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हिंदी के कुछ फाइव-स्टार कवि बोले,'नीरज-वीरज पर हमें कुछ नहीं बोलना'

कवि नीरज के समर्थन पर रामविलास शर्मा का मजाक उड़ाया जाता था!

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19 जनवरी 2020 (Updated: 18 जुलाई 2020, 04:55 AM IST) कॉमेंट्स
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डॉ. अमरेंद्र नाथ त्रिपाठी डॉ. अमरेंद्र नाथ त्रिपाठी


डॉ. अमरेंद्र नाथ त्रिपाठी. शिक्षक और अध्येता. लोक में खास दिलचस्पी. लल्लनटॉप के लिए एक ख़ास सीरीज़ 'देहातनामा' लिखते आए हैं. आज गोपालदास नीरज (4 जनवरी, 1925 - 19 जुलाई, 2018) के बारे में बता रहे हैं. पढ़िए -




नीरज का होना हिंदी गीतों के प्रेमी समाज में एक लोकप्रिय गीतकार का होना था. यह होना अपने आपमें भरपूर है. वहीं हिंदी की साहित्यिक दुनिया में उनका न होना भी उतना ही बड़ा सच है. यह एक व्यक्ति से अधिक पूरे हिंदी साहित्यिक जगत की विडंबना है.
इस विडंबना की शुरुआत कब हुई? कवि नीरज की बात मानें तो आजादी के बाद जब हिंदी साहित्य में नई कविता का दौर शुरू हुआ तो हिंदी की साहित्यिक कविता अलोकप्रिय होने लगी. इसका कारण यह था कि हिंदी में नए कवियों ने ऐसे ‘नए बिंब’ यानी कविता में नए चित्र लाने शुरू किये, जिसके लिए हिंदी समाज तैयार नहीं था. जो रचनाकार हिंदी समाज को समझ आने वाले भाव-चित्र कविता में रखते. उन्हें हिंदी साहित्य और साहित्यकार बेकार समझने लगे थे. इससे हिंदी साहित्य संस्थाओं में बचा, लेकिन समाज से बहुत दूर हो गया.

हिंदी कविता को लेकर कवि नीरज का आकलन अनुचित नहीं था. ऐसी दशा में स्वाभाविक था कि संस्थाओं वाले हिंदी साहित्य के दरवाजे कवि नीरज के लिए बंद रहे. बेशक उन्हें हिंदी समाज का प्यार मिला. फिल्म-फेयर अवार्ड्स मिले. पद्म सम्मान मिले. पर साहित्य अकादमी आदि संस्थाओं वाले हिंदी-तंत्र की तरफ से उन्हें सिर्फ़ उपेक्षा मिली.
एक वक्त था जब हिंदी साहित्य का मूल्यांकन करने वाले लोकप्रिय धारा के लेखकों का जिक्र उनके ‘श्रेय’ के साथ करते थे. हिंदी के बड़े आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल ‘चंद्रकांता’ लिखने वाले देवकीनंदन खत्री को यह श्रेय देने से नहीं चूकते कि उनके कारण हिंदी समाज के बहुत से लोगों ने हिंदी पढ़ना और लिखना सीखा. यह सीमा बाद के हिंदी आलोचकों में अधिक दिखाई दी कि वे लोकप्रिय रचनाकार के मूल्यांकन को कुफ्र समझने लगे.
लगभग दो साल पहले मुझे एक ‘आइडिया’ सूझा. मैंने सोचा कि लोकप्रिय रचनाकारों पर हिंदी साहित्यकारों के विचार जानूं कि वे क्या सोचते हैं! इत्तेफाकन, कुछ समय बाद एक किताब के सिलसिले में ऐसे ही कुछ विचार जानने के लिए एक पुस्तक-लेखक ने मुझसे संपर्क किया. लोकप्रिय रचनकार के रूप में गोपालदास नीरज का चुनाव हुआ. उनसे बेहतर कौन होता! विचार जानने के लिए कुछ आलोचकों से संपर्क किया तो उनकी कलम परशुराम के फरसे की तरह तनी दिखी.

