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SPOTLIGHT में ऐसा क्या था खास, जो ऑस्कर मिला?

सिने संन्यासी- 3: कौन सी है वो फिल्म जिसने 'द रेवेनेंट' और 'मै़ड मैक्स फ्यूरी' को पछाड़ दिया.

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लल्लनटॉप
1 मार्च 2016 (Updated: 1 मार्च 2016, 07:24 PM IST) कॉमेंट्स
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सिने संन्यासी. दी लल्लनटॉप की नई सीरीज. जिसमें एक जवान साधुनुमा आदमी बात कर रहा है. आपसे. फिलहाल हॉलीवुड सिनेमा पर. वह साधु है क्योंकि उसे अपनी नाम पहचान या ऑस्कर के शोर से कोई मतलब नहीं. उसकी बस एक ही हवस है. भक्ति की तरह. फिल्में. पहली किस्त में उसने बताया कि अवॉर्ड तो बस एक फरेब भर हैं. जिसके चलते हम कई को जानते हैं, तो कई हारकर पीछे छूट जाते हैं. भले ही वह और भी हकदार हों. इसी किस्त में फिल्म 'दी बीस्ट्स ऑफ नो नेशन' फिल्म का जिक्र किया गया. दूसरी किस्त में बात हुई 'द डैनिश गर्ल और एक्सपेरिमेंटर' पर. जिसके बारे में कुछ सलीके के लोग ये कहते हैं कि अगर एक्टिंग भर ही पैमाना होती. कोई कवित्तपूर्ण न्याय करने का दबाव न होता. तो बेस्ट एक्टर का अवॉर्ड द डैनिश गर्ल के लिए एडी रेडमेइन को मिलता. और अब तीसरी किस्त. जिसमें ये सिने संन्यासी, इस बार की बेस्ट फिल्म का ऑस्कर अवॉर्ड जीतने वाली स्पॉटलाइट की बात करेगा. साथ ही बताएगा फिल्म 'द बिग शॉर्ट' के बारे में: तो बस बिना देरी किए मिलिए अपने सिने संन्यासी से...
Spotlightspotlight
'हमें इंस्टिट्यूट (चर्च) पर फोकस करने की जरूरत है, पादरियों पर नहीं। उनकी प्रैक्टिस और पॉलिसी। मुझे ये दिखाओ कि चर्च ने अपने सिस्टम का दुरुपयोग किया ताकि इन लोगों को आरोपों का सामना नहीं करना पड़े। मुझे ये दिखाओ कि चर्च ने बार-बार लगातार इन्हीं पादरियों को चर्च में नियुक्त किया। मुझे दिखाओ कि ये सिस्टेमिक था। कि ये प्रवाह ऊपर से नीचे की और था'
- मार्टी बैरन, 2001 में नियुक्त द बोस्टन ग्लोब अख़बार के नए एडिटर .. कैथलिक चर्च के पादरियों द्वारा बच्चों का यौन शोषण करने की विशेष खोजी ख़बर पर काम कर रही स्पॉटलाइट टीम को संबोधित करते हुए. मीडिया। भारत में अभी दयनीय अवस्था में है। कुछेक संस्थानों को छोड़ सभी समझौतों के बीच काम कर रहे हैं। राजनीतिक और आर्थिक उद्देश्यों के तहत काम कर रहे हैं। प्रमुख अख़बारों और चैनलों के एडिटर क्षमताहीन हैं। उनमें दूरदर्शिता और पत्रकारिता की सही शिक्षा का गहरा अभाव है। भला तो दूरे, वे समाज और लोगों का बुरा जरूर कर रहे हैं। जेएनयू मामले में वीडियोज़ से की गई छेड़छाड़ में कुछ चैनलों की भूमिका शोचनीय रही। कुछ चैनलों का अंदाज गुंडों से कम नहीं है। कुछ के फेसबुक पोस्ट