SPOTLIGHT में ऐसा क्या था खास, जो ऑस्कर मिला?
सिने संन्यासी- 3: कौन सी है वो फिल्म जिसने 'द रेवेनेंट' और 'मै़ड मैक्स फ्यूरी' को पछाड़ दिया.
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spotlight फिल्म का सीन
सिने संन्यासी. दी लल्लनटॉप की नई सीरीज. जिसमें एक जवान साधुनुमा आदमी बात कर रहा है. आपसे. फिलहाल हॉलीवुड सिनेमा पर. वह साधु है क्योंकि उसे अपनी नाम पहचान या ऑस्कर के शोर से कोई मतलब नहीं. उसकी बस एक ही हवस है. भक्ति की तरह. फिल्में.
पहली किस्त में उसने बताया कि अवॉर्ड तो बस एक फरेब भर हैं. जिसके चलते हम कई को जानते हैं, तो कई हारकर पीछे छूट जाते हैं. भले ही वह और भी हकदार हों. इसी किस्त में फिल्म 'दी बीस्ट्स ऑफ नो नेशन' फिल्म का जिक्र किया गया.
दूसरी किस्त में बात हुई 'द डैनिश गर्ल और एक्सपेरिमेंटर' पर. जिसके बारे में कुछ सलीके के लोग ये कहते हैं कि अगर एक्टिंग भर ही पैमाना होती. कोई कवित्तपूर्ण न्याय करने का दबाव न होता. तो बेस्ट एक्टर का अवॉर्ड द डैनिश गर्ल के लिए एडी रेडमेइन को मिलता.
और अब तीसरी किस्त. जिसमें ये सिने संन्यासी, इस बार की बेस्ट फिल्म का ऑस्कर अवॉर्ड जीतने वाली स्पॉटलाइट की बात करेगा. साथ ही बताएगा फिल्म 'द बिग शॉर्ट' के बारे में:
तो बस बिना देरी किए मिलिए अपने सिने संन्यासी से...
Spotlight

'हमें इंस्टिट्यूट (चर्च) पर फोकस करने की जरूरत है, पादरियों पर नहीं। उनकी प्रैक्टिस और पॉलिसी। मुझे ये दिखाओ कि चर्च ने अपने सिस्टम का दुरुपयोग किया ताकि इन लोगों को आरोपों का सामना नहीं करना पड़े। मुझे ये दिखाओ कि चर्च ने बार-बार लगातार इन्हीं पादरियों को चर्च में नियुक्त किया। मुझे दिखाओ कि ये सिस्टेमिक था। कि ये प्रवाह ऊपर से नीचे की और था'- मार्टी बैरन, 2001 में नियुक्त द बोस्टन ग्लोब अख़बार के नए एडिटर .. कैथलिक चर्च के पादरियों द्वारा बच्चों का यौन शोषण करने की विशेष खोजी ख़बर पर काम कर रही स्पॉटलाइट टीम को संबोधित करते हुए. मीडिया। भारत में अभी दयनीय अवस्था में है। कुछेक संस्थानों को छोड़ सभी समझौतों के बीच काम कर रहे हैं। राजनीतिक और आर्थिक उद्देश्यों के तहत काम कर रहे हैं। प्रमुख अख़बारों और चैनलों के एडिटर क्षमताहीन हैं। उनमें दूरदर्शिता और पत्रकारिता की सही शिक्षा का गहरा अभाव है। भला तो दूरे, वे समाज और लोगों का बुरा जरूर कर रहे हैं। जेएनयू मामले में वीडियोज़ से की गई छेड़छाड़ में कुछ चैनलों की भूमिका शोचनीय रही। कुछ चैनलों का अंदाज गुंडों से कम नहीं है। कुछ के फेसबुक पोस्ट दंगाइयों जैसे हैं। पत्रकारों और मीडिया संस्थानों की विश्वसनीयता अभूतपूर्व गिरावट पर है। ऐसे में एक नाम उभरता है। द बोस्टन ग्लोब। कई पुलित्जर पुरस्कारों से सम्मानित। पुलित्ज़र जो पत्रकारिता के क्षेत्र का शीर्ष पुरस्कार है। बोस्टन ग्लोब में 1970 में स्पॉटलाइट नाम की एक इनवेस्टिगेटिव टीम की रचना की गई। ये नया प्रयोग था। इसमें चार-पांच लोगों की टीम एक विषय पर महीनों काम करती थी। कभी-कभी साल भर एक ही खबर में लगा देते। 45 साल में स्पॉटलाइट ने 102 खोजी रिपोर्ट कीं। 1999 से 2006 तक स्पॉटलाइट के एडिटर रहे वॉल्टर रॉबी कहते हैं, "हम ऐसे लोग खोजते हैं जिन्हें समाज या वो संस्थान पीड़ा दे रहे हैं जिन पर उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी है। हम उन लोगों को आवाज देते हैं जिनके पास आवाज नहीं।’ जुलाई 2001 में अखबार के नए एडिटर बने मार्टी बैरन (लीव श्रैबर)। काम के पहले ही दिन मीटिंग में उन्होंने एक कॉलम का जिक्र किया जिसमें जॉन गेगन नाम के एक पादरी के खिलाफ 87 कानूनी मामले थे। इन मामलों के कागज़ सीलबंद और सार्वजनिक पहुंच से दूर थे। फिर स्पॉटलाइट टीम रॉबी के नेतृत्व में इस खबर में जुट गई। ये फिल्म इसी केस पर केंद्रित है जिसे बाद में पुलित्जर मिला। माइकल रिज़ेनडीज़ इस टीम के प्रमुख रिपोर्टर थे और फिल्म के प्रमुख पात्र भी वही हैं जो मार्क रफैलो ने अदा किया है। बहुत जोरदार अदा किया है। वे रिज़ेनडीज़ जैसे तो नहीं लगते लेकिन अपनी अलग ही विवेचना इस पात्र की उन्होंने की है। तत्पर से, जेबों में हाथ डाले, जुनूनी, जिद्दी, अलग उच्चारण वाले। बेस्ट एक्टर की श्रेणी में वे भी प्रभावी मौजूदगी हैं।

