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वो घटना, जिसने ठीक 23 साल पहले ममता बनर्जी को कांग्रेस से बाहर करवा दिया था?

सोनिया की ममता के प्रति गर्मजोशी क्या सिर्फ दिखाने के लिए थी?

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ममता बनर्जी ने कोलकाता में कांग्रेस अधिवेशन के समानांतर रैली करके चुनौती दे डाली थी.
22 दिसंबर 2020 (Updated: 22 दिसंबर 2020, 13:31 IST)
Updated: 22 दिसंबर 2020 13:31 IST
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तारीख थी 2 जनवरी 1985. उस दिन कोलकाता से जुड़ी दो खबरें सुर्खियां बना रही थीं. एक रेडियो के माध्यम से आ रही थी जबकि दूसरी अखबारों के माध्यम से.

उस दिन के अखबारों में एक दिन पहले खत्म हुई आठवीं लोकसभा की मतगणना की खबरें थीं जबकि रेडियो पर इंडिया वर्सेज इंग्लैंड के कोलकाता टैस्ट मैच के तीसरे दिन की रनिंग कमेंट्री चल रही थी.

रेडियो की कमेंट्री टीम लगातार बता रही थी कि अपने पहले ही मैच में 22 साल के एक स्टाइलिश हैदराबादी लड़के ने इंग्लिश बाॅलिंग अटैक की धज्जियां उड़ाते हुए सेंचुरी जड़ी है. जबकि अखबार बता रहे थे कि 'साउथ कोलकाता की लोकसभा सीट पर कांग्रेस के टिकट पर 29 साल की एक लड़की ने दिग्गज वामपंथी नेता सोमनाथ चटर्जी को पटखनी दे दी है.'

आप सोच रहे होंगे कि आखिर यह 22 साल का क्रिकेटर और 29 साल की लड़की कौन थी, जिसने उस दिन राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बटोरी थीं? तो चलिए इनके बारे में बताते हैं.

22 साल के उस क्रिकेटर का नाम था मोहम्मद अजहरुद्दीन, और सोमनाथ चटर्जी को हराने वाली उस लड़की का नाम था ममता बनर्जी. ममता, जिन्होंने आगे चलकर स्ट्रीट फाइटर के रूप में अपनी पहचान बनाई. ऐसी पहचान, कि जब उनकी पार्टी ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया तो उन्होंने खुद की पार्टी खड़ी कर ली. और अपने दम पर बंगाल में साढ़े तीन दशक के कम्युनिस्ट शासन का खात्मा कर दिया.


ममता बनर्जी पिछले एक दशक से बंगाल की सत्ता में हैं.
ममता बनर्जी पिछले एक दशक से बंगाल की सत्ता में हैं.

अब लगभग 23 साल आगे चलते हैं :

दिसंबर का महीना. 1997 का साल. उस समय भारतीय क्रिकेट और भारत की कांग्रेस पार्टी दोनों में काफी उथल-पुथल मची थी. सचिन तेंदुलकर की कप्तानी के खराब अनुभव ने BCCI के कर्ताधर्ताओं को मुहम्मद अजहरुद्दीन को दुबारा कप्तानी सौंपने पर मजबूर कर दिया था. लेकिन सियासत में और खासकर बंगाल कांग्रेस में जो उथल-पुथल मची थी, उसने उस समय तक बंगाल कांग्रेस की पहचान बन चुकी ममता बनर्जी को ही कांग्रेस पार्टी से रुख़सत करवा दिया.

कांग्रेस से क्यों निकाली गई थीं ममता?

