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एक राज्य में एक साथ 2 लोग मुख्यमंत्री क्यों बने हुए थे?

आज से 23 साल पहले यूपी की सत्ता में हुए सबसे बड़े परिवर्तन की कहानी...

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1998 में एक विचित्र हालात में जगदंबिका पाल और कल्याण सिंह - दोनों उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर आसीन थे.
22 फ़रवरी 2021 (Updated: 22 फ़रवरी 2021, 09:00 IST)
Updated: 22 फ़रवरी 2021 09:00 IST
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क्या किसी राज्य में एक साