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गांधी के चंपारण सत्याग्रह के 102 साल, पर हीरो कोई और भी था

ऐसे रची गई थी निलहों से मुक्ति की कहानी.

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11 अप्रैल 2019 (Updated: 11 अप्रैल 2019, 05:30 AM IST) कॉमेंट्स
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बिहार के चंपारण सत्याग्रह को आज एक सौ दो साल पूरे हो गए. यह सत्याग्रह जितना चंपारण के किसानों के लिए महत्वपूर्ण था, उतना ही अहम महत्मा गांधी के लिए भी था. इसका कारण ये था कि इससे पहले महात्मा गांधी को आंदोलन के लिए इतना बड़ा प्लेटफॉर्म नहीं मिला था. चंपारण सत्याग्रह के सौ साल पर एक रिपोर्ट लिखी थी. डॉ. अशोक प्रियदर्शी ने. आज दो साल बाद वही पेश-ए-नज़र: ऐसे रची गई थी निलहों से मुक्ति की कहानी बात 167 साल पुरानी है. 1850 के आसपास नील से अधिक नफा होने के चलते गन्ने की खेती कम कर दी गई. जीरात और असामीवार तरीके से नील की खेती कराई जाने लगी. निलहों की दखल में जो जमीन थी, इसमें वे अपने हल बैल की सहायता से नील की खेती करते थे. वह या तो मालिक की जीरात की जमीन होती थी या फिर उसमें काश्तकारी के हक प्राप्त होते थे. लेकिन निलहें जब चाहें, रैयतों से मजदूरी करा लिया करते थे और बदले में उन्हें बहुत कम पैसे दिया करते थे. दूसरा तरीका था असामीवार. इसमें रैयतों द्वारा नील पैदा किया जाता था. इसके कई प्रकार थे. लेकिन ‘तीन कठिया’ प्रथा काफी प्रचलित थी. इस प्रथा में निलहे रैयतों से प्रति बीघा तीन कट्ठा नील की खेती कराते थे. यह व्यवसायिक फसल थी लेकिन किसान इसे इसलिए नहीं करना चाहते थे क्योंकि इसका मुनाफा निलहे उठा लिया करते थे. परेशानी रैयतों को होती थी. ऐसे मामले की सुनवाई के लिए एक विशेष अदालत थी लेकिन इसमें ज्यादातर फैसला रैयतों के विरूद्ध हुआ करता था.
कालांतर में जर्मनी में कृत्रिम नील का उत्पादन किया जाने लगा. लिहाजा, इसका उत्पादन भारत में कम हो गया. तब निलहे किसानों से लगान के अतिरिक्त 46 तरह का टैक्स वसूलने लगे. किसानों से टैक्स का ही दूसरा नाम अबवाब है. अबवाब लेना गैर कानूनी था. लेकिन चंपारण के निलहे इसकी परवाह नहीं करते थे.
निलहों से मुक्ति के लिए रैयतों में छटपटाहट थी. तभी पश्चिम चंपारण के सतवरिया निवासी पंडित राजकुमार शुक्ल की मेहनत रंग लाई. शुक्ल को हथुआ राज में नौकरी मिली थी. एक दिन शुक्लजी की डयूटी चीनी मिल के लिए आए गन्ने को बैलगाड़ियों से उतरवाने और वजन कराने के लिए लगी. रैयतों के प्रति सहानुभूति दिखाने के कारण एक अंग्रेज मुलाजिम ने एक मोटा गन्ना उनके पेट में घुसेड़ दिया. प्रतिक्रिया में शुक्ल ने उसकी धुनाई कर दी. फिर भागकर गांव चले आए. लेकिन शुक्लजी गन्ने की चोट से उबर नहीं पाए. वह निलहों के विरूद्ध गोलबंदी करने में जुट गए. वे अपनी जेब से पैसा खर्च कर थाना और कोर्ट में रैयतों की मदद किया करते थे. इनके अभियान से प्रभावित होकर मोतिहारी के वकील गोरख प्रसाद, धरणीधर प्रसाद, कचहरी का कातिब पीर मोहम्मद मुनिस, संत राउत, शीतल राय और शेख गुलाब जैसे लोग हमदर्द बन गए. वह कानपुर गए. और ‘प्रताप’ के संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी को किसानों का दुखड़ा सुनाया. विद्यार्थीजी ने 4 जनवरी 1915 को प्रताप में ‘चंपारण में अंधेरा’ नाम से एक लेख प्रकाशित किया. विद्यार्थीजी ने शुक्लजी को गांधीजी से मिलने की सलाह दी. तब शुक्लजी साबरमती आश्रम गए