दंगाइयों जैसे हैं। पत्रकारों और मीडिया संस्थानों की विश्वसनीयता अभूतपूर्व गिरावट पर है। ऐसे में एक नाम उभरता है। द बोस्टन ग्लोब। कई पुलित्जर पुरस्कारों से सम्मानित। पुलित्ज़र जो पत्रकारिता के क्षेत्र का शीर्ष पुरस्कार है। बोस्टन ग्लोब में 1970 में स्पॉटलाइट नाम की एक इनवेस्टिगेटिव टीम की रचना की गई। ये नया प्रयोग था। इसमें चार-पांच लोगों की टीम एक विषय पर महीनों काम करती थी। कभी-कभी साल भर एक ही खबर में लगा देते। 45 साल में स्पॉटलाइट ने 102 खोजी रिपोर्ट कीं। 1999 से 2006 तक स्पॉटलाइट के एडिटर रहे वॉल्टर रॉबी कहते हैं, "हम ऐसे लोग खोजते हैं जिन्हें समाज या वो संस्थान पीड़ा दे रहे हैं जिन पर उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी है। हम उन लोगों को आवाज देते हैं जिनके पास आवाज नहीं।’ जुलाई 2001 में अखबार के नए एडिटर बने मार्टी बैरन (लीव श्रैबर)। काम के पहले ही दिन मीटिंग में उन्होंने एक कॉलम का जिक्र किया जिसमें जॉन गेगन नाम के एक पादरी के खिलाफ 87 कानूनी मामले थे। इन मामलों के कागज़ सीलबंद और सार्वजनिक पहुंच से दूर थे। फिर स्पॉटलाइट टीम रॉबी के नेतृत्व में इस खबर में जुट गई। ये फिल्म इसी केस पर केंद्रित है जिसे बाद में पुलित्जर मिला। माइकल रिज़ेनडीज़ इस टीम के प्रमुख रिपोर्टर थे और फिल्म के प्रमुख पात्र भी वही हैं जो मार्क रफैलो ने अदा किया है। बहुत जोरदार अदा किया है। वे रिज़ेनडीज़ जैसे तो नहीं लगते लेकिन अपनी अलग ही विवेचना इस पात्र की उन्होंने की है। तत्पर से, जेबों में हाथ डाले, जुनूनी, जिद्दी, अलग उच्चारण वाले। बेस्ट एक्टर की श्रेणी में वे भी प्रभावी मौजूदगी हैं। spotlight जैसे जैसे ये टीम जांच करती जाती है ऐसे पादरियों की संख्या बढ़ती जाती है जिन्होंने सैकड़ों बच्चों का शोषण किया। आप आज के हमारे समाज की कल्पना कीजिए जहां संस्थाओं के खिलाफ बोलने या आलोचना करने पर लोग गोली मार देने की बात कर रहे हैं। कहते हैं कि आपको वंदे मातरम बोलना होगा नहीं तो यहां रहने नहीं देंगे। जब आप किसी भाव, छवि, संस्थान और व्यवस्था को पवित्रता से जोड़ देते हैं, सबसे ऊंचे आसन पर बैठा देते हैं तो सड़न शुरू होती है। जैसे इस फिल्म में देखें। फिल सावियानो नाम का पात्र स्पॉटलाइट के रिपोर्टर्स से बात करते हुए बताता है, "मैं 11 साल का था और फादर डेविड हॉली मेरे ऊपर प्रार्थना करते थे। मेरे लिए नहीं, मेरे ऊपर..। जब आप एक गरीब परिवार के गरीब बच्चे होते हो तो धर्म बहुत मायने रखता है। और जब एक पादरी आप पर ध्यान देता है तो ये बहुत बड़ी बात होती है। आप उसका कचरा भी उठाते हो तो खास महसूस करते हो। ये ऐसा है जैसे भगवान ने मदद मांगी हो। हां, जब वो गंदा चुटकुला सुनाए तो थोड़ा अजीब लग सकता है लेकिन अब आप दोनों का ये सीक्रेट हो जाता है। तो आप साथ आगे बढ़ते हो। फिर वो आपको एक पोर्न मैगजीन दिखाता है और आप साथ आगे बढ़ते हो। आप आगे जारी रखते जाते हो, जारी रखते जाते हो। और एक दिन आता है जब वो आपको ब्लो जॉब या हस्त मैथुन के लिए कहता है। और आप वो भी करते हो। क्योंकि उसने आपको अच्छे से घेर लिया है। उसने आपको ग्रूम किया है। आप भगवान को ना कैसे कहोगे? और ये सिर्फ शारीरिक शोषण ही नहीं होता, ये आध्यात्मिक शोषण भी होता है।’ स्पॉटलाइट के जरिए लोगों को ये जानना बहुत जरूरी है, पत्रकारिता के क्षेत्र में आने वाले नए लोगों को जानना बहुत जरूरी है कि बुनियादी तौर पर ये काम है क्या? और आप भारत में इस तर्क को ढाल नहीं बना सकते कि मीडिया का कॉरपोरेटाइजेशन हो गया है! हम पेट कैसे पालेंगे! अमेरिका जैसे घोर पूंजीवादी मुल्क में चर्च जैसे सर्वोच्च संस्थान से लोहा एक राज्य के अखबार ने लिया है, लगातार, दशकों से। अगर आप ये फिल्म नहीं देखते और अपनी समझ बेहतर नहीं करते तो अफसोस भरा होगा। ये 2015 की और पिछले दशक की सबसे महत्वपूर्ण फिल्मों में है। स्पॉटलाइट का मनोरंजन मिनिमलिस्टिक तरह का है। इसमें कुछ भी महत्व नहीं रखता, सिर्फ कहानी और उसका असली वातावरण मायने रखता है। तो सब एक्टर, निर्देशन, म्यूजिक, स्क्रिप्ट .. उसी के पीछे चलते हैं। ये दर्शकों के लिए कम मसालेदार हो सकता है लेकिन सिनेमा के लिहाज से उच्चतम गुणवत्ता वाला होता है। वैसे इसी संदर्भ वाली घुमावदार, रोचक मोड़ों, मजबूत अंत वाली फिल्म देखनी हो तो रसेल क्रो अभिनीत "स्टेट ऑफ प्ले’ (2009) देख सकते हैं। फिल्म का ट्रेलर.. https://www.youtube.com/watch?v=56jw6tasomc
The Big Shortthe big short
'मेरा यकीन बहुत सिंपल है। वॉल स्ट्रीट को लुईस रेनेरी के मॉर्गेज बॉन्ड का अच्छे से अंदाजा था और उसने इसे धोखे और मूर्खता के परमाणु बम में तब्दील कर दिया, जो अब विश्व की अर्थव्यवस्था का विनाश करने आगे बढ़ रहा है। जो भी लोग मुझे जानते हैं, वो जानते हैं मुझे किसी को ये कहने में कभी दिक्कत नहीं होती कि आप गलत हैं। लेकिन मेरे जीवन में ये पहली बार है कि ऐसा कहना आनंद भरा नहीं है। हम अमेरिका में धोखेबाजी के युग में रह रहे हैं। सिर्फ बैंकिंग में ही नहीं, सरकारों में, शिक्षा में, धर्म में, फूड में, यहां तक कि बेसबॉल में भी। मुझे इस बात की तकलीफ नहीं है कि धोखाधड़ी अच्छी नहीं है या धांधली घटिया है.. इस बात की है कि पिछले पंद्रह हजार सालों में धोखाधड़ी और अल्पदृष्टि वाली सोच कभी भी सफल नहीं रही है। एक बार भी नहीं। अंतत: आप पकड़े जाते हैं। हकीकत बाहर आती है। हम लोग ये बातें भूल कैसे गए।'
