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‘हुंदे असले दे नालों वध डेंजर चमार’

क्या खास है पंजाबी दलितों में और कैसे देश के दूसरे सूबों के दलितों से एक अलग पहचान रखते हैं ये लोग?

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रजत सैन
9 अगस्त 2016 (Updated: 10 अगस्त 2016, 06:24 AM IST) कॉमेंट्स
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जित्थे हुंदी है पाबंदी हथियार दी नी, ओथे जट फायर करदै
(जहां हथियार ले जाने की भी पाबंदी होती है, वहां जट्ट फायर करता है), ये लाइन एक पंजाबी गाने की है, जिसे दिलजीत दोसांज ने गाया है. बड़ा मशहूर गाना है लेकिन दिक्कत ये है कि जट्ट कौम को ग्लोरिफाई किया गया है. बल्कि कानून तोड़ने को गर्व की तरह बताया गया है.

पंजाब में सारा सम्मान और गर्व जट्ट सिखों के हिस्से ही ज्यादा आया. वो जट्ट जो आर्थिक तौर पर मजबूत हैं. किसी से डरते नहीं. और जिनके लिए गलियों में कहा जाता है कि उनके जिगरे में बहुत जान है. ये सिर्फ एक गाने की बात नहीं है. पॉपुलर पंजाबी गाने उठा कर देख लीजिए, आधों में जट्टों को ग्लोरिफाई किया गया है. सिर्फ दिलजीत नहीं, सारे पॉपुलर सिंगर ऐसे गाने गाते हैं. बब्बू मान, जैज़ी बी, गिप्पी ग्रेवाल भी.  कोई बाहर वाला सुने, तो लगे कि पंजाब जट्टों से ही भरा है और पूरा सूबा यही लोग चला रहे हैं.

https://www.youtube.com/watch?v=SCBhB1ZNgm8

लेकिन असल में ऐसा बिल्कुल नहीं है. जट्टों के प्रभुत्व को यहां वो तबका टक्कर दे रहा है, जो सबसे निचले सामाजिक पायदान पर है. ये हैं दलित, जिनकी आबादी पंजाब में करीब 32 फीसदी है. इसमें किसी जाति के लिए नफरत नहीं है, बस अपनी दलित पहचान के लिए गर्व है.  इसकी सबसे बड़ी मिसाल हैं 17 साल की गुरकंवल भारती. रविदासिया काम्युनिटी से हैं. 12वीं के एग्ज़ाम में 77 परसेंट मार्क्स लेकर आईं. लेकिन इनकी उपलब्धि ये नहीं है. उपलब्धि है 'डेंजर 2' गाना. इस गाने की मेन लाइन है, 'हुंदे असले तो नालों वध डेंजर चमार.' यानी 'असलहे से भी ज्यादा खतरनाक होते हैं चमार.' पंजाब में इसे एक पैरलल प्रतिरोध की तरह भी देखा जाना चाहिए. अच्छा है कि दलित पहचान के साथ नत्थी शर्म अब टूट रही है. गुरकंवल दो एल्बम रिलीज़ कर चुकी हैं. गाने गाते हुए गुरकंवल भारती अब 'गिन्नी माही' बन गई हैं.

https://www.youtube.com/watch?v=Gc4wh3YczJw

इस पंजाबी गाने की कुछ लाइनों का हिंदी ट्रांसलेशन:

हमेशा बेखबर और बेफिक्र रहते हैं

सतगुरू रविदास इनकी रक्षा करते हैं

कुर्बानी देने से डरते नहीं हैं और हमेशा तैयार रहते हैं

असलहे से भी ज़्यादा खतरनाक हैं चमार. 

