The Lallantop
Advertisement
  • Home
  • Lallankhas
  • Arun Khetarpal, the youngest recipient of Param Vir Chakra, is remembered for his bravery during the 1971 Indo-Pak War.

जलते टैंक में बैठा रहा लेकिन पाकिस्तान को आगे बढ़ने नहीं दिया!

सेकेण्ड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में अद्भुत पराक्रम दिखाते हुए 16 दिसंबर, 1971 को वीरगति को प्राप्त हुए. उनके शौर्य तथा बलिदान को देखते हुए उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया.

Advertisement
Arun Khetrapal
लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल को 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में उनके अद्भुत पराक्रम के लिए मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया (तस्वीर-wikimedia commons)
pic
कमल
14 अक्तूबर 2022 (Updated: 14 अक्तूबर 2022, 09:51 AM IST)
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share
’मैंने ही आपके बेटे को मारा था’

ब्रिगेडियर खेत्रपाल(M. L. Khetarpal)अपनी जिंदगी में कई जंग लड़ चुके थे. 1965 में जिस पाकिस्तान ने उन्होंने दो-दो हाथ किए थे, उसी का एक फौजी आज उनके सामने खड़ा था. लेकिन दुश्मन की तरह नहीं, बल्कि मेजबान की तरह. जिंदगी की संध्या होने को थी. 81 साल के ब्रिगेडियर एक आख़िरी बार अपनी जन्मभूमि को देखना चाहते थे. सरगोधा जो बंटवारे के बाद पाकिस्तान के हिस्से चला गया था. यहां 3 दिन रहने के दौरान उनकी खूब मेजबानी हुई. पाकिस्तानी फौज के ब्रिगेडियर नासेर उनसे मिलने आए. उन्हें अपने घर खाने का न्योता दिया. खाने के बाद दोनों लॉन में टहलने लगे. ब्रिगेडियर खेत्रपाल ने देखा कि नासेर कुछ कहना चाह रहे हैं लेकिन कह नहीं पा रहे. उन्होंने नासेर से कहा, आप बेहिचक बताइए आपको जो कुछ भी कहना है. नासेर ने उन्हें जो बताया उससे अचानक उन्हें 30 साल पुरानी एक सुबह याद आ गई. एक खत आया था उस रोज़. जिसे उनकी पत्नी मिसेज़ खेत्रपाल ने रिसीव किया था. उस खत में लिखा था कि उनका 21 साल का बेटा युद्धभूमि में मारा गया है.

यहां पढ़ें-1991 उदारीकरण: जब सब्जी काटने वाले चाकू से हुआ दिल का ऑपरेशन!

कैसे मरा? किसने मारा? युद्ध में ये सब दर्ज़ नहीं होता. दर्ज़ होती है सिर्फ जीत और हार. 1971 की लड़ाई में उनके बेटे की बदौतल भारत(India) जीत गया था, पाकिस्तान की हार हुई थी. और अब 30 साल बाद उस हारी हुई फौज का एक ब्रगेडियर बता रहा था कि उनके बेटे की हत्या उसके हाथों हुई थी. बेटा जिसे ब्रिगेडियर खेत्रपाल अरुण कहकर बुलाते थे. लेकिन बाकी देश के लिए वो परमवीरचक्र विजेता(Param Vir Chakra), सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल थे.

1967 में NDA जॉइन किया

अरुण खेत्रपाल(Arun Khetrapal) का जन्म 14 अक्टूबर 1950 को पुणे में हुआ था. वे एक फौजी परिवार से आते थे. उनके बाप दादाओं ने विश्व युद्ध में भाग लिया था. और इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए अरुण ने 1967 में NDA जॉइन किया. 4 साल बाद वो 17 पूना हॉर्स में कमीशन हो गए. ये जून 1971 की बात है. रेजिमेंट जॉइन करने के कुछ ही दिनों बाद अरुण अहमदनगर में यंग ऑफिसर्स ट्रेनिंग कोर्स के लिए चले गए. ट्रेनिंग चल ही रही थी कि इसी बीच 3 दिसंबर को युद्ध की घोषणा हो गई(Indo-Pak war of 1971). अरुण को अपनी यूनिट जॉइन करने का बुलावा आया. उन्हें जम्मू जाना था. इसलिए उन्होंने पहले दिल्ली की ट्रेन पकड़ी और यहां पंजाब मेल का इंतज़ार करने लगे. अरुण के पास एक जावा मोटरसाइकिल हुआ करती थी, जिसे उनके पिता ने तोहफे में दिया था. और वो उसे अपने साथ ही लेकर चलते थे. उस दिन पंजाब मेल आने में कुछ वक्त था, इसलिए अरुण ने अपनी मोटरसाइकिल निकाली और घर पहुंच गए.

