2 अगस्त 2016 (Updated: 2 अगस्त 2016, 12:19 PM IST) कॉमेंट्स
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टीना दास असम से आती हैं. पिछले कुछ सालों से दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाई कर रही हैं. फ़िलहाल अंग्रेजी लिटरेचर में एमफिल कर रही हैं. उन्होंने ये आर्टिकल हमें अंग्रेजी में लिख भेजा था. हम इसे ट्रांसलेट कर आपको पढ़ा रहे हैं.
मैं खोई हुई सी बैठी हूं. जैसे किसी और ही दुनिया में हूं. पिछले हफ्ते के सारे अखबार पूरे-पूरे पढ़ लिए हैं. एक-आध को छोड़कर असम की बाढ़ का कहीं कोई जिक्र नहीं दिख रहा है. एक देश जो हर राज्य को अपना मानने का दावा करता है, वहां असम की बाढ़ खास हो गई है. इसलिए, क्योंकि वो किसी अखबार में नहीं है. गुरुग्राम में पानी भरा हुआ है, हाईवे पर जाम है. ये नेशनल न्यूज है. क्यों? क्योंकि गुरुग्राम दिल्ली के पास है? यहां देश की बड़ी-बड़ी कंपनियों के दफ्तर हैं?
हमारी सरकार और मीडिया की प्राथमिकताएं क्या हैं, इसे समझने के लिए आपको कोई जीनियस होने की जरूरत नहीं है. एक-आध अखबार के अलावा जहां मैंने असम में आई बाढ़ का जिक्र सुना, वो AIR था. जिसको आज लोगों ने प्राइवेट FM चैनल के चलते सुनना बंद कर दिया है. वो भी लगातार चल रही सुर्ख़ियों में एक लाइन की जगह मिली थी. अखबारों में दो-दो पन्ने वॉर्डरोब मैलफंक्शन पर खर्च कर दिए जाते हैं. लेकिन वो बाढ़, जो लाखों लोगों को बेघर छोड़ देती है, उसका कोई जिक्र नहीं होता.
आपको शहरों में बैठे अपने देश के बारे में कुछ बातें कभी मालूम ही नहीं पड़तीं. जानते हैं, हाशिए पर बसा असम दिन पर दिन छोटा होता जा रहा है. जमीन के मामले में. माजुली के बारे में जानते हैं? एक आइलैंड है. असम के अंदर ही. ब्रह्मपुत्र नदी में बनता है. ये देश का ही नहीं, दुनिया का सबसे बड़ा नदी के अंदर बनने वाला आइलैंड यानी टापू है. माजुली सिर्फ एक भौगोलिक जादू ही नहीं है. ये घर है, असमिया वैष्णवों के मंदिरों का. यहां असम का कल्चर बसता है. सदियों पुराने असमिया साहित्य का केंद्र हैं ये. हर साल यहां नाटक होते हैं, जो यहां के कल्चर को सेलिब्रेट करते हैं. ये माजुली के लोगों का धैर्य और जीने की चाह ही है, कि लोग हर साल बाढ़ झेलकर भी आगे बढ़ जाते हैं. माजुली में सड़कें नहीं हैं. बस बांध ही बांध भर हैं. जो टूरिस्ट आते हैं, उन्हीं की सर्विस से इन्हें पैसे मिलते हैं. वही इनका रोजगार है. साल के तीन महीने माजुली पास के जोरहट शहर से बिल्कुल कट जाता है. मुझे नहीं पता वहां के लोगों का धीरज कब तक बंधा रहेगा.
मैं असम के एक शहर में पली-बढ़ी. लेकिन मेरे पापा निचले असम के गांव 'बमखता' से आते हैं. नक्शा लेकर खोजेंगे तो कहीं नहीं दिखेगा. जब हम छोटे थे, साल में दो बार देऊता (पापा) के गांव जाया करते थे. या मां के गांव 'पाठशाला' जाया करते थे. मुझे बाढ़ें इस तरह से याद हैं, जैसे किसी कविता का हिस्सा हों.
मैं तीसरी क्लास में थी. पिछले एक हफ्ते से लगातार बारिश हो रही थी. जिससे हमारी ट्रिप टलती जा रही थी. जब आखिरकार बारिश रुकी, मेरी ख़ुशी का कोई हिसाब नहीं था. ख़ुशी से सोई नहीं सारी रात. मैं, बड़ी बहन, मां और देऊता के साथ अपनी मारुति 800 में गांव के लिए निकल पड़े. गुवाहाटी क्रॉस कर सैराघाट पुल के ऊपर गाड़ी भाग रही थी. मैंने नीचे की तरफ देखा, गांव थे. स्कूल से मिला हुआ आर्ट का असाइनमेंट याद आया. तय किया वापस जाकर इसी गांव की पेंटिंग बनाऊंगी.