- मार्क बाम, वॉल स्ट्रीट के एक हेज फंड मैनेजर। उन चंद लोगों में शामिल जिन्होंने 2008 के सबप्राइम संकट का पहले ही अंदाजा लगाते हुए अपना धन अर्थव्यवस्था के विपरीत लगाया और सही साबित हुए। 14 मार्च 2008 को न्यू यॉर्क के इनवेस्टमेंट बैंक और ब्रोकरेज कंपनी बियर स्टर्न के पूरी तरह ढहने के तुरंत पहले दिए अपने भाषण में उन्होंने ये कहा। फिल्म का ये पात्र अमेरिकी मनी मैनेजर स्टीव आइज़मन पर आधारित है। 11वीं-12वीं कक्षा में मेरा विषय अर्थव्यवस्था था। हमसे एक सवाल पूछा गया था - "मंदी ज्यादा बुरी होती है या महंगाई?’ शिक्षक ने फिर कहा, मंदी.. क्योंकि महंगाई में आपके पास काम होता है, कोई चीज कम ही सही खरीद पाने की क्षमता होती है। मंदी में कुछ भी नहीं होता है। भूख, अपराध, बेबसी, मृत्यु होती है। सन् 1929-30 की भीषण आर्थिक मंदी जैसी दुनिया ने कभी नहीं देखी थी। बेरोजगारी, भुखमरी, भय के वो नजारे किसी विश्व युद्ध जैसे ही थे। उसके बाद 2007-08 में आर्थिक संकट उपजा। दोनों के पीछे बुनियादी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था थी जो अपने आप में खोखली और बेईमान है। मांग और पूर्ति का रिश्ता उल्टा है। सर्वोपरि मुनाफा है जिसके लिए बाजार उन उत्पादों का निर्माण करता है जिसकी लोगों को जरूरत नहीं। फिर विज्ञापनों के जरिए हमारे जेहन में हमें उन उत्पादों की जरूरत होने का भ्रम गढ़ता है। 2008 से पहले बैंकों और हाउसिंग बाजार ने लोगों को सुनहरे सपने दिखाए थे। लोगों को बताया गया कि प्रॉपर्टी की कीमतें लगातार बढ़ती जाएंगी। एक-एक के पास पांच-पांच घर। और बुनियादी खोखलेपन के अलावा इस दौरान सब जिम्मेदार लोग सो रहे थे। बाजार नियामक लापरवाह थे। क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों ने कमजोर निवेश उत्पादों का ओवरवैल्यूएशन किया। ये वैसे ही है जैसे हरियाणा में या गोधरा में प्रशासन गाड़ियों में चढ़कर दंगों के स्थलों से निकल जाए और हत्यारों को हत्याएं करने दे। या जैसे "एनएच10’ में उस हरियाणा के गांव के पुलिस, प्रशासन के लोग ऑनर किलिंग को अपने नैतिक मूल्यों के लिहाज से सही मानते हैं और मौन रहते हैं। पवित्रिकरण करने वालों को करने देते हैं। the big short अनावश्यक कर्जे लेकर खरीदारी, पारदर्शिता की कमी, जोखिम भरे निवेश और विलासिता पूर्ण जीवन के ध्येय भी आर्थिक संकट के मूल में थे। निर्देशक एडम मकै ने इस बड़े जटिल विषय पर "द बिग शॉर्ट’ बनाई है। ये फिल्म फाइनेंशियल जर्नलिस्ट माइकल लुइस की 2010 में प्रकाशित किताब "द बिग शॉर्ट: इनसाइड द डूम्सडे मशीन’ पर आधारित है। ऑस्कर या कलात्मक फिल्मों के पैमानों से एडम बड़े उपेक्षित रखे जाने वाले निर्देशक हैं। क्योंकि उन्होंने "एंकरमैन: द लैजेंड ऑफ रॉन बर्गुंडी’ और "स्टेप ब्रदर्स’ जैसी मूर्खतापूर्ण हास्य फिल्में बनाई हैं