सोमेन मित्रा विवाद :

कांग्रेस आलाकमान और ममता बनर्जी का विवाद 1996 में तभी से चल रहा था, जब सोमेन मित्रा को पश्चिम बंगाल प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया गया था. ममता बनर्जी तब पश्चिम बंगाल युवक कांग्रेस की अध्यक्ष हुआ करती थीं. सोमेन मित्रा के वामपंथियों के साथ मित्रभाव वाले संबंध थे, जो ममता बनर्जी को एकदम पसंद नही थे. उस दौर में ममता बनर्जी उन्हें व्यंग्यात्मक लहजे में तरबूज (जो बाहर से हरा और अंदर से लाल होता है) कहा करती थीं. लेकिन सोमेन मित्रा को कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी बहुत पसंद करते थे. इसके कुछ कारण भी थे. जून 1997 में जब कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव हुआ था, उस चुनाव में सीताराम केसरी, शरद पवार और राजेश पायलट के बीच मुकाबला था. इस चुनाव में वोट करने के लिए पश्चिम बंगाल से 416 कांग्रेसियों को डेलीगेट बनाया गया. इन 416 लोगों में ममता बनर्जी के समर्थकों की संख्या उंगलियों पर गिनने भर की थी. इससे ममता बनर्जी का बिफरना स्वाभाविक था. और जब चुनाव हुआ, तब सोमेन  मित्रा ने बंगाल के 90 फीसदी से ज्यादा डेलीगेट्स के वोट सीताराम केसरी को दिलवा दिए थे.


ममता बनर्जी और सोमेन मित्रा की लड़ाई ममता के कांग्रेस से निकाले जाने की वजह बनी.
ममता बनर्जी की सोमेन मित्रा की लड़ाई उनके कांग्रेस से निकाले जाने की वजह बनी.

अध्यक्ष बनने के बाद केसरी ने कांग्रेस का 80वां अधिवेशन बुलाने की घोषणा कर दी. इसके लिए जगह चुनी गई कोलकाता का नेताजी इंडोर स्टेडियम. और तारीख रखी गई 8, 9 और 10 अगस्त 1997. जाहिर है कि बंगाल में कांग्रेस का अधिवेशन होगा, तो उसके आयोजन की जिम्मेदारी बंगाल की प्रदेश कांग्रेस यूनिट की होगी. राजनीतिक टीकाकारों की मानें तो ममता को लगा कि इस अधिवेशन की सफलता का सारा क्रेडिट सोमेन मित्रा ले जाएंगे. उसके बाद ममता बनर्जी का कांग्रेस में कद छोटा करने का काम तेज हो जाएगा. काफी सोच-विचार के बाद ममता बनर्जी ने आनन-फानन में 21 जुलाई 1997 को कोलकाता की चौरंगी स्ट्रीट पर कांग्रेस कार्यकर्ताओं की मीटिंग का ऐलान कर दिया. उसके बाद केसरी के दूतों (जितेन्द्र प्रसाद, अहमद पटेल वगैरह) ने ममता को मनाने की कोशिशें कीं. जब उन्हें लगा कि ममता नही मानेंगी तो उनसे आग्रह किया कि 'बेहतर होगा कि इस सम्मेलन में सीताराम केसरी को भी आमंत्रित कर लिया जाए.'

लेकिन ममता तब भी नही मानीं, और अकेले दम 21 जुलाई को शक्ति प्रदर्शन किया. इस शक्ति प्रदर्शन को देखकर कहीं से नही लगा कि यह सिर्फ कार्यकताओं का सम्मेलन है, क्योंकि इसमें लाखों लोगों की भागीदारी थी. इतना ही नहीं, रैली की शक्ल में हो रहे इस सम्मेलन में आए लोगों के हाथों में केसरी विरोधी पोस्टर भी नजर आए. लोगों की इतनी भीड़ देखकर उत्साहित ममता ने 9 अगस्त को कोलकाता में बड़ी रैली करने का ऐलान कर दिया.

3 अगस्त को ममता का दूसरा बगावती तेवर :

