 12:01 PM IST) कॉमेंट्स
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share
Avinash Das
अविनाश दास

अविनाश दास पत्रकार रहे. फिर अपना पोर्टल बनाया, मोहल्ला लाइव
  नाम से. मन फिल्मों में अटका था, इसलिए सारी हिम्मत जुटाकर मुंबई चले गए. अब फिल्म बना रहे हैं, ‘आरा वाली अनारकली’ नाम से. पोस्ट प्रोडक्शन चल रहा है. कविताएं लिखते हैं तो तखल्लुस ‘दास दरभंगवी’ का होता है. इन दिनों वह किस्से सुना रहे हैं एक फकीरनुमा कवि बुलाकी साव के, जो दी लल्लनटॉप आपके लिए लेकर आ रहा है. बुलाकी के किस्सों की ग्यारह किस्तें आप पढ़ चुके हैं. जिन्हें आप यहां क्लिक कर पा सकते हैं.
 हाजिर है बारहवीं किस्त, पढ़िए.


उतनी बगावत पहली बार किसी लड़की के भीतर देखी थी बुलाकी साव इस बात से खुश रहता था कि मैं पढ़ने-लिखने वालों की संगत में रहता हूं. एक ही बार उसने थोड़ा शक किया. जब उसने आधी रात के वक्‍त नाका नंबर पांच के पास एक ही साइकिल पर उस लड़की के साथ देख लिया था. जिसके साथ मैं नाटक करता था. लहेरियासराय कचहरी के पास हनुमान मंदिर के सामने मेरे हाथ में लड्डू हुए उसने कह ही दिया, 'बाकी सब तो ठीक है मुन्‍ना, लेकिन तुम पटरी से उतर रहे हो.' मेरे हाथ से लड्डू गिरते-गिरते बचा और बुलाकी साव को प्रश्‍नवाचक आंखों से देखते हुए एक बार में पूरा लड्डू मुंह में डाल लिया.
'कौन थी वह लड़की?'
सच बताऊं, तो मैं भी उन दिनों नहीं जानता था कि कौन थी वह लड़की? क्‍योंकि उतनी आग, उतनी बग़ावत पहली बार किसी लड़की के भीतर देखी थी. वह भी उस शहर में, जहां लड़के तक शाम सात बजे से पहले घर लौट आते थे. उसी शहर में एक बार उस लड़की ने प्रीतम स्‍टूडियो में अपनी सहेली के साथ जींस-पैंट में तस्‍वीर खिंचवायी थी. बैंक में काम करने वाले भाई ने यह तस्‍वीर भूगोल की उसकी किताब में देखी थी. पूरे घर के सामने उसने वह तस्‍वीर फाड़ी, जलायी और बहन को सलज्‍ज और सुशील बनने की आज्ञा दी थी. वही लड़की एक दिन पहले आधी रात को मेरे साथ मेरी साइकिल के आगे वाले डंडे पर बैठी थी.
बुलाकी साव को मैंने पूरी कहानी बतायी. इस कहानी पर उसे इसलिए भरोसा हो गया, क्‍योंकि इस कहानी में हिंदी के तीन कवि उपस्थित थे. सन '94 या सन '95 की बात है. आकाशवाणी दरभंगा के कैंपस में अखिल भारतीय कवि सम्‍मेलन का आयोजन किया गया था. उस लड़की को कविताओं से मोहब्‍बत थी. वह जानती थी कि मुझे कविता सुनना प्रिय है. रिहर्सल के बाद घर लौटते हुए मैं उसे अक्‍सर बुलाकी साव की कविताएं सुनाता था. और उससे उसकी कविताएं सुनता था. बहरहाल, कवि सम्‍मेलन को शाम सात बजे शुरू होना था, लेकिन नौ बजे शुरू हुआ. आख़‍िरी कवि ने जब अपना काव्‍यपाठ ख़त्‍म किया, तब रात के साढ़े बारह-एक बज रहे थे. आसमान में बादल घुमड़ रहे थे, गरज रहे थे.
चूंकि साइकिल मेरे पास ही थी और उस बेवक्‍त में कोई दूसरी सवारी-गाड़ी मिलनी मुश्किल थी, उसने मुझसे कहा- घर छोड़ दो. मैंने उसकी तरफ देखा. वह सहज, खुश और निडर नज़र आई. मैं साइकिल पर बैठ चुका था. मैंनेे बायां हाथ हैंडल से हटा लिया. वह मेरे सीने से अपनी पीठ लगा कर बैठ गई. हम चल पड़े. अमावस्‍या की रात थी. सड़कों का हाल ख़राब था. और कुछ सूझ नहीं रहा था. गड्ढों की थाह लेते हुए मैं साइकिल धीरे-धीरे चला रहा था. तभी पीछे से दो रोशनी साइकिल की दोनों तरफ आकर जम गई. वह काली जीप थी या उजली अंबेसडर कार, आज याद नहीं- लेकिन हमारे पीछे आकर रुक गई. हम डरे नहीं, लेकिन साइकिल से उतर गए.
उस गाड़ी से तीन लोग उतर कर आए. हम उनको देख कर अवाक थे. इन तीनों को हमने अभी-अभी कवि सम्‍मेलन में सुना था. इनमें खंडवा से आये कवि प्रताप राव कदम थे, बरेली से आये कवि वीरेन डंगवाल थे और हमारी राजधानी पटना से आये कवि आलोकधन्‍वा थे. इनमें से एक ने हम दोनों का नाम पूछा था. हमने अपना नाम बताने के साथ ही उन्‍हें यह भी बताया कि अभी-अभी आपको ही सुन कर आ रहे हैं। वे बहुत खुश हुए और सबसे अधिक तो इस बात पर खुश हुए कि दरभंगा जैसे शहर में आधी रात को एक लड़की और एक लड़का एक ही साइकिल पर चले जा रहे हैं. वे तीनों प्रसन्‍न मन गाड़ी में जाकर बैठ गये और चले गये.
उनके आगे चले जानेे के बाद हमने अपनी साइकिल आगे बढ़ायी. मिर्ज़ापुर चौक के पास जो बूंदाबांदी शुरू हुई, वह नाका नंबर पांच तक पहुंचते-पहुंचते मूसलाधार बारिश में बदल गई. हम थोड़ी देर के लिए पान की एक गुमटी से सटकर खड़े हो गये थे. लेकिन जब लगा कि बारिश से बच नहीं पाएंगे, तो भीगते हुए फिर आगे बढ़ गए. बुलाकी साव भी उस वक्‍त नाका नंबर पांच पर पान की गुमटी के बगल में एक चबूतरे पर बोरा ओढ़ कर बैठा था. यह पूरी घटना सुनने के बाद उसने मेरे दोनों कंधे को अपने हाथ से दबाया, जैसे उसे किसी बात पर अचानक गर्व हो गया हो. फिर मुझे लहेरियासराय टावर के आगे स्‍वीट होम तक साथ लेकर आया. वहां उसने छेना के रंग-बिरंगे सूखे रसगुल्‍ले खाते-खिलाते हुए यह कविता सुनायी थी.

