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बुलाकी साव के पांव अष्‍टावक्री हो गये थे

एक असाध्‍य घाव के बाद दादी के पांव काट दिए गए. कमरे से निकले तो बुलाकी साव कांप रहा था. बाहर डॉक्‍टर साहब उसे देखकर मुस्‍कराए.

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20 जून 2016 (Updated: 20 जून 2016, 07:30 AM IST) कॉमेंट्स
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अविनाश दास
अविनाश दास

अविनाश दास पत्रकार रहे. फिर अपना पोर्टल बनाया, मोहल्ला लाइव
  नाम से. मन फिल्मों में अटका था, इसलिए सारी हिम्मत जुटाकर मुंबई चले गए. अब फिल्म बना रहे हैं, ‘आरा वाली अनारकली’ नाम से. पोस्ट प्रोडक्शन चल रहा है. कविताएं लिखते हैं तो तखल्लुस ‘दास दरभंगवी’ का होता है. इन दिनों वह किस्से सुना रहे हैं एक फकीरनुमा कवि बुलाकी साव के, जो दी लल्लनटॉप आपके लिए लेकर आ रहा है. बुलाकी के किस्सों की उन्तीस किस्तें आप पढ़ चुके हैं. जिन्हें आप यहां क्लिक कर पा सकते हैं.
 हाजिर है तीसवीं किस्त, पढ़िए.


