गांजा बेचना जुर्म है तो भांग बेचना लीगल क्यों? दोनों एक ही पौधे से बनते हैं
Bhang सरकारी दुकानों पर बेची जाती है. इन दुकानों के ठेके होते हैं, टेंडर होते हैं, पक्का लाइसेंस होता है. लेकिन क्या आपको पता है कि भांग, चरस और गांजा एक ही पौधे से बनते हैं. और फिर भी सरकार केवल भांग की दुकानें ही खोलती है. जबकि गांजा और चरस बेचना बड़ा जुर्म है. सवाल कौंधा होगा भाई ऐसा क्यों?
हिमाचल प्रदेश (Himachal Pradesh) सरकार भांग की खेती को लीगल करने जा रही है. राज्य सरकार का दावा है कि औषधीय उपयोग के लिए इसे लीगल किया जा सकता है. इसके लिए सरकार की तरफ से बिल तैयार किया गया है. राज्य सरकार के मंत्री विक्रमादित्य सिंह का कहना है कि इससे अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में मदद मिलेगी. हिमाचल सहित भारत के कुछ ऐसे राज्य हैं जहां भांग की खेती गैरकानूनी है. देश में इसे सरकारी दुकानों पर बेची जाती है. इन दुकानों के ठेके होते हैं, टेंडर होते हैं, पक्का लाइसेंस होता है. लेकिन क्या आपको पता है कि भांग, चरस और गांजा एक ही पौधे से बनते हैं. और फिर भी सरकार केवल भांग की दुकानें ही खोलती है. जबकि गांजा और चरस बेचना बड़ा जुर्म है. सवाल कौंधा होगा भाई ऐसा क्यों? आज हम आपको यही बताएंगे.
बिलकुल शुरू से शुरुआत करते हैं. यानी वहां से जहां से भांग, गांजा और चरस की उत्पत्ति होती है. ये सभी ‘कैनेबिस’ पौधे के अलग-अलग हिस्सों से बनाए जाते हैं. किस हिस्से से क्या बनता है, ये जानना सबसे ज्यादा जरूरी है. क्योंकि कानून की तलवार चलने की वजह यही है.
#'चरस' कैनेबिस पौधे के रेज़िन से बनता है. रेज़िन गोंद टाइप का द्रव्य होता है जो पेड़ की डालियों पर लटकता है.
#'गांजा' इसी पौधे के फूल को सुखा के उसे खूब दबा के तैयार किया जाता है.
#'भांग' को कैनेबिस के बीज और पत्तियों को पीस-पीस कर तैयार किया जाता है.
ऐसा नहीं है कि भारत में शुरू से ही सब गैरकानूनी था. एक समय भांग के साथ गांजे का भी भारत में खुलेआम इस्तेमाल होता था. लेकिन, भारत की आजादी के एक दशक बाद दुनियाभर में कैनेबिस पर प्रतिबंध की मांग उठने लगी. इसे लेकर 1961 में अमेरिका के मैनहट्टन में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन हुआ. नाम था - सिंगल कन्वेंशन ऑन नार्कोटिक ड्रग्स, 1961. इस सम्मलेन में कैनेबिस को 'हार्ड ड्रग्स' की श्रेणी में डाल दिया गया. और सभी राष्ट्रों से इस पर शिकंजा कसने की अपील की गई. भारत ने कैनेबिस से जुड़ी सामाजिक और धार्मिक प्रथाओं का हवाला देते हुए इस अपील का विरोध किया.
सम्मेलन में भारत के प्रतिनिधियों का कहना था कि इसे भारतीय समाज पर एकदम से नहीं थोपा जा सकता. भारत ने जिस समझौते पर साइन किया, उसके मुख्य बिंदु ये थे:-
#भांग को कैनेबिस की परिभाषा से बाहर रखा गया. और इसीलिए भांग हार्ड ड्रग्स की श्रेणी से भी बाहर रहेगा.
#भारत ने कैनेबिस के एक्सपोर्ट को सीमित करने का वादा किया.
#भारत को इन ड्रग्स (भांग, गांजा और चरस) पर शिकंजा कसने के लिए 25 साल की मोहलत मिली.
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फिर आया साल 1986. और तब मैनहट्टन के अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन को हुए 25 साल पूरे हो गए. यानी भारत को मिली मोहलत खत्म हो चुकी थी. लेकिन, इससे एक साल पहले 1985 में भारत सरकार ने एक एक्ट पास किया - 'नार्कोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रॉपिक सबस्टेन्सेस एक्ट' या NDPS एक्ट. NDPS ने कैनेबिस की अमेरिका में हुए कन्वेंशन में तय गई परिभाषा को वैसे ही उठा लिया. और फिर ये चीजें बैन हो गईं:-
#कैनेबिस के रेसिन से तैयार होने वाली चरस.
#कैनेबिस के फूल से तैयार होने वाला गांजा.
#इन दोनों का कोई भी और मिक्सचर अगर बनेगा, तो वो भी बैन होगा.
यानी कैनेबिस के पौधे के फल, फूल और रेसिन के इस्तेमाल को एक क्राइम माना गया. इससे गांजा और चरस को हार्ड ड्रग माना जाने लगा. और ये दोनों पिक्चर से बाहर हो गए. जबकि कैनेबिस की पत्तियों और बीज को कानून के दायरे में नहीं लाया गया और इसलिए आज भी भांग का बिकना और बनना जारी है.
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