Arun Khetrapal
लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल अपने भाई और मां के साथ(तस्वीर-Gallantry Awards Of India)

इस किस्से का जिक्र रचना बिष्ट रावत ने अपनी किताब, 1971: चार्ज ऑफ द गोरखा एंड अदर स्टोरीज़ में किया है. रचना लिखती हैं कि उस रोज़ घर पर अरुण के भाई, मां और पिता इंतज़ार कर रहे थे. अरुण के भाई मुकेश तब IIT दिल्ली(IIT Delhi) में पढ़ाई कर रहे थे. उन्होंने देखा कि अरुण ने सामान के साथ कुछ गोल्फ की छड़ियां भी पैक कर रखी थी. मुकेश ने इस बारे में पूछा तो अरुण ने जवाब दिया कि वो लाहौर में गोल्फ खेलने का प्लान बना रहे हैं. साथ ही उनकी नीली वर्दी भी रखी हुई थी, जिसे अरुण जीत के बाद दी जाने वाली डिनर पार्टी में पहनने वाले थे. उस रोज़ डिनर की मेज़ जल्दी लग गई. क्योंकि अरुण को ट्रेन पकड़नी थी. जंग की बात चली तो अरुण की माताजी ने कहा, 

“शेर की तरह लड़ना अरुण, कायरों की तरह वापिस मत आ जाना”

लेफ्टिनेंट अरुण लड़े. और शेरों की ही तरह लड़े. उनकी रेजिमेंट 17 पूना हॉर्स(17 Poona Horse) को इंडियन आर्मी(Indian Army) की 47th इन्फैंट्री ब्रिगेड के कमांड दी गयी थी. जिसे जम्मू पंजाब के शकरगढ़ सेक्टर में तैनात किया गया था. ये सैक्टर दोनों देशों के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण था. क्योंकि यहां से जाने वाली रोड जम्मू को पंजाब से जोड़ती थी. इस रोड के बीच से बहने वाले नदी बसंतर के पुल पर अगर पाकिस्तान का कब्ज़ा हो जाता तो वो जम्मू को पंजाब से तोड़ सकता था. 15 दिसंबर, रात नौ बजे थे, जब 47th इन्फैंट्री ब्रिगेड ने इस इलाके को अपने कब्ज़े में ले लिया था. लेकिन इस बावजूद स्थिति बड़ी नाजुक थी. क्योंकि पाकिस्तान ने वहां माइंस बिछाई हुई थीं. जिसके चलते 17 पूना हॉर्स के टैंक्स आगे नहीं बढ़ सकते थे. इन माइंस को हटाने की जिम्मेदारी इंजीनियर कोर की थी. जो अभी आधी ही माइंस हटा पाई थी जब पता चला कि पाकिस्तान अपने टैंक्स लेकर आगे बढ़ रहा था. ऐसे में 17 पूना हॉर्स ने तय किया कि माइंस के बीच ही टैंक उतारने होंगे.

यहां पढ़ें-जब भारत में मच्छर से कटवाने का आठ आना मिलता था!

सर मैं टैंक नहीं छोडूंगा!

अगली सुबह 8 बजे पाकिस्तान(Pakistan) के 13 लांसर्स ने अटैक किया. 13 लांसर्स के पास अमेरिकी मेड 50 टन के पैटन टैंक थे. वहीं दूसरी तरफ 17 पूना हॉर्स के पास वर्ल्ड वॉर के जमाने के ब्रिटिश मेड सेंचुरियन टैंक थे.17 पूना हॉर्स की A और B दो स्वाड्रन थीं. लांसर्स ने B स्क्वाड्रन पर हमला किया तो उन्होंने A स्क्वाड्रन से मदद की गुहार की. A स्क्वाड्रन के टैंक मदद के लिए आगे बढ़े. इनमें से एक पर अरुण खेत्रपाल सवार थे. कई घंटे चली भीषण लड़ाई में B स्क्वाड्रन ने पाकिस्तान के 7 टैंक उड़ा दिए. अरुण खेत्रपाल के टैंक पर भी एक गोला लगा. जिससे उनके टैंक में आग लग गई . उनके सीनियर ने उन्हें टैंक छोड़ने का आदेश दिया. लेकिन अरुण तैयार नहीं हुए. उन्होंने रेडियो से सन्देश भेजा, 
"No, Sir, I will not abandon my tank. My main gun is still working and I will get these bastards. यानी,

“सर मैं टैंक नहीं छोडूंगा. मेरी मेन बन्दूक अभी भी काम कर रही है” 

Arun Khetrapal NDA
लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल अपने NDA के दिनों के दौरान(तस्वीर-bioconblog.com)

अरुण खेत्रपाल का ये आख़िरी मेसेज था. इसके बाद उनका रेडियो बंद हो गया. जलते हुए टैंक से ही उन्होंने पाकिस्तान के चार टैंक उड़ाए और वहीं डटे रहे. उनके सामने अब सिर्फ एक पाकिस्तानी टैंक बचा था. जिस पर सवार थे लेफ्टिनेंट नासेर. दोनों टैंकों की बीच कुछ 200 मीटर की दूरी थी. दोनों टैंकों ने बिना देरी किए एक साथ, एक दूसरे की ओर फायर कर दिया.