अपने समाज में एक खास पहचान रखती हैं माही. जालंधर की रहने वाली हैं. इस एरिया में दलितों की आबादी काफी है. वो अब स्टेज शो भी करती हैं, फेसबुक पर हज़ारों फॉलोअर भी हो चुके हैं. अपने गानों में वो बात करती हैं गुरु रविदास की, अम्बेडकर की और अपनी कम्युनिटी की. ऊंची हेक में गाती हैं. कुछ-कुछ मिस पूजा जैसा. रिलीजियस गानों से करियर शुरू किया था, फिर दलितों में पहचान बनाई और अब टारगेट बॉलीवुड तक पहुंचने का है. कुछ दिन पहले ही अनुराग कश्यप ने इनका एक वीडियो फेसबुक पर शेयर किया.


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अनुराग कश्यप का गिन्नी माही का वीडियो शेयर किया हुआ स्क्रीन शॉट

गिन्नी माही जैसे और भी कई नौजवान हैं पंजाबी दलितों में जो अपने आप को दलित कहलवाने में प्राउड फील करते हैं. 2010 में भी एक ऐसी ही एलबम आई थी. ‘पुत्त चमारां दे.’ इसका गाना ‘किसे तों घट कहाउंदे नहीं, मुंडे चमारा दे’ (किसी से कम नहीं कहलाते चमारों के लड़के) भी खूब फेमस हुआ. आखिर हो भी क्यों ना! ‘पुत्त जटां दे’ हो सका है तो ‘पुत्त चमारां दे’ में क्या कमी है.

https://www.youtube.com/watch?v=xCrjQKW3HGk बात निकलती है तो दूर तलक जाती है

ये तो हुई पॉप सिंगिंग में दलितों के वजूद की बात. पर पंजाब में उनका वजूद बाकी प्रदेशों से अलग है. आर्थिक तौर पर वे कमजोर नहीं हैं और राजनीति में भी सक्रिय हैं.


1. 2011 की जनसंख्या के मुताबिक पंजाब में 31.94 फीसदी पॉपुलेशन दलितों की है. जो भारत के किसी भी सूबे से कहीं ज़्यादा है. पूरे भारत में 16 फीसदी पॉपुलेशन दलितों की है.

2. दलितों के भगवान गुरु रविदास मूल रूप से उत्तर प्रदेश से थे, लेकिन उनके वचन/बाणी सिखों की धार्मिक किताब आदिग्रंथ में भी शामिल हैं. इसी वजह से दलित पंजाब और सिख धर्म से खुद को अच्छे से जोड़ पाते हैं. बहुत सारे पंजाबी दलित पगड़ी धारण करते हैं. पंजाब में रविदासियों के गुरुद्वारे कई जगहों पर अलग हैं, लेकिन हालात यूपी और बिहार के मुकाबले बेहतर हैं.  

3. पंजाब को तीन हिस्सों में बांट कर देखा जाता है. दोआबा, मालवा और माझा. इन तीन हिस्सों को बांटती हैं नदियां. दलित समाज मुख्यत: दोआबा और मालवा बेल्ट में हैं. दोआबा के दलित ज़्यादातर पैसे वाले हैं. यहां लगभग सभी कारोबारी हैं या फिर विदेश में सेटल हो चुके हैं. मालवा बेल्ट में मज़दूरी करने वाले गरीब दलित ज़्यादा हैं.

पंजाब का मैप
पंजाब का मैप

जान लो पंजाब की दलित पॉलिटिक्स 

पंजाब के राजनीतिक इतिहास में साल 2012 में पहली बार हुआ कि पिछली रूलिंग पार्टी को दोबारा सत्ता हासिल हुई. और इस बदलाव का मुख्य कारण दलित वोट ही था. चुनाव से ठीक पहले शिरोमणि अकाली दल (SAD) ने एक ऐसा दांव खेला, जिस से दलित वोट का झुकाव उनकी तरफ हो गया. वो दांव था, आटा-दाल स्कीम को और बढ़ावा देना. SAD ने 2007 में सत्ता हासिल करते ही आटा-दाल स्कीम लागू की. इस स्कीम के तहत राज्य में 30 हजार रुपये से कम सालाना आमदनी वालों को आटा 1 रुपए और दाल 20 रुपए प्रति किलो के हिसाब से दी गई. चुनाव 2012 में थे. अकाली दल ने सालाना कमाई की लिमिट 30 हजार से बढ़ाकर 60 हजार कर दी. उस वक्त राजनीतिक दिग्गजों को भी अंदाज़ा नहीं था कि ये कदम अकाली दल को फिर से सत्ता में लाकर इतिहास रच देगा.


