मंटो की पुण्यतिथि पर पढ़िए नंदिता दास द्वारा चुनी उनकी कहानियों के संग्रह 'मंटो : पन्द्रह कहानियां' का ये अंश!
कहानियों में अश्लीलता के आरोप की वजह से मंटो को छह बार अदालत जाना पड़ा था.
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18 जनवरी को मंटो की पुण्यतिथि होती है.
सुल्ताना और ख़ुदाबख़्श
देहली आने से पहले वह अम्बाला छावनी में थी, जहाँ कई गोरे उसके गाहक थे. उन गोरों से मिलने-जुलने के बायस वह अंग्रेज़ी के दस-पन्द्रह जुमले सीख गई थी. उनको वह आम गुफ़्तगू में इस्तेमाल नहीं करती थी लेकिन जब वह देहली में आई और उसका कारोबार न चला तो एक दिन उसने अपनी पड़ोसन तमंचाजान से कहा : ''दिस लैफ़, वैरी बैड...’’ यानी यह जि़न्दगी बहुत बुरी है जबकि खाने ही को कुछ नहीं मिलता. अम्बाला छावनी में उसका धन्धा बहुत अच्छी तरह चलता था. छावनी के गोरे शराब पीकर उसके पास आते थे और वह तीन-चार घंटों ही में आठ-दस गोरों को निबटाकर बीस-तीस रुपए पैदा कर लिया करती थी. ये गोरे उसके हमवतनों के मुक़ाबले में बहुत अच्छे थे. इसमें कोई शक नहीं कि वह ऐसी ज़बान बोलते थे, जिसका मतलब सुलताना की समझ में नहीं आता था मगर उनकी ज़बान से यह लाइल्मी उसके हक़ में बहुत अच्छी साबित होती थी. अगर वे उससे कुछ रिआयत चाहते तो वह सिर हिलाकर कह दिया करती थी : ''साहब, हमारी समझ में तुम्हारी बात नहीं आता.’’ और अगर वे उससे ज़रूरत से ज़्यादा छेड़छाड़ करते तो वह उनको अपनी ज़बान में गालियाँ देना शुरू कर देती थी. वह हैरत में उसके मुँह की तरफ़ देखते तो वह उनसे कहती :''साहब, तुम एकदम उल्लू का पट्ठा है, हरामज़ादा है...समझा!’’यह कहते वक़्त वह अपने लहज़े में सख्ती पैदा न करती बल्कि बड़े प्यार के साथ उनसे बातें करती—गोरे हँस देते और हँसते वक़्त वह सुलताना को बिलकुल उल्लू के पट्ठे दिखाई देते. मगर यहाँ दिल्ली में वह जब से आई थी, एक गोरा भी उसके यहाँ नहीं आया था. तीन महीने उसको हिन्दुस्तान के इस शहर में रहते हो गए थे, जहाँ उसने सुना था कि बड़े लाट साहब रहते हैं, जो गर्मियों में शिमले चले जाते हैं—उसके पास सिर्फ़ छह आदमी आए थे. सिर्फ़ छह, यानी महीने में दो और उन छह गाहकों से उसने, ख़ुदा झूठ न बुलवाए, साढ़े अट्ठारह रुपए वसूल किए थे। तीन रुपए से ज़्यादा पर कोई मानता ही नहीं था. सुलताना ने उनमें से पाँच आदमियों को अपना रेट दस रुपए बताया था मगर ताज्जुब की बात है कि उनमें से हर एक ने यही कहा था : ''भई, हम तीन रुपए से ज़्यादा एक कौड़ी नहीं देंगे...’’ जाने क्या बात थी कि उनमें से हर एक ने उसे सिर्फ़ तीन रुपए के क़ाबिल समझा, चुनांचे जब छठा आया तो उसने ख़ुद उससे कहा : ''देखा, मैं तीन रुपए एक टैम के लूँगी. इससे एक धेला तुम कम कहो तो न होगा. अब तुम्हारी मर्जी हो तो रहो वरना जाओ.’’ छठे आदमी ने यह बात सुनकर तकरार न की और उसके यहाँ ठहर गया. जब दूसरे कमरे में दरवाज़े-वरवाज़े बन्द करके वह अपना कोट उतारने लगा तो सुलताना ने कहा : ''लाइए एक रुपया दूध का.’’ उसने एक रुपया तो न दिया लेकिन नए बादशाह की चमकती हुई अठन्नी जेब में से निकालकर उसको दे दी और सुलताना ने भी चुपके से ले ली कि चलो जो आया है, ग़नीमत है. साढ़े अट्ठारह रुपए तीन महीनों में—बीस रुपए माहवार तो उस कोठे का किराया था, जिसको मालिक मकान अंग्रेज़ी ज़बान में फ़्लैट कहता था. उस फ़्लैट में ऐसा पाख़ाना था, जिसमें ज़ंजीर खींचने से सारी गन्दगी पानी के ज़ोर से एकदम नीचे नल में गायब हो जाती थी और बड़ा शोर होता था. शुरू-शुरू में तो उस शोर ने उसे बहुत डराया था. पहले दिन जब वह रफ़ए-हाजत के लिए उस पाख़ाने में गई तो उसकी कमर में शिद्दत का दर्द हो रहा था. फ़ारिग़ होकर जब वह उठने लगी तो उसने लटकी हुई ज़ंजीर का सहारा ले लिया। उस ज़ंजीर को देखकर उसने ख़याल किया, चूँकि यह मकान ख़ास हम लोगों की रिहाइश के लिए तैयार किए गए हैं, यह ज़ंजीर इसीलिए लगाई गई है कि उठते वक़्त तकलीफ़ न हो और सहारा मिल जाया करे. मगर ज्यों ही उसने ज़ंजीर को पकड़कर उठना चाहा, ऊपर खटखट-सी हुई और फिर पानी एकदम इस ज़ोर के साथ बाहर निकला कि डर के मारे उसके मुँह से चीख़ निकल गई. ख़ुदाबख़्श दूसरे कमरे में अपना फ़ोटोग्राफ़ी का सामान दुरुस्त कर रहा था और एक साफ़ बोतल में हाइड्रो कोनीन डाल रहा था कि उसने सुलताना की चीख़ सुनी. दौड़कर वह बाहर निकला और सुलताना से पूछा : ''क्या हुआ...? यह चीख़ तुम्हारी थी...?’’ सुलताना का दिल धड़क रहा था. उसने कहा :