जिस वक्त बंगाल में ये सब ड्रामा चल रहा था, उस वक्त पड़ोसी राज्य बिहार में भी उथल-पुथल मची थी. बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद पर चारा घोटाले में चार्जशीट फाइल होने को थी. इसी वजह से उन्होंने जनता दल को तोड़कर नई पार्टी (राष्ट्रीय जनता दल) गठित कर ली. जेल जाने से पहले पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री भी बना दिया. लेकिन राजद के पास इतने विधायक नही थे कि राबड़ी सरकार विधानसभा में बहुमत साबित कर सके. ऐसे में कांग्रेस आलाकमान के निर्देश पर 'भारी मन से' बिहार के कांग्रेसी विधायकों ने राबड़ी सरकार का साथ दिया, और सरकार बच गई. राजद को समर्थन से नाराज कांग्रेसियों ने जगन्नाथ मिश्र और रामलखन सिंह यादव के नेतृत्व में पटना में 3 अगस्त 1997 को एक बैठक बुलाई. बतौर चीफ गेस्ट इसमें ममता बनर्जी को आमंत्रित किया. ममता बनर्जी पटना पहुंचीं, और इस सम्मेलन में कांग्रेस नेतृत्व पर जमकर बरसीं. इसी सम्मेलन में मिश्र और रामलखन ने बिहार जन कांग्रेस नाम से एक नई पार्टी का गठन किया.


केसरी के लालू को समर्थन देने से नाराज बिहार के कांग्रेसियों के सम्मेलन में भी ममता बनर्जी ने शिरकत की थी.
केसरी के लालू को समर्थन देने से नाराज बिहार के कांग्रेसियों के सम्मेलन में भी ममता बनर्जी ने शिरकत की थी.

कांग्रेस आलाकमान के माथे पर चिंता की लकीरें :

ममता बनर्जी की हरकतों को देखकर कांग्रेस आलाकमान अब चिंतित होने लगा था. कोलकाता में अधिवेशन बुलाने को लेकर सवाल खड़े होने लगे थे. अधिवेशन को लेकर अलग-अलग फार्मूले भी सुझाए जाने लगे. किसी ने कहा कि कांग्रेस को कोई बहाना बनाकर अधिवेशन एक-डेढ़ महीने के लिए टाल देना चाहिए तो किसी ने अधिवेशन स्थल को बदलने का सुझाव दिया. उड़ीसा के मुख्यमंत्री जानकी वल्लभ पटनायक ने तो कोलकाता की जगह भुवनेश्वर में अधिवेशन बुलाने की सलाह दे डाली थी.

लेकिन केसरी अड़े रहे और अधिवेशन कोलकाता में ही हुआ.


जून 1997 के कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में सीताराम केसरी ने शरद पवार और राजेश पायलट को हराया था.
जून 1997 के कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में सीताराम केसरी ने शरद पवार और राजेश पायलट को हराया था.

क्या हुआ अधिवेशन और ममता की रैली में :

तय कार्यक्रम के मुताबिक, 8 अगस्त को देशभर से आए तकरीबन 16 हजार कांग्रेस डेलीगेट्स का कोलकाता के नेताजी इंडोर स्टेडियम में अधिवेशन शुरू हुआ. दिल्ली से एक स्पेशल ट्रेन, जिसे कांग्रेस स्पेशल का नाम दिया गया था, के जरिए सीताराम केसरी और कई कांग्रेसी नेता कोलकाता पहुंचे. सोमेन मित्रा और प्रियरंजन दास मुंशी जैसे बंगाल के बड़े कांग्रेसी नेताओं ने देशभर से आए कांग्रेसी डेलीगेट्स की आवभगत में कोई कोर-कसर नही छोड़ी. उनके मनोरंजन के लिए  हरिप्रसाद चौरसिया, पंडित जसराज और बिस्मिल्लाह खान के कार्यक्रम कराए गए.

लेकिन इन सब मनोरंजन से इतर वहां मौजूद पत्रकारों और राजनीतिक पंडितों को असली मसाला उपलब्ध करा रही थीं ममता बनर्जी. ममता ने अधिवेशन स्थल से महज 1 किलोमीटर की दूरी पर स्थित ब्रिगेड परेड ग्राउंड में लाखों लोगों की मौजूदगी में ऐलान कर दिया कि


'हमारी रैली में आनेवाले लोग ही असली ग्रासरूट कांग्रेस वर्कर (हिंदी में कहें तो तृणमूल कांग्रेसी) हैं.'