हम रास्ते में थे. मैं सो गई थी. कार अचानक रुक गई. मैंने देखा कि देऊता गाड़ी से उतारकर गए हैं. बहन की गोद से सर उठाकर देखा तो पाया कि जाम लगा हुआ है. गाड़ियां हिल तक नहीं रही थीं. देऊता आधे घंटे में लौटकर आए. पता चला, पास की एक नदी का बांध टूट गया है. और हर जगह पानी आ गया है. वो बाढ़ का मौसम था. हमें मालूम नहीं था कि करना क्या है. घंटे भर तक झक मारने के बाद एक अच्छा संयोग हुआ. पता चला कि पास में ही देऊता का एक स्टूडेंट रहता है. स्टूडेंट ने कहा कि हम गाड़ी उनके घर छोड़ पाठशाला तक ट्रेन ले लें.
हमने रात 8 बजे ट्रेन ली. कहीं भी बिजली नहीं थी. बाहर बिल्कुल अंधेरा था. तभी मालूम पड़ा कि बाढ़ का पानी ट्रेन के अंदर आ चुका है. मेरे पांव पानी में डूब रहे थे. और मुझे डर लगने लगा था. बारिश के बीच हम पाठशाला पहुंचे. और आने वाले 20 दिनों तक वहीं फंसे रहे. जब ये पता चला कि ब्रह्मपुत्र का पानी घटने लगा है, हमने रंगिया के लिए ट्रेन ली. वही गांव, जहां हम गाड़ी छोड़कर आए थे.
जब वहां से गाड़ी लेकर चले, ऐसे नजारे दिखे कि दिल दहल गया. हाईवे के हर तरफ पानी ही पानी था. घरों की बस छतें भर दिख रही थीं. सड़कों पर टेंट की एक लंबी कतार थी. भूख लोगों की आंखों से झांक रही थी. लोग भीख मांग रहे थे. जानवर या तो मर गए थे या अधमरी हालत में थे. बच्चे नंगे घूम रहे थे. और जो भी कुछ सरकार की तरफ से मदद के तौर पर आ रहा था, उस पर भूखे कुत्तों की तरह झपट रहे थे.
एक पुलिस वाले ने लिफ्ट मांगी और देऊता ने उन्हें बैठा लिया. गाड़ी पानी के बीच से होकर जा रही थी. और बार-बार रुक रही थी. इंजन काम नहीं कर रहा था. अचानक कुछ लोगों ने मिलकर हमारी गाड़ी रोक ली. हमने देखा कि गांव वाले लोगों की गाड़ियां रोककर उनसे जबरन पैसे ऐंठ रहे थे. मजबूरी का ये रूप मैंने कभी नहीं देखा था. चूंकि हमारे साथ पुलिस वाला था, हम पैसे देने से बच गए. लेकिन 15 साल बाद भी वो दृश्य मुझे भूलता नहीं है. हम सब घंटों चुप रहे. मैं कुछ देर पहले तक चिप्स का पैकेट लेने की जिद कर रही थी. लेकिन अब मैं चुप थी.
हम सरायघाट पुल पर पहुंचे. जिस गांव की पेंटिंग मैं बनाना चाहती थी, उसका नामोनिशान मिट चुका था. बाढ़ गांव के गांव खा गई थी.
असम में रहते हुए लगभग हर साल बाढ़ देखी है. देखा है लोगों का जीवन उजड़ते हुए. कभी बन पड़ा तो कपड़े और कुछ ज़रूरत की चीजें डोनेट भी कीं. असम में रहते हुए मैं बाढ़ में चली हूं. हम मिडिल क्लास लोग हैं. इसलिए हर बार बच निकलते हैं. लेकिन कई लोग पूरी तरह बर्बाद हो जाते हैं.
इस बार घर से दिल्ली आते हुए देखा, जो कच्ची सड़क हमारे घर को गुवाहाटी शहर से जोड़ती है, वो पूरी गायब हो चुकी थी. हमने टैक्सी बुक की. रास्ते से जाते हुए देखा, पानी इतना भर आया था कि औरत अपने ही घर में जाल डालकर मछली पकड़ रही थी.
ये एक बार की बात नहीं. हर साल असम में बाढ़ आती है. बांध ब्रह्मपुत्र का बहाव नहीं झेल पाते. नदियां बौखला जाती हैं. हमारे यहां एक पगलादिया नाम की नदी है. अपना नाम उसने अपने पागलपन से पाया है. जब पागल होती है, गांव के गांव खा जाती है. हमारी गांव की पुश्तैनी जमीन बिक गई. क्योंकि हर बार बाढ़ जमीन को बर्बाद कर देती थी.
आप असम के बारे में सुनें. उसे देखें, जानें, अगर और कुछ नहीं कर सकते. असम के लोग कमसकम इतना अधिकार तो रखते ही हैं.