The Lallantop
Advertisement
  • Home
  • Lallankhas
  • Anecdotes from Nawazuddin Siddiqui's life which you may not know

जब नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी को मनोज बाजपेयी के लिए स्टेज पर पेड़ बनना पड़ा

पढ़िए नवाज़ की लाइफ के ऐसे किस्से, जो बहुत कम लोग जानते हैं.

Advertisement
Img The Lallantop
इन किस्सों ने नवाज़ को वो बनाया जो वे आज हैं. फोटो - फाइल
pic
यमन
30 दिसंबर 2020 (Updated: 30 दिसंबर 2020, 12:15 PM IST) कॉमेंट्स
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share
नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी. ऐसा नाम जो आज कॉन्टेंट ड्रिवन सिनेमा का चेहरा बन चुका है. पलक झपकते ही गायब हों जाने वाले रोलस् से फिल्मी करियर शुरू किया. पर आज देखो तो पूरा 70 एमएम का पर्दा घेर ले रहे हैं. ज़ाहिर है यहां तक का सफ़र आसान भी नहीं होगा. अपनी इस जर्नी पर वे कई बार बात कर चुके हैं. पर इस बार अपने पुराने दिनों के वो किस्से साझा किए, जो शायद ज़्यादातर पब्लिक नहीं जानती. दरअसल, हाल ही में इंडिया टूडे मैगजीन के 45 साल पूरे हुए. इस मौके पर 45 प्रभावशाली भारतीयों का इंटरव्यू लिया गया. उन्हीं में से एक फ़ैज़ल बाबू भी थे. आज वही किस्से हम आपके साथ शेयर कर रहे हैं.
पंकज कपूर की फिल्म ने लाइफ बदल दी
उत्तर प्रदेश का जिला मुज़फ्फरनगर. इसी जिले का एक छोटा सा गांव है बुढ़ाना. यहीं रहते थे नवाज़. परिवार समेत. शुरू से ही अपवाद थे. इनके बाकी दोस्त संडे का इंतज़ार करते थे, ताकि दूरदर्शन पर कोई फिल्म देख सकें. वहीं, नवाज़ का इंतज़ार एक दिन पहले ही खत्म हो लेता था. दरअसल, शनिवार को दूरदर्शन पर आर्ट फिल्म्स आती थीं. ऐसी फिल्में, जो आपको असहज कर दें. सोचने पर मजबूर कर दें. ऐसी ही एक फिल्म देखी, ‘एक डॉक्टर की मौत’. लीड में थे पंकज कपूर और शबाना आज़मी. फिल्म में पंकज कपूर ने डॉक्टर का रोल किया. जो लगातार फेल होने के बावजूद हार मानने को तैयार नहीं.  फिल्म ने नवाज़ का नज़रिया बदल के धर दिया. सोच लिया कि लाइफ में कुछ भी करूं, पर कुछ सीखने की जिज्ञासा खत्म नहीं होने दूंगा.
Ek Doctor Ki Maut
एक डॉक्टर की मौत: एक डॉक्टर के जिद्दीपन की कहानी, जो कुष्टरोग को मिटाना चाहता है. फोटो - यूट्यूब

कल्लू, कल्लन, कालिया
एक्टर बनने के सपने अभी दूर थे. कुछ तो ये बड़े पर्दे की चमक और कुछ ये ज़ालिम ज़माना. कभी भरोसा ही नहीं पनपने दिया कि ये छोटे गांव का लड़का भी स्टार बन सकता है. आसपास के लोग ‘कल्लू, कल्लन, कालिया’ जैसे नामों से चिढ़ाते थे. कभी खुद को शीशे में देखकर खुश होने की हिम्मत ही नहीं मिली. ऊपर से लगने लगा कि वाकई खुद में कोई कमी है. रिश्तेदार भी कुछ कम न थे. एक बार एक रिश्तेदार घर आईं. नवाज़ तब तक 20 की उम्र से पार हो चुके थे. एक्टिंग से इश्कबाज़ी को लेकर सीरीयस थे. रिश्तेदार ने पूछा कि क्या बनना चाहते हो. सामने से जवाब आया, एक्टर. बस माथा पकड़ लिया. इनकी मां से कहने लगी,
हर मां को अपना बच्चा दुनिया में सबसे खूबसूरत लगता है. मैं ये नहीं कर रही कि तुम्हारा बेटा भद्दा दिखता है, पर सुंदर भी नहीं है.
बस उसी दिन नवाज़ के अंदर एक आग जली. चाहे कुछ भी हो जाए, कुछ स्पेशल करना है. खुद को साबित करके दिखाना है.