किसी अनुवाद के अनुवाद का अनुवाद है बुलाकी साव चप्‍पल नहीं पहनता था. नंगे पांव निरंतर चलते हुए पांव में छाले पड़ गये थे. बुलाकी साव ने कभी उन छालों की परवाह नहींं की. वह दस साल का था. एक दिन पैनचोभ गांव के उत्तरवारी टोल से गुज़रा. बीच सड़क पर एक जोड़ी नयी चप्‍पल पर नज़र पड़ी. उसे अपने पांव में डाला. पीछे से 'चप्‍पल चोर - चप्‍पल चोर' की आवाज़ आयी. बुलाकी ने मुड़ कर देखा. पैनचोभ के चार-पांच राजपूत लड़के पीछे आ रहे थे. वह भागा नहीं. रुक गया. उन लड़कों ने उसे मारा-पीटा और पक्‍का पोखर से पुरनी पोखर तक घुमा दिया. उसी दिन से बुलाकी साव ने प्रण किया कि वह जीवन में कभी चप्‍पल को पांव नहीं लगाएगा. अब उसके पांव अष्‍टावक्री हो गये हैं, लेकिन कभी कोई तकलीफ उसने ज़ाहिर नहीं की. एक दिन मैंने देखा कि वह नागनाथ चच्‍चा के घर के सामने वाले कुएं की ईंट में अपना पांव बुरी तरह रगड़ रहा है. पूरा पांव ख़ून का एक बड़ा सा थक्‍का लग रहा है.
बुलाकी साव को अकौत नाम की बीमारी हो गयी थी, जिसे अंग्रेजी में एग्‍जीमा (Eczema) कहते हैं. मैं उसके पास गया, तो उसने बड़ी असहाय नज़रों से मुझे देखा. कहा- ऐसा लगता है मुन्‍ना कि पैर को काट के फेंक दें. अंग्रेजी डॉक्‍टरों ने जो दवा दी, वह कुछ भी काम नहीं आई. उसने बताया कि मिसर टोला में उसके बचपन का एक यार रहता है. होमियोपैथी का डॉक्‍टर है. जात से बाभन है, लेकिन जात-पात नहीं मानता. कमनिस्‍ट पाटी भी किए हुए है. एक स्‍कूल भी चलाता है. मैंने कहा - चलो, उनके पास चलते हैं. बुलाकी साव उठ कर खड़ा हो गया. अभी-अभी एक रिक्‍शा दरिमा वाली भाभी को लेकर सामने से गया था. वह लौटा, तो हम दोनों उस पर बैठ गये और आधे घंटे में मिसर टोला पहुंच गये.
नागपंचमी का दिन था. दिग्‍घी पोखर के किनारे पर एक मंदिर के सामने महिलाओं की भीड़ लगी थी. दूसरे किनारे पर होली क्रॉस मिशन की दीवार थी, जिस पर रंग-बिरंगी चित्रकारी साफ दिख रही थी. मंदिर के ठीक सामने डाक्‍टर साहब का घर था घर के आगे बड़ा सा अहाता था और ताड़ के दो-तीन पेड़ थे, जिनके ऊपर ताड़ी का घैल लटका हुआ था. हम रिक्‍शा से उतरे. डाक्‍टर साहब अपने अहाते में ही बेंत की कुर्सी लगा कर एक बुज़ुर्ग के साथ बैठे थे. बुलाकी को उन्‍होंने देखा, तो उत्‍साह से उठे और लपक कर उसे गले लगा लिया. परिचय हुआ तो पता चला कि डाक्‍टर साहब का नाम नरेंद्र मिश्र है और उनके साथ बैठे बुज़ुर्ग का नाम निरंजन हैं. सबसे पहले तो डॉक्‍टर साहब ने बुलाकी के पांव पर नीले रंग का सूखा हुआ कोई लेप लगाया, फिर अंदर आवाज़ लगायी, 'हेे देखियौ, के आयल छथि!' (देखिए तो, कौन आया है!) अंदर से एक दुबली-पतली स्‍त्री बाहर आयी. बुलाकी साव को देख कर मुस्‍करायी. बुलाकी साव के मुंह से निकला - भौजी.
डॉक्‍टर साहब ने कहा कि जब तक आपकी भौजी हम सबके लिए चाय बनाती हैं, मैं अपनी नयी ग़ज़लें आपको सुनाता हूं. पता चला कि डॉक्‍टर साहब शायर भी हैं. उन्‍होंने आठ-दस ग़ज़लें सुनायीं, जिनमें से कुछ शेर मुझे याद रह गये- इंसाफ़ की गर्दन पे कोई घुड़सवार है, अब भी वही आदिम सवाल बरक़रार है; इतिहास में हर नाम का चर्चा किया गया, अब तक हमारा नाम मगर दरकिनार है. एक ग़ज़ल थी, जिसके शेर थे- रिश्‍ता-ए-ख़ून पराये की तरह लगता है, घर बपौती भी किराये की तरह लगता है; एक टेबल पे रोज़ एक साथ खाते हैं, फिर भी होटल से ही खाये की तरह लगता है. डाक्‍टर साहब की एक और शायरी मुझे याद आ रही है- वक्‍त हो जाए बेआवाज़ तो फिर क्‍या कीजै, आपको ख़ुद से लगे लाज तो फिर क्‍या कीजै; सात परदे भी हों कमरे में हो तन्‍हाई भी, फिर भी खुल जाए अगर राज़ तो फिर क्‍या कीजै. चूंकि डाक्‍टर साहब क्रांतिकारी भी थे, उनकी एक ग़ज़ल के शेर कुछ इस तरह थे- जब चमन की बुलबुलों का रहनुमा सय्याद है, तब हिफ़ाज़त की यहां हर बात बेबुनियाद है; क्या करोगे जान कर इतिहास अपने मुल्क का, यह किसी अनुवाद के अनुवाद का अनुवाद है.
बुलाकी साव को अब थोड़ा आराम मिल गया था. उसने डाक्‍टर साहब से पूछा- काकी कहां हैं? डाक्‍टर साहब ने कहा कि अंदर जाकर मिल लो. बुलाकी साव अंदर गया, तो मैं भी उसके पीछे-पीछे गया. एक कमरे में चारपाई पर चादर ओढ़ कर डॉक्‍टर साहब की मां लेटी हुई थी. टुकुर-टुकुर छत को ताक रही थी. बुलाकी ने पांव छूने के लिए चादर टटोली, तो उसे पांव मिला ही नहीं. उसने डाक्‍टर साहब की मां की ओर देखा. मां मुस्‍करायी और कहा - 'तोहर काकी के पएर आब बिला गेलय. अहिना आसीर्वाद दइ छियउ... (तुम्‍हारी काकी के पास अब पांव नहीं है. ऐसे ही आशीर्वाद दे रही हूं...). पता चला कि एक असाध्‍य घाव के बाद उनके पांव को काट दिया गया है. हम जब उस कमरे से निकले तो बुलाकी साव कांप रहा था. बाहर डॉक्‍टर साहब उसे देखकर मुस्‍कराए. उन्‍होंने कहा - 'बुलाकी आप चिंता मत कीजिए. आपके पांव को कुछ नहीं होगा. आपका पांव दरभंगा का चप्‍पा चप्‍पा छानने के लिए ही बना है.' बुलाकी कुछ नहीं बोला. हम वहां से लौटे. लौटते में बुलाकी साव ने जब यह कविता मुझे सुनायी, मैं उसकी आंखों से गिरते हुए आंसुओं को ग़ौर से देख रहा था.

सधे हुए पांव थेज़मीन नहीं थीदिखती थी एक दिशातीन नहीं थी

घपला-घोटाला कचहरी में थाने मेंऔर हम ग़रीब हुए खाने-खिलाने मेंगुज़री उमर है पड़ोसी के ताने मेंउलट पुलट कौन करे अपने ज़माने में

मंज़र था लेकिन दूरबीन नहीं थी

सधे हुए पांव थेज़मीन नहीं थी

अपना ही दर्द भरा अपनी ही झोलीअपने ही पांवों से बिगड़ी रंगोलीउतरी इलेक्‍शन में गुंडों की टोलीधांय धांय चलती है यहां वहां गोली

गर्म थी हवाएं हसीन नहीं थी

सधे हुए पांव थेज़मीन नहीं थी




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