ये सब 16 दिसंबर को हो रहा था. युद्ध का आख़िरी दिन. इसी समय वहां से कई मील दूर दिल्ली में अरुण के पिता और भाई एक इम्पोर्टेड हिताची ट्रांजिस्टर पर कान लगाकर युद्ध की ख़बरें सुन रहे थे. रेडियो सीलोन शकरगढ़ में चल रही टैंक बैटल का ब्यौरा बता रहा था. जैसे ही खेत्रपाल फैमली ने शकरगढ़ का नाम सुना, उनका दिल बैठ गया. उन्हें पता था कि अरुण भी इसी सेक्टर में तैनात था. सबको किसी अनहोनी का डर सता रहा था. लेकिन किसी ने कुछ कहा नहीं.  अगली सुबह रेडियो पर एक और खबर आई. इंदिरा गांधी(Indira Gandhi) ने युद्धविराम की घोषणा कर दी थी. खेत्रपाल परिवार ने राहत की सांस ली. सब अरुण के घर आने की तैयारी में लग गए. तीन दिन बाद, 19 दिसंबर की सुबह दरवाजे की घंटी बजी. पोस्टमैन के हाथों एक खत आया था. जिस पर लिखा था, 
‘गहरे खेद के साथ आपको सूचित किया जाता था कि आपके पुत्र, IC 25067, सेकेंड लेफ़्टिनेंट खेत्रपाल, 16 दिसंबर को युद्धक्षेत्र में लड़ते हुए मारे गए, कृपया हमारी संवेदनाएं स्वीकार करें’. इस जंग में वीरता दिखाने के लिए सेकेण्ड लेफ़न्टिनेट अरुण खेत्रपाल को परम वीर चक्र से नवाजा गया.

Indo-Pak War 1971
1971 भारत-पाक युद्ध में पाकिस्तान को बड़ी हार का सामना करना पड़ा(तस्वीर-AFP)
युद्ध में चट्टान की तरह डटे रहे

कई साल बाद, साल 2001 में जब ब्रिगेडियर खेत्रपाल पाकिस्तान गए तो वहां उनकी मुलाक़ात ब्रिगेडियर नासेर से हुई. तब नासेर ने उन्हें अपने नजरिए से बताया कि उस रोज़ क्या हुआ था. ब्रिगेडियर नासेर ने बताया कि उस रोज़ अरुण चट्टान की तरह पाकिस्तानी टैंक के आगे खड़े हो गए थे. आख़िरी लड़ाई उनके और नासेर के बीच हुई थी. नासेर और अरुण दोनों ने एक दूसरे पर गोली चलाई. गोली दोनों टैंकों को लगी लेकिन नासेर ठीक समय पर टैंक से कूद गए. वहीं अरुण टैंक में फंसे रह गए. उनके पेट में गहरा घाव हुआ था. जिसके कारण उनकी वहीं मृत्यु हो गयी. 
नासेर ने कहा,

“आपका बेटा बड़ा बहादुर था. हमारी हार के लिए वो अकेले जिम्मेदार थे.”

जब नासेर ने ये कहानी सुनाई तो ब्रिगेडियर खेत्रपाल ने उनसे पूछा, आपको कैसे पता, टैंक में अरुण था?

M.L. Khetarpal & Pakistani Brigadier Khwaja Mohammad Naser
अरुण के पिता ब्रिगेडियर एम.एल.खेत्रपाल और पाकिस्तानी फौज के ब्रिगेडियर मुहम्मद नासेर(तस्वीर-Timesofindia)

नासेर ने बताया कि युद्ध विराम के बाद वो अपने जवानों के मृत शरीर लेने वहां गए थे. तब उन्होंने देखा कि भारतीय सैनिक उस टैंक के पुर्जे इकठ्ठा कर रहे हैं, जिससे एकदिन पहले ही उनकी मुठभेड़ हुई थी. नासेर उत्सुक थे, ये जानने के लिए कि इतनी बहादुरी से लड़ने वाला वो आदमी था कौन. उन्होंने भारतीय सैनिकों से पूछा, तो पता चला कि वो सेकेण्ड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल का टैंक था. 
नासेर ने उनसे कहा,


“बड़ी बहादुरी से लड़े आपके साहब. चोट तो नहीं आई उन्हें?”

तब नासेर को एक सैनिक ने बताया, “साहब शहीद हो गए”. नासेर को बाद में खबरों से पता चला था कि अरुण खेत्रपाल की उम्र तब सिर्फ 21 साल थी. ये पूरी कहानी सुनाने के बाद ब्रिगेडियर नासेर का सर नीचे झुक गया. ब्रिगेडियर खेत्रपाल से नजरें छुपाकर वो लॉन की घास को देखने लगे. ब्रिगेडियर खेत्रपाल भी कुछ देर अपनी जगह पर बैठे रहे. दोनों ने एक दूसरे से कुछ न कहा. अंतहीन से लग रह रहा एक मिनट बड़ी मुश्किल से बीता. ब्रिगेडियर खेत्रपाल खड़े हुए. उन्होंने नासेर की तरफ देखा. और इससे पहले कि उनकी आंखों से आंसू टपकता, नासेर को खींचकर अपने गले से लगा लिया. अगली सुबह उन्हें भारत लौटना था. 

वीडियो देखें-कहानी बंगाल के इतिहास के सबसे विवादित केस की

Advertisement