नीरज की कविता पर विचार जानने के लिए बेहतर प्रतीत हुआ कि कुछ हिंदी के प्रतिष्ठित कवियों से बात करूं. यह सोचकर कि कवि हैं तो अपेक्षया अधिक नरमदिल होंगे. इसके लिए हिंदी के कुछ ‘फाइव स्टार’ कवियों से संपर्क किया तो वे बोले कि नीरज-वीरज पर वे कुछ नहीं बोलना चाहते. तथाकथित बड़े कवियों के हास्य-मिश्रित-झिड़क के कई घड़े मुझ पर फूटे.
बड़ी कोशिश के बाद तीन-चार कवि मिल पाए कि वे नीरज पर कुछ कहें. कवि इब्बार रब्बी के प्रति उस दिन मेरे अंदर बड़ा सम्मान पैदा हुआ जब वे बच्चों की तरह उत्सुकता के साथ अपने अतीत में जाकर कवि नीरज पर बड़ी रोचक बातें करने लगे. बेझिझक और ईमानदार होकर. उनके अतिरिक्त रामकुमार कृषक और दिविक रमेश ने भी नीरज पर अपनी बातें रखीं. अपने प्रस्तावना-कथन को समाप्त करते हुए इन तीनों कवियों के विचार यहां पेश कर रहा हूं:


# इब्बार रब्बी:

नीरज जी मेरे गुरु हैं, उन्होंने मुझे पढ़ाया है बी.ए. और एम.ए. में चार साल. उस समय कहिए जैसे हम उनके जादू में बंधे हुए थे. वही हमारे आदर्श थे. हमारी पूरी मित्र-मंडली नीरज जी की भक्त थी. कोई उनकी बुराई करता तो हम लड़ने लगते. उसी समय वे बंबई गए. उनकी पहली फिल्म थी, ‘नई उमर की नई फसल’. यह नाम भी नीरज जी के गीत से है. उसकी शूटिंग ए.एम.यू. में हुई थी. उसमें उनका यह गीत था, ‘कारवां गुज़र गया..’. जब वे बंबई से लौट कर आए, तब हम लोग एम.ए. में थे. १०-१५ लड़के-लड़कियां थे हम. सबको कैंटीन में उन्होंने मिठाई खिलाई, दावत दी. मुझे तो उनके सारे गीत उस समय रटे हुए थे, जैसे भक्त होते हैं वैसी ही हमारी स्थिति थी. वही आदर्श थे. मैं भी उन्हीं की नकल पर गीत-वीत लिखता था तब.
एम.ए. कर लिया तो दिल्ली आया. यहां नीरज वगैरह कोई नहीं था. यहां अज्ञेय थे, भारतभूषण अग्रवाल थे, प्रभाकर माचवे थे, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना थे. यहां नीरज को पूछने वाला कौन था! गीतकार भी थे, जैसे बालस्वरूप राही, रामावतार त्यागी. उनकी कोई पूछ नहीं थी, साहित्य में. नीरज का कहीं नाम लेता था तो ऐसे देखते थे जैसे यह कोई अनपढ़, गंवार, मूर्ख है! धीरे-धीरे मैं उसी रंग में रंग गया लेकिन मुझ पर से उनका असर बहुत मुश्किल से हटा. नई कविता के प्रभाव में उस समय गीत लिखने वालों को जैसे मूर्ख समझा जाता था.

‘नीरज की कविता में तुम’ नाम से मैंने एक लेख भी लिखा था. उनकी कविता में जहां जहां ‘तुम’ शब्द आया था उसका क्या अर्थ है, उसे दिखाते हुए. यह लेख उस समय हिंदी की एक पत्रिका ‘कादंबिनी’ में छपा था. रामानंद जोशी थे, उन्होंने फट से छाप दिया. और कोई छापता नहीं. उस जमाने में नीरज के दीवाने लाखों थे लेकिन शिष्ट समाज में उनका ज़िक्र कभी नहीं होता था. उनके बारे में कुछ नहीं छपता था. रामविलास शर्मा उनका समर्थन करते थे. अज्ञेय के और नई कविता से विरोध के चलते. वे तारसप्तक में छंदोबद्ध कविता के समर्थक हैं. लोगों ने रामविलास शर्मा का मजाक उड़ाया. गंभीर बात यह है कि मंच की बात से हट कर उनकी कविता पर किसी ने काम नहीं किया.
यह बायस्ड हो सकता है क्योंकि मैं उनको बहुत पसंद करता रहा हूं, सब्जेक्टिव हो सकता है; कि आज भी अनेक मौके पर उनकी कोई न कोई पंक्ति याद आ जाती है. अब मुक्तिबोध-नागार्जुन-शमशेर जैसे कवियों को पसंद करते हुए भी कहीं अवचेतन में नीरज रहते हैं. वे मेरे गुरू भी थे.


# रामकुमार कृषक:

कवि नीरज को नीरज जी की तरह याद करना मेरे लिए नितांत कठिन है. यों उन्हें हिंदी कविता में छायावादोत्तर दौर का हिंदी कवि जाना जाता है. ख़ास तौर से अपनी गीत धर्मिता के लिए. कुछ दिनों तक उन्हें बच्चन, दिनकर और नेपाली के समकक्ष देखा जाता रहा. बल्कि बच्चन, नेपाली और दिनकर काफी दूर तक हिंदी गीत की त्रयी बनाते हैं. क्योंकि दिनकर शीघ्र ही प्रबंधात्मक काव्यधारा में उतर गए थे.