''यह मुआ पैख़ाना है या क्या है? बीच में यह रेलगाड़ियों की तरह ज़ंजीर क्या लटका रखी है ? मेरी कमर में दर्द था, मैंने कहा, चलो इसका सहारा ले लूँगी, पर इस मुई ज़ंजीर का छेड़ना था कि वह धमाका हुआ कि मैं तुमसे क्या कहूँ...’’इस पर ख़ुदाबख़्श बहुत हँसा था और उसने सुलताना को इस पाख़ाने की बाबत सब कुछ बता दिया था कि यह नए फ़ैशन का है, जिसमें ज़ंजीर हिलाने से सब गन्दगी ज़मीन में धँस जाती है. ख़ुदाबख़्श और सुलताना का आपस में कैसे सम्बन्ध हुआ, यह एक लम्बी कहानी है. ख़ुदाबख़्श रावलपिंडी का था. इंटरेंस पास करने के बाद उसने लारी चलाना सीखी. चुनांचे चार बरस तक वह रावलपिंडी और कश्मीर के दरमियान लारी चलाने का काम करता था. उसके बाद कश्मीर में उसकी दोस्ती एक औरत से हो गई. उसको भगाकर वह साथ ले आया. लाहौर में चूँकि उसको कोई काम न मिला, इसलिए उसने औरत को पेशे पर बिठा दिया. दो-तीन बरस तक यह सिलसिला जारी रहा. फिर वह औरत किसी और के साथ भाग गई. ख़ुदाबख़्श को मालूम हुआ कि वह अम्बाला में है, वह उसकी तलाश में आया, जहाँ उसको सुलताना मिल गई. सुलताना ने उसको पसन्द किया. चुनांचे दोनों का सम्बन्ध हो गया. ख़ुदाबख़्श के आने से एकदम सुलताना का कारोबार चमक उठा. औरत चूँकि ज़ईफ़ुल-एतिक़ाद थी, इसलिए उसने समझा कि ख़ुदाबख़्श बड़ा भागवान है, जिसके आने से इतनी तरक्की हो गई है। चुनांचे उस ख़ुश-एतिक़ादी ने ख़ुदाबख़्श की वक़अत उसकी नज़रों में और भी बढ़ा दी. ख़ुदाबख़्श आदमी मेहनती था. सारा दिन हाथ पर हाथ धरकर बैठना पसन्द नहीं करता था. चुनांचे उसने एक फ़ोटोग्राफ़र से दोस्ती पैदा की, जो रेलवे स्टेशन के बाहर मिनट कैमरे से फ़ोटो खींचा करता था. उससे उसने फ़ोटो खींचना सीखा. फिर सुलताना से साठ रुपए लेकर कैमरा भी ख़रीद लिया. आहिस्ता-आहिस्ता एक परदा बनवाया, दो कुर्सियाँ ख़रीदीं और फ़ोटो धोने का सब सामान लेकर उसने अलहदा अपना काम शुरू कर दिया. काम चल निकला. चुनांचे उसने थोड़ी ही देर के बाद अपना अड्डा अम्बाले छावनी में क़ायम कर दिया. यहाँ वह गोरों के फ़ोटो खींचता. एक महीने के अन्दर-अन्दर उसकी छावनी के मुतादिद्दा गोरों से वाक़िफ़ियत हो गई. चुनांचे वह सुलताना को वहीं ले गया. यहाँ छावनी में ख़ुदाबख़्श के ज़रिए से कई गोरे सुलताना के मुस्तक़िल गाहक बन गए. सुलताना ने कानों के लिए बुंदे ख़रीदे, साढ़े पाँच तोले की आठ कंगनियाँ भी बनवाईं, दस-पन्द्रह अच्छी-अच्छी साड़ियाँ भी जमा कर लीं. घर में फ़र्नीचर वगैरह भी आ गया. क़िस्सामुख़्तसर यह कि अम्बाला छावनी में वह बड़ी ख़ुशहाल थी मगर एकाएकी जाने ख़ुदाबख़्श के दिल में क्या समाई कि उसने देहली जाने की ठान ली. सुलताना इनकार कैसे करती जबकि खुदाबख़्श को अपने लिए बहुत मुबारक ख़याल करती थी. उसने ख़ुशी-ख़ुशी देहली जाना क़बूल कर लिया. बल्कि उसने यह भी सोचा कि इतने बड़े शहर में जहाँ लाट साहब रहते हैं, उसका धन्धा और भी अच्छा चलेगा. अपनी सहेलियों से वह देहली की तारीफ़ सुन चुकी थी. फिर वहाँ हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की ख़ानक़ाह भी थी जिससे उसे बेहद अक़ीदत थी. चुनांचे जल्दी-जल्दी घर का भारी सामान बेच-बचाकर वह खुदाबख़्श के साथ देहली आ गई. यहाँ पहुँचकर ख़ुदाबख़्श ने बीस रुपए माहवार पर यह फ़्लैट लिया, जिसमें दोनों रहने लगे.