जिन्हें धीर-गंभीर लोग नहीं देखा करते। सिर्फ उनके हास्य के गुण के कारण ही "द बिग शॉर्ट’ इतनी दिलचस्प और ग्राह्य हो पाती है। जैसे देखिए, जब फिल्म में हमें सब-प्राइम लोन, शॉर्टिंग और सीडीओ जैसे शब्द समझ नहीं आते तो ऑस्ट्रेलियाई अभिनेत्री मार्गो रॉबी बबल बाथ टब में नहाते और ड्रिंक सिप करते हुए सब-प्राइम का अर्थ बाती हैं। फिर प्रसिद्ध शेफ एंथनी बोरडेन मछली काटते हुए सीडीओ का मतलब समझाते हैं। इसी से पहले रॉयन गॉज़लिंग द्वारा निभाया जैरेड वैनेट का सूत्रधार पात्र कहता है, "मॉर्गेज सिक्योरिटी, सब-प्राइम लोन्स, ट्रॉन्चेज़.. ये सब बहुत उलझाने वाला है न? क्या आप बोर या स्टूपिड महसूस करते हैं? वॉल स्ट्रीट को ऐसी उलझाने वाली शब्दावली इस्तेमाल करना बड़ा अच्छा लगता है क्योंकि फिर आपको लगता है कि सिर्फ वे ही वो काम कर सकते हैं जो कर रहे हैं।’ क्रिश्चिन बेल ने इसमें डॉ. माइकल बरी का रोल किया है जो एक हेज फंड मैनेजर है। टी-शर्ट, कच्छे में रहता है। हार्ड रॉक जोर-जोर से बजाकर दफ्तर में सुनता है। उस दिशा में सोचता है जिस ओर कोई नहीं। हाउसिंग बाजार के गिरने की सबसे पहली भविष्यवाणी उसी ने की थी और उसी से धीरे-धीरे अन्य लोगों को क्लू मिला। एडम ने अपने सभी पात्रों की कूल डीटेलिंग की है। ये एक इकॉनमी पर आधारित फिल्म नहीं रह जाती। जैसे "द सोशल नेटवर्क’ बिलकुल भी सोशल मीडिया तकनीक के बारे में नहीं थी। ब्रैड पिट को भी देखना आह्लादकारी है। वो बेन रिकर्ट बने हैं। वो जेपी मॉर्गन चेस़ बैंक में काम करते थे और अब गांव में जा बसे हैं। सोशलिस्ट हो गए हैं। बैंकिंग जगत से नफरत करते हैं। ऑर्गेनिंग फॉर्मिंग की बात करते हैं। अगर ये पात्र भारतीय संदर्भों में होता तो एंटी-नेशनल हो जाता। "स्पॉटलाइट’ फिल्म में होता तो चर्च और कम्युनिटी को बदनाम करने वाले मान लिया जाता। "द डेनिश गर्ल’ में होता तो डॉक्टर उसे ट्रांसजेंडर होने के लिए पागल करार कर देता। लेकिन ऐसे पात्रों और हमारे बीच के ऐसे लोगों को सुना जाए तो एक बहुत बेहतर, स्वस्थ, सुरक्षित, मानवीय समाज का निर्माण हो सकता है। निर्देशक एडम भी ऐसे ही व्यक्ति हैं। उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में बर्नी सेंडर्स को वित्तीय समर्थन दिया है। प्रारंभ में दिए कथन वाले मार्क बाम का रोल स्टीव कैरल ने किया है जो फिल्म के अंत तक जाते-जाते समाजवादी हो जाते हैं। "द बिग शॉर्ट’ को देखते हुए लगता है कि ये साल की सबसे महत्वपूर्ण फिल्म है। जैसे मैंने शुरू में जिक्र किया, हर अच्छी फिल्म को देखते हुए ये आभास होता है और ये आभास होना अच्छा है। फिल्म का ट्रेलर तो देखिए.. https://www.youtube.com/watch?v=1kQc3mmtH-o

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