एक दौर वह भी था जब नीरज प्रगतिशील आंदोलन से प्रभावित हो कर ‘नील की बेटी’ जैसी लंबी कविताएं लिख रहे थे. लेकिन उस राह पर उनकी गीतात्मकता बहुत आगे नहीं जा सकी और उदात्त आत्माभिव्यक्ति होते हुए भी उनका गीत अपने समय, समाज और हिंदी कविता की समग्र सांस्कृतिक चेतना का सम्यक निर्वहन नहीं कर सका.
बेशक इसके पीछे छंदमुक्त कविता से बंधे आलोचकों की अभिजनवादी बौद्धिकता का दबाव और पूर्वग्रह भी रहे. इसकी शिकार नीरज की कविता ही नहीं बल्कि हिंदी की तमाम छंदोबद्ध कविता रही. फिर भी, अपनी लोकप्रियता के बावजूद उनकी कविता व्यक्ति-चेतना को जन-चेतना से नहीं जोड़ पाती. यही कारण है कि नीरज आज भी उस काव्यमंच के सिरमौर कवि हैं जिसने जनता की काव्याभिरुचि और ग्रहणशीलता को कुंद किया है. मेरे विचार से नीरज जैसा लोकप्रिय और समृद्ध गीत परंपरा से जुड़ा कवि हिंदी काव्यमंच की गरिमा को बचाए रख सकता था पर बाज़ार के व्यामोह ने उन्हें ऐसा नहीं करने दिया.
दरअसल उनके तमाम काव्य-मूल्यों के बावजूद जिसमें कुछ कबीराना ठाठ भी है, नीरज की काव्य-साधना और उनके कवि-व्यक्तित्व को मैं इसी तरह देख पा रहा हूं.


# दिविक रमेश:

स्वस्थ मंच की कविता के प्रतीक हैं नीरज. उन्होंने मंच के साथ भी समझौता नहीं किया. प्रायः गीतकारों पर यह आरोप लगता है कि वे अपने हावभाव, गलेबाजी से या और तरह से अपने गीत को लोगों में लोकप्रिय बना लेते हैं लेकिन इन चीज़ों से नीरज बहुत दूर तक बचे हैं. वस्तु और प्रस्तुति दोनों की दृष्टि से उन्होंने प्रौढ़ रचनाएं दी हैं. उनका अपने गीतों को पढ़ने का खास अंदाज है जिसे सुनकर मैं बहुत ही प्रभावित हुआ था. आज भी सुनता हूं तो अच्छा लगता है. ‘कारवां गुज़र गया..’ उनका यह गीत तो भूले नहीं भूलता. यह अमर होने वाले गीतों की श्रेणी का है. ‘छायावाद’ के बाद का यह गीत जमीनी भावनाओं के क़रीब जा कर लिखा गया है. उनके मंच के ही नहीं छपे हुए गीत भी प्रभावित करते हैं.

एक बात अच्छी लगी मुझे नीरज की कि इन्होंने फिल्मों के लिए प्रायः समझौता नहीं किया. फिल्म वालों ने समझौता किया होगा तो किया होगा. नीरज ने नहीं किया. वे हमें वैसे भी प्रभावी और आत्म-सम्मानी लगते हैं. मैं मंच पर जाता नहीं लेकिन एक बार ‘इंडियन ऑयल’ वालों ने मावलंकर हाल में एक समारोह का आयोजन किया था जिसमें संयोग से मंच पर मैं भी था. नीरज जी भी थे. मैं नया था. मैं पढ़ कर सुनाने वालों में से था. मुझे अच्छा लगा कि उन्होंने मेरा, नए लड़के का, संग्रह लिया और काफ़ी देर तक देखते रहे. शुभकामनाएँ दीं कि लिखते रहो. तो वे स्वाभिमानी हैं लेकिन अहंकारी नहीं हैं. अगली पीढ़ी के रचनाकार के प्रति भी वे आत्मीय भाव रखते हैं.
नीरज अपने ढंग के कवि हैं. गीत परंपरा में बड़े सशक्त. उनकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती. मेरे प्रिय गीतकारों की बात मुझसे पूछी जाय तो उसमें गिने-चुने गीतकार हैं. जिसमें नीरज आते हैं. सोम ठाकुर आते हैं. फिर कुँअर बेचैन. तीनों मेरे प्रिय गीतकार हैं.


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