बहरहाल रैली भी खत्म हो गई और कांग्रेस का अधिवेशन भी. लेकिन इसके बाद सोमेन मित्रा और ममता बनर्जी की लड़ाई सतह पर आ गई. दोनों तरफ से होने वाली रोज़-रोज़ की बयानबाज़ी से यह साफ हो गया कि ममता बनर्जी के अब कांग्रेस पार्टी में गिनती के दिन बचे हैं.
इस दरम्यान की दो और घटनाओं पर नजर डाल लें

पहली घटना यह कि सोनिया गांधी ने कांग्रेस के मामलों में इंट्रेस्ट लेना शुरू कर दिया था. नरसिंह राव का दौर बीतने के बाद अब 10 जनपथ और 24 अकबर रोड के बीच के सर्विस लेन पर कांग्रेसियों की चहल-पहल काफी बढ़ चुकी थी.

दूसरी घटना यह हुई कि जैन कमीशन की लीक हुई रिपोर्ट और उसमें राजीव गांधी हत्याकांड में डीएमके की कथित संलिप्तता के मुद्दे पर कांग्रेस ने प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजार की लगाम खींच ली थी, जिससे मध्यावधि चुनाव की नौबत आ गई थी.
सीताराम केसरी के दौर में सोनिया गांधी कांग्रेस में सक्रिय हो रही थीं
सीताराम केसरी के दौर में सोनिया गांधी कांग्रेस में सक्रिय हो रही थीं

बदले हालात में ममता बनर्जी भी 10 जनपथ आने-जाने लगीं. उन्हें शायद यह उम्मीद थी कि सोनिया गांधी उनकी फरियाद सुनेंगी, और उनके जनाधार के सार्वजनिक प्रदर्शन की कद्र करते हुए सोमेन मित्रा की जगह बंगाल कांग्रेस की कमान उन्हें सौंप देंगी, या सौंपने का प्लाॅट तैयार करवा देंगी. सोनिया भी ममता से गर्मजोशी से मिलती थीं, लेकिन शायद सियासत में फ़ोटो खिंचवाने की गर्मजोशी और वास्तविक गर्मजोशी के बीच एक महीन रेखा होती है. और यही रेखा या तो ममता बनर्जी समझ नहीं पाईं या फिर समझते हुए भी कांग्रेस को ही यह मौका देना चाह रही थीं कि पार्टी कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई करे.

और अंततः अनुशासनात्मक कार्रवाई का दिन आ ही गया.  22 दिसंबर की दोपहर जब एक कांग्रेसी कार्यकर्ता ममता बनर्जी से बातचीत के क्रम में यह आशंका व्यक्त कर रहा था कि 'शायद पार्टी आप पर कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई करेगी.' अभी उस कार्यकर्ता से ममता बनर्जी की बातचीत चल ही रही थी, तभी टीवी पर खबर फ्लैश होने लगी,


"ममता बनर्जी कांग्रेस से 6 साल के लिए निष्कासित'.

लेकिन इस खबर के बाद ममता बनर्जी पर कोई विशेष असर नही पड़ा. 10 दिन बाद 1 जनवरी 1998 को उन्होंने तृणमूल कांग्रेस का गठन किया. इसके कुछ ही दिनों बाद से ममता बनर्जी समता पार्टी के अध्यक्ष जार्ज फर्नांडीस के दिल्ली स्थित सरकारी आवास (3 कृष्णा मेनन मार्ग) पर अक्सर आती-जाती नजर आने लगीं. जब फरवरी में लोकसभा चुनाव होने लगे, तब ममता भी समता के रास्ते जाती दिखीं. अब उनका गठबंधन भारतीय जनता पार्टी के साथ हो चुका था.
जार्ज फर्नांडीस ममता बनर्जी को भाजपा गठबंधन में लेकर आए.
जार्ज फर्नांडीस ममता बनर्जी को भाजपा गठबंधन में लेकर आए.

सोनिया गांधी ने ममता के निष्कासन वाले फैसले पर वीटो क्यों नही लगाया!

इस सवाल का जवाब जानने के लिए सोनिया गांधी की राजनीतिक लाइन को समझना जरूरी है. मार्च 1998 में सोनिया ने कांग्रेस अध्यक्ष की जिम्मेदारी संभाली. बतौर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने राजीव गांधी की आधुनिक राजनीति की जगह इंदिरा गांधी के सोशलिस्ट एप्रोच को अपनाना शुरू किया. उनके आसपास कांग्रेस के लिबरल लेफ्ट धारा के लोगों का घेरा कसना शुरू हो गया, जिनमें मणिशंकर अय्यर, ए के एंटनी, प्रियरंजन दास मुंशी इत्यादि थे.