ठीक है कि रसोई में अन्‍न का दाना नहीं हैठीक है कि रोशनी का कोई परवाना नहींं हैठीक है कि कहीं भी आना नहीं जाना नहीं हैठीक है कि किसी को भी हमें समझाना नहीं है

ठीक है कि हम सभी उम्‍मीद के पीछे पड़े हैंठीक है कि पंक्तियों में कायदे से सब खड़े हैंठीक है कि पेड़ के पत्ते हरे हैं और भरे हैंठीक है कि मुफ़लिसी में ख्‍़वाब भी इतने बड़े हैं

ठीक है कि देर रातों में भी कुछ पंछी जगे हैंठीक है कि चोर मौसेरे नहीं भाई सगे हैंठीक है कि ग़ैर क्‍या उसनेे सगों को भी ठगे हैंठीक है कि आसमानों में नहीं तारे उगे हैं

एक दिन तो पेट भर के खा सकेंगे लोग सारेएक दिन तो भाग जाएंगे बुरे सपने हमारेएक दिन तो छंटेंगे बादल घनेरे और कारेेएक दिन तो प्‍यार का होगाकहो क्‍यानहीं प्‍यारे?




आपके पास भी अगर रोचक किस्से, किरदार या घटना है. तो हमें लिख भेजिए lallantopmail@gmail.com पर. हमारी एडिटोरियल टीम को पसंद आया, तो उसे 'दी लल्लनटॉप' पर जगह दी जाएगी.


बुलाकी साव की पिछली सभी कड़ियां पढ़ना चाहते हैं तो नीचे जहां 'किस्सा बुलाकी साव' का बटन बना हुआ है वहां क्लिक करें-

Subscribe

to our Newsletter

NOTE: By entering your email ID, you authorise thelallantop.com to send newsletters to your email.

Advertisement