The Big Short

'मेरा यकीन बहुत सिंपल है। वॉल स्ट्रीट को लुईस रेनेरी के मॉर्गेज बॉन्ड का अच्छे से अंदाजा था और उसने इसे धोखे और मूर्खता के परमाणु बम में तब्दील कर दिया, जो अब विश्व की अर्थव्यवस्था का विनाश करने आगे बढ़ रहा है। जो भी लोग मुझे जानते हैं, वो जानते हैं मुझे किसी को ये कहने में कभी दिक्कत नहीं होती कि आप गलत हैं। लेकिन मेरे जीवन में ये पहली बार है कि ऐसा कहना आनंद भरा नहीं है। हम अमेरिका में धोखेबाजी के युग में रह रहे हैं। सिर्फ बैंकिंग में ही नहीं, सरकारों में, शिक्षा में, धर्म में, फूड में, यहां तक कि बेसबॉल में भी। मुझे इस बात की तकलीफ नहीं है कि धोखाधड़ी अच्छी नहीं है या धांधली घटिया है.. इस बात की है कि पिछले पंद्रह हजार सालों में धोखाधड़ी और अल्पदृष्टि वाली सोच कभी भी सफल नहीं रही है। एक बार भी नहीं। अंतत: आप पकड़े जाते हैं। हकीकत बाहर आती है। हम लोग ये बातें भूल कैसे गए।'- मार्क बाम, वॉल स्ट्रीट के एक हेज फंड मैनेजर। उन चंद लोगों में शामिल जिन्होंने 2008 के सबप्राइम संकट का पहले ही अंदाजा लगाते हुए अपना धन अर्थव्यवस्था के विपरीत लगाया और सही साबित हुए। 14 मार्च 2008 को न्यू यॉर्क के इनवेस्टमेंट बैंक और ब्रोकरेज कंपनी बियर स्टर्न के पूरी तरह ढहने के तुरंत पहले दिए अपने भाषण में उन्होंने ये कहा। फिल्म का ये पात्र अमेरिकी मनी मैनेजर स्टीव आइज़मन पर आधारित है। 11वीं-12वीं कक्षा में मेरा विषय अर्थव्यवस्था था। हमसे एक सवाल पूछा गया था - "मंदी ज्यादा बुरी होती है या महंगाई?’ शिक्षक ने फिर कहा, मंदी.. क्योंकि महंगाई में आपके पास काम होता है, कोई चीज कम ही सही खरीद पाने की क्षमता होती है। मंदी में कुछ भी नहीं होता है। भूख, अपराध, बेबसी, मृत्यु होती है। सन् 1929-30 की भीषण आर्थिक मंदी जैसी दुनिया ने कभी नहीं देखी थी। बेरोजगारी, भुखमरी, भय के वो नजारे किसी विश्व युद्ध जैसे ही थे। उसके बाद 2007-08 में आर्थिक संकट उपजा। दोनों के पीछे बुनियादी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था थी जो अपने आप में खोखली और बेईमान है। मांग और पूर्ति का रिश्ता उल्टा है। सर्वोपरि मुनाफा है जिसके लिए बाजार उन उत्पादों का निर्माण करता है जिसकी लोगों को जरूरत नहीं। फिर विज्ञापनों के जरिए हमारे जेहन में हमें उन उत्पादों की जरूरत होने का भ्रम गढ़ता है। 2008 से पहले बैंकों और हाउसिंग बाजार ने लोगों को सुनहरे सपने दिखाए थे। लोगों को बताया गया कि प्रॉपर्टी की कीमतें लगातार बढ़ती जाएंगी। एक-एक के पास पांच-पांच घर। और बुनियादी खोखलेपन के अलावा इस दौरान सब जिम्मेदार लोग सो रहे थे। बाजार नियामक लापरवाह थे। क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों ने कमजोर निवेश उत्पादों का ओवरवैल्यूएशन किया। ये वैसे ही है जैसे हरियाणा में या गोधरा में प्रशासन गाड़ियों में चढ़कर दंगों के स्थलों से निकल जाए और हत्यारों को हत्याएं करने दे। या जैसे "एनएच10’ में उस हरियाणा के गांव के पुलिस, प्रशासन के लोग ऑनर किलिंग को अपने नैतिक मूल्यों के लिहाज से सही मानते हैं और मौन रहते हैं। पवित्रिकरण करने वालों को करने देते हैं।