कांशीराम पंजाब से थे. वो कांशीराम, जिन्होंने सिविल सर्विसिज़ की तैयारी कर रही 21 साल की मायावती को राजनीति में लाकर दलितों की इतनी बड़ी पार्टी खड़ी कर दी. लेकिन पार्टी का वर्चस्व उत्तर प्रदेश से बाहर ना फैल सका. हालांकि पंजाब में होने वाले हर विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी (BSP) भी चुनाव लड़ती है. लेकिन साल दर साल इस पार्टी की छाप पंजाबी दलितों के दिलों से भी फीकी पड़ती गई. अब तक BSP ने सबसे अच्छा साल 1992 में किया जब उन्हें 16.32% वोट शेयर मिले. कुल 117 सीटों में से 9 सीटें आई थीं. इसके बाद से पार्टी की परफॉर्मेंस पंजाब में लगातार गिरती रही और साल 2012 के चुनावों में पार्टी को सिर्फ 4.29% वोट ही मिला. BSP को पंजाब में एक चेहरे की कमी खल रही है. एक चेहरा, जो पार्टी और दलित समाज की पहचान बन सके. अपने लोगों के बारे में बात कर सके. लेकिन यहां पर BSP बरसाती मेंढकों की तरह ही है. चुनाव आने लगते हैं, तो मायावती जी एक-दो रैली कर जाती हैं. और बस फिर छुट्टी.

Mayawati, Kanshi Ram (News Profile)
कांशी राम और मायावती

पंजाब में बसपा का कमज़ोर होना हमेशा कांग्रेस के फेवर में रहा है. जिसका मतलब है कि बसपा अगर अच्छा परफॉर्म करेगी तो कांग्रेस के वोट कटेंगे और अंतत: फायदा अकाली दल को ही मिलेगा. इसलिए आरोप भी लगते हैं कि पंजाब में मायावती और बादलों के बीच साठ-गांठ है. दोआबा बेल्ट, जिसे दलित हार्ट लैंड भी कहा जाता है, वो बसपा के पक्के वफादार हैं. बचा मालवा का दलित. इनमें ज्यादातर गरीब मजदूर हैं. जो पार्टी इनसे रोटी, कपड़ा और रोज़गार का वादा करती है, इनका वोट उसी की गुल्लक में जा गिरता है.


क्या है 2017 को होने वाले विधानसभा चुनाव में खास?

लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव में एक अलग हड़बड़ी है. ये हड़बड़ी मचाई है आम आदमी पार्टी (AAP) ने. अब से पहले केवल दो ही पार्टियां सत्ता की रेस में शामिल होती थीं. करप्शन, ड्रग्स तस्करी, एंटी इन्कम्बेंसी और गुंडागर्दी के चलते लोग अकालीद ल से ऊब चुके हैं. बचती हैं कांग्रेस और AAP.


हफपोस्ट-सीवोटर सर्वे की मानें, तो पंजाब में इस बार AAP 117 में से 94-100 सीटें लाकर सरकार बना सकती है. ये सर्वे अगर सच साबित होता है तो इसका सीधा मतलब होगा कि दलित वोटों का बड़ा हिस्सा इस बार AAP को वोट देगा. क्योंकि कई विधानसभा सीटों में 25-35 फीसदी वोट शेयर दलितों का है. और फिल्लौर जैसी कुछ सीटें ऐसी भी हैं, जहां 60-70 फीसदी दलित वोट हैं. 