लेकिन गांधीजी पुणे गए हुए थे. इसलिए उन दोनों की मुलाकात नहीं हो पाई. gandhiji शुक्ल ने आस नहीं छोड़ी. लखनऊ में 26 से 30 दिसंबर 1916 तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का 31वां वार्षिक अधिवेशन था. बिहार से बड़ी संख्या में लोग शामिल हुए थे. इसमें चंपारण के निलहों से उत्पीड़ित रैयतों के प्रतिनिधि के रूप में हरिवंश सहाय, गोरख प्रसाद, ब्रजकिशोर प्रसाद, रामदयाल प्रसाद साहू, पीर मोहम्मद मुनिस और पंडित राजकुमार शुक्ल भी थे. अधिवेशन में पंडित राजकुमार शुक्ल गांधीजी के चरणों में लोट गए और कहा -‘निलहों के जुल्म से चंपारण के रैयतों को बचाइए. चंपारण चल कर रैयतों की दशा अपनी आंखों से देखिए.’ लेकिन गांधीजी चंपारण की दुर्दशा से अनभिज्ञ थे. लिहाजा, ब्रजकिशोर प्रसाद के माध्यम से उन्हें जानकारी हुई. अधिवेशन में चंपारण से संबंधित प्रस्ताव पारित हुआ. शुक्लजी को प्रसन्नता हुई लेकिन इतने से उन्हें संतोष नहीं था. उन्होंने गांधीजी से आग्रह किया कि वे स्वयं चंपारण चलकर रैयतों की दशा अपनी आंखों से देख लें. अधिवेशन के बाद गांधीजी कानपुर और अहमदाबाद गए तब भी शुक्लजी साथ रहे. चंपारण यात्रा की तिथि निश्चित करने का गांधीजी से अनुरोध किया. इस पर गांधीजी ने चंपारण आने के वचन को दुहराया. गांधीजी ने अपनी ‘आत्मकथा’ में लिखा भी - ‘राजकुमार शुक्ल बिहार के हजारों लोगों पर से नील के कलंक को धो देने के लिए कृत संकल्प थे.’ राजकुमार शुक्ल ने 27 फरवरी 1917 को दुखभरा पत्र पीर मोहम्मद मुनिस से लिखवाकर गांधीजी को भेजा. इस पत्र का प्रभाव गांधीजी पर इतना अधिक पड़ा कि चंपारण जाने का कार्यक्रम बना लिया. 7 मार्च 1917 को कोलकाता जाने के कार्यक्रम के बारे में शुक्लजी को पत्र लिखा लेकिन यह पत्र शुक्लजी को नहीं मिला. उसके बाद गांधीजी ने एक तार किया. तब शुक्ल कोलकाता गए. उसके बाद 9 अप्रैल 1917 को शुक्लजी के साथ गांधीजी मोतिहारी के लिए चल पड़े. गांधीजी ने चलते समय कहा कि-‘अनपढ़ निश्चयमान किसान ने मुझे जीत लिया.’Champaran-Satyagraha महात्मा गांधी मुजफ्फपुर पधारे. तब कृपलानी स्थानीय कॉलेज में प्राध्यापक थे. कृपलानी ने विद्यार्थियों के साथ गांधीजी का स्वागत किया. फिर मुजफ्फरपुर के नागरिकों तथा वकीलों ने गांधीजी को रैयतों की कहानी से अवगत कराया. गांधीजी ने नीलवर संघ के सचिव जेएम विल्सन से मुलाकात की और फिर कमिश्नर एलएफ मौर्शेड से भी मिले. लेकिन अधिकारियों ने गांधीजी के काम में दिलचस्पी नहीं दिखाई.
उसके बाद गांधीजी ने मोतिहारी प्रस्थान करने का निर्णय लिया. दरभंगा के प्रसिद्ध वकील ब्रजकिशोर प्रसाद आए और एक कार्यक्रम तय हुआ. रामनवमी प्रसाद, धरणीधर जो उस समय दरभंगा के वकील थे, महात्माजी के साथ जाने के लिए चुने गए. गांधीजी 15 अप्रैल 1917 मोतिहारी पहुंचे. उनके पहुंचते ही लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा. प्रत्येक व्यक्ति अपनी आपबीती सुनाने लगा. तभी गांधीजी को पता चला कि जसौलीपट्टी गांव में एक संपन्न किसान पर निलहों द्वारा अत्याचार किया गया है. गांधीजी ने अगले ही दिन जसौलीपट्टी जाने का निश्चय किया. दोपहर में चण्डहिया गांव पहुंचे. तभी गांधीजी को एक दरोगा ने सूचना दी कि जिलाधीश उनसे मिलना चाहते हैं. लिहाजा, गांधीजी दरोगाजी के साथ एक बैलगाड़ी पर सवार होकर नगर की ओर लौट गए. महात्मा गांधी ने जब आधी दूरी तय कर ली तब उन्हें पुलिस का एक उच्चाधिकारी मिला, जो धारा 144 की नोटिस के साथ था.