पिता की जेब टटोली और जो पाया उससे दंग रह गए
नवाज़ के सात भाई-बहन हैं. नवाज़ सबसे बड़े. पिता जमींदारी का काम करते थे. कच्ची उम्र में ही नवाज़ एक बात समझ गए थे. कि पिता के कदमों पर चलना तो हमसे ना हो पाएगा. उनके पिता का एक फिक्स्ड रूटीन था. काम से आते, अपना कुर्ता टांगते और नहाने चले जाते. नवाज़ इसी मौके की ताक में रहते थे. चुपचाप जाते और कुर्ते से एक और दो रुपए के सिक्के निकाल लेते. लगभग रोज़ ये सिलसिला चलता रहा. पर एक चीज़ उन्हे हैरान करने लगी. कुर्ते में पैसे कम होते जा रहे हैं. फिर आया वो दिन, जिसने कच्ची उम्र में समझदार बना दिया. आज कुर्ते में हाथ डाला तो सारे पैसे हाथ में आ गए. और नवाज़ के छोटे हाथों में थे सिर्फ 2 नोट. चौंक गए. समझ आया कि पिता भले ही जमींदार हैं, पर घर की हालत खस्ता चल रही है.
जब मनोज बाजपेयी के प्ले में पेड़ बने
बुढ़ाना छोड़ने का टाइम आया. ग्रेजुएशन करने हरिद्वार निकले. जिसके बाद शुरू हुई नौकरी की तलाश. जो इन्हे दिल्ली के दर तक ले आई. अब तक एक्टिंग को लेकर सीरियस हो चुके थे. बस किसी ज़रिए की तलाश थी. वो भी पूरी हुई. जब थिएटर के बारे में पता चला. इसपर वे कहते हैं,
मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था. मुझे लगने लगा था कि इस मीडियम के ज़रिए मैं खुद को एक्सप्रेस कर सकता हूं.
Nawazuddin In Shool
वेटर बने नवाज़ और टेबल पर मनोज बाजपेयी. फोटो - स्टिल

पर यहां भी एक दिक्कत थी. नवाज़ को ऑडियंस का सामना करने से डर लगता था. पर इस डर का इलाज भी उन्होंने खुद ही किया. एक प्ले में काम करके. नाम था ‘उलझन’. मनोज बाजपेयी भी इसी का हिस्सा थे. यहां नवाज़ लगातार ऑडियंस के सामने रहे. रोल ही कुछ ऐसा था. एक पेड़ का. कोई लाइन नहीं थी. ऐसे ही छोटे-छोटे रोल करते रहे और झिझक दूर होती रही. थोड़ा अनुभव इकट्ठा किया और नैशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में दाखिला लिया. कुछ साल बाद मुंबई आए. फिल्मों में काम करने. पर शुरू में छोटे किरदार मिले.  अपने इसी पीरीयड में एक बार फिर मनोज बाजपेयी के साथ काम करने को मिला. उनकी फिल्म ‘शूल’ में. यहां उन्होंने वेटर का किरदार निभाया.
उन्हे पहचान दिलाने का काम दो फिल्मों ने किया. ‘ब्लैक फ्राइडे’ और ‘पीपली लाइव’. बाद में आई ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’. जिसके बाद नवाज़ ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा.

Advertisement