वैसे किसी को भी इस बात का भ्रम नहीं होना चाहिए कि सरकार बनाने के मौके पर सोनिया ने उदारीकरण के पैरोकार मनमोहन सिंह का नाम बतौर प्रधानमंत्री आगे बढ़ाया था, इसलिए वे नए दौर की सियासत की पैरोकारी कर रही थीं. सोनिया गांधी की सियासत को समझने के लिए सबसे पहले उनकी कोटरी (विश्वस्त लोगों की टोली) और उनके द्वारा किए गए चुनावी गठबंधनों को समझना होगा. उनके दौर में कांग्रेस की नजदीकियां लेफ्ट और डीएमके से काफ़ी बढ़ी. इंदिरा गांधी के भी वामपंथी दलों और डीएमके के साथ सहज संबंध हुआ करते थे. 2004 में यूपीए सरकार बनने पर गठित की गई नेशनल एडवाइजरी कमेटी, जिसे सुपर कैबिनेट कहा जाता था, लेफ्ट रुझान के लोगों से भरी पड़ी थी. यूपीए-1 सरकार के सारे कामकाज भी किसी समाजवादी सरकार से ज्यादा समाजवादी लग रहे थे, जैसे मनरेगा, लोन माफ़ी, छठा वेतन आयोग इत्यादि.

इन सबको देखने से स्पष्ट हो जाता है कि जब लेफ्ट बनाम ममता बनर्जी की बात सामने आती तो शायद सोनिया गांधी का झुकाव वाम दलों और वाम दलों के साथ सहानुभूति रखने वालो के साथ ही होता. इसलिए व्यक्तिगत आचार-व्यवहार की गर्मजोशी भी ममता बनर्जी को कांग्रेस पार्टी से रुख़सत करवाने से रोक नही पाई.
लेकिन ममता का निष्कासन सोनिया गांधी के अध्यक्ष बनने के 3 महीने पहले ही हो जाना सोनिया गांधी के भविष्य की सियासत के लिए भी मुफ़ीद था. तभी तो जब (2009 में) लेफ्ट और कांग्रेस में दूरी बनी, तब ममता कांग्रेस की बगलगीर नजर आईं. सोनिया खुद अक्सर ऐसे कड़े फैसले करने से बचती रहीं. याद करिए जब 1999 में शरद पवार, संगमा और तारिक़ अनवर ने उनके विदेशी मूल का सवाल उठाया था, तब भी स्वयं सोनिया गांधी ने उनके निष्कासन का फैसला नही किया था. वे नाराज होकर घर में बैठ गई थीं. तब प्रणव मुखर्जी की अध्यक्षता में हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में तीनों नेताओं को निष्कासित करने का फैसला हुआ था. आज के दौर में भी, जब 23 कांग्रेसी नेताओं (G23) ने पार्टी के कामकाज पर चिठ्ठी लिखी है, तब भी सोनिया गांधी कोई कड़े कदम उठाने से बचती दिख रही हैं.

अब वापस ममता बनर्जी पर लौटते हैं :

ममता बनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस बनाने के बाद कभी भाजपा तो कभी कांग्रेस के साथ गठबंधन कर अपनी सियासत को आगे बढ़ाया. 2011 में राइटर्स बिल्डिंग में राज करने का अपना सपना भी पूरा कर लिया. तब से लेकर आज तक वे पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री पद पर काबिज हैं. अब से 4 महीने बाद एकबार फिर विधानसभा चुनाव में अपनी ताकत दिखाने की तैयारी में हैं. मजेदार बात यह है कि जिन सोमेन मित्रा के कारण ममता बनर्जी ने कांग्रेस छोड़ी थी, वही सोमेन मित्रा बाद के दौर में तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए थे. यही सियासत है, और ऐसे ही सियासत की गाड़ी अपनी रफ्तार से चलती रहती है.


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