केजरीवाल हाल के समय दलित मसलों पर कुछ ज्यादा सक्रिय हुए हैं. रोहित वेमुला से लेकर गुजरात में दलितों के साथ हुई मारपीट तक. वो जानते हैं कि उनकी पार्टी का वोट बैंक मिडल क्लास, गरीब और पिछड़ा वर्ग है. 2013 में जब AAP ने दिल्ली में पहली बार विधानसभा चुनाव लड़ा, तब भी 12 आरक्षित सीटों में से 8 जीती थीं. केजरीवाल जानते हैं कि पंजाब फतह के लिए दलितों का समर्थन पाना सबसे जरूरी है. इसीलिए वो जालंधर के पास दलितों के डेरा सचखंड बलां पर भी माथा टेक कर आए. इसके बाद दोआबा रीजन के जालंधर, नवां शहर और होशियारपुर के दलितों से जाकर पर्सनली मिले. मालवा बेल्ट का गरीब दलित उनके साथ आ सकता है, लेकिन दोआबा के दलित को अपनी तरफ खींचना जरा मुश्किल है.

कांशीराम की जयंती पर उनके परिवार ने अरविंद केजरीवाल को उनके गांव पिर्थीपुर बंगा आने का न्योता दिया. केजरीवाल गए और वहां रैली भी की. जन सैलाब उमड़ा. रैली मायावती ने भी की. लेकिन कांशीराम के गांव से 30 किलोमीटर दूर.


कांशी राम की बहन स्वर्न कौर के साथ AAP नेता
कांशी राम की बहन स्वर्न कौर के साथ AAP नेता

पंजाब के बड़े दलित चेहरे कौन हैं?

दलित लीडरों में ही एक बड़ा नाम है गायक हंसराज हंस का. वाल्मीकि समाज से आते हैं. पार्टियां इन्हें अपने मतलब के हिसाब से यूज़ करती रही और ये पार्टी को. शिरोमणि अकाली दल से पिछली बार चुनाव लड़ा, लेकिन हार गए. कैप्टन अमरिंदर ने वादा किया कि अगर वो कांग्रेस में शामिल हो जाते हैं तो उन्हें राज्यसभा सांसद बनाया जाएगा. हंस ने कांग्रेस ज्वाइन भी कर ली. लेकिन किस्मत ने फिर करवट ली और उनकी जगह शमशेर सिंह दुलो को राज्यसभा भेज दिया गया. हंसराज हंस को एक दलित चेहरा होने के कारण ही पंजाब राजनीति में तवज्जो मिलती रही. दलित होने के कारण ही चरणजीत सिंह चन्नी को कांग्रेस के विधानसभा दल का लीडर बनाया गया. दलित कार्ड खेलने में अकाली दल भी पीछे नहीं रही. फिल्लौर के बसपा लीडर बलदेव खैरां को अपनी पार्टी में शामिल कर लिया, ताकि दलित समाज उसे अपना सके. AAP के पास पंजाब में कोई बड़ा दलित चेहरा नहीं है. हरिंदर सिंह खालसा हो सकते थे, लेकिन बगावत के बाद पार्टी ने उन्हें निकाल दिया.


खैर 2017 में पंजाब की सत्ता किसके हाथ आती है, लाजिम है हम देखेंगे. लेकिन असली हीरो है 17 साल की गिन्नी माही. दलित अगर अपनी पहचान से शर्म निकाल फेंकें तो यह वर्ण व्यवस्था के पैरोकारों के मुंह पर तमाचा होगा. अच्छा तो ये हो कि हम आने वाले समय में ऐसा समाज बना सकें, जहां किसी भी तरह के जातीय दंभ के लिए जगह न हो. लेकिन जातीय श्रेष्ठता के खिलाफ प्रतिरोध अगर इस तरह भी शुरू होता है तो बांहें खोलकर इसका स्वागत किया जाए.

गुरदास मान का एक गाना याद आता है. 'रोटी हक दी खइए जी, पांवें बूट पालिशां करिए.'

https://www.youtube.com/watch?v=vDRijlkhzfI

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