इस नोटिस में गांधीजी को अविलंब मोतिहारी छोड़ने का आदेश दिया गया था. गांधीजी ने इस नोटिस को अनदेखा कर दिया. तीसरे दिन गांधीजी पर आज्ञा उल्लंघन के मुकदमे की सुनवाई शुरू हो गई. गांधीजी ने आरोप को स्वीकार कर लिया. जिलाधीश ने गांधीजी को एक दिन के लिए अपना कार्य स्थगित करने की राय दी ताकि वह सरकार से समुचित परामर्श ले सकें. गांधीजी ने उनका विचार मान लिया. पहले और दूसरे दिन में पटना से ब्रजकिशोर प्रसाद, राजेन्द्र प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिंह, मजहरूल हक, मिस्टर पोलक, मिस्टर एंडूज आदि पहुंचे थे. सभी ने मिलकर एक योजना बनाई कि सरकार इस विषय में सख्ती दिखाए तो क्या करना चाहिए. तीसरे दिन सरकार से सूचना मिली कि गांधीजी पर से धारा 144 हटा ली गई है. उच्चाधिकारियों को आदेश मिला कि वे उनकी पूरी सहायता करें. गांधी जी की यह पहली विजय थी.
मोतिहारी के बाद गांधीजी बेतिया गए. रैयतों का बयान लेना जारी रहा. लेकिन निलहों में खलबली थी. इसलिए गांधीजी को भगाने के हर कुचक्र रचे जा रहे थे. निलहे अखबारों में भी मनगढ़ंत खबरें प्रकाशित करवाने लगे. लेकिन कुछ दिनों बाद बिहार राज्य के गवर्नर गेट महोदय ने गांधीजी को कुछ निलहों के प्रतिनिधियों के साथ रांची में बुलवाया. उसके बाद जांच कमिटी गठित की गई. इसमें गांधीजी भी सदस्य बनाए गए. यह महात्मा गांधी की दूसरी विजय थी. जांच कमिटी के सदस्यों में कोई एक मत नहीं था. निलहों के प्रतिनिधियों में असंतोष था. लेकिन बहुमत के आधार पर सरकार ने 4 मार्च 1918 में चंपारण अधिनियम पास किया. लिहाजा, ‘तीन कठिया प्रथा’ समाप्त कर दी गई. निलहों ने मालगुजारी के रूप में जो भी अधिक वसूला था उन्हें उसे लौटाना पड़ा. रैयतों का लगान घटा दिया गया. अबवाब अवैध घोषित हुआ. उसके लिए दंड का विधान बना. निलहों को धीरे धीरे चंपारण सदा के लिए छोड़ना पड़ा. तब रैयत राहत की सांस लेने लगे. भारत में महात्मा गांधी के सत्य और अहिंसा की यह पहली विजय थी.
वो पत्र जो पंडित राजकुमार शुक्ल ने गांधीजी को चंपारण आने के लिए भेजा था: मान्यवर महात्मा,                             दिनांक-27 फरवरी 1917 किस्सा सुनते हो रोज औरों के, आज मेरी भी दास्तान सुनो. आपने उस अनहोनी को प्रत्यक्ष कर कार्य रूप में परिणत कर दिखलाया, जिसे टॉलस्टॉय जैसे महात्मा केवल विचार करते थे. इसी आशा और विश्वास के वशीभूत होकर हम आपके निकट अपनी राम कहानी सुनाने के लिए तैयार हैं. हमारी दुख भरी कथा दक्षिण अफ्रीका में हुए अत्याचार से , जो आप और आपके अनुयायी वीर सत्याग्रही बहनों और भाइयों के साथ हुआ, कहीं अधिक है. हम अपना वो दुख, जो हमारी 19 लाख आत्माओं के हृदय पर बीत रहा है, सुनाकर आपके कोमल हृदय को दुखित करना उचित नहीं समझते. बस, केवल इतनी ही प्रार्थना है कि आप स्वयं आकर अपनी आंखों से देख लीजिए, तब आपको अच्छी तरह विश्वास हो जाएगा कि भारतवर्ष के एक कोने में यहां की प्रजा, जिसको ब्रिटिश छत्र की सुशीतल छाया में रहने का अभिमान प्राप्त है, किस प्रकार के कष्ट सहकर पशुवत जीवन व्यतीत कर रहा है. हम और अधिक न लिखकर आपका ध्यान उस प्रतिज्ञा की ओर आकृष्ट कराना चाहते हैं, जो लखनऊ-कांग्रेस के समय और फिर वहां से लौटते समय कानपुर में आपने की थी, अर्थात, ‘ मैं मार्च-अप्रैल महीने में चंपारण आऊंगा.' बस अब समय आ गया है श्रीमान, अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करें. चंपारण की 19 लाख दुखी प्रजा श्रीमान के चरण कमल के दर्शन के लिए टकटकी लगाए बैठी है. और, उन्हें आशा ही नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास है कि जिस प्रकार भगवान श्रीरामचंद्रजी के चरण स्पर्श से अहल्या तर गई, उसी प्रकार श्रीमान के चंपारण में पैर रखते ही हम 19 लाख प्रजाओं का उद्धार हो जाएगा. श्रीमान का दर्शनाभिलाषी राजकुमार शुक्ल

ये स्टोरी डॉ. अशोक प्रियदर्शी ने 11 अप्रैल, 2017 को लिखी थी जिसे 11 अप्रैल, 2019 को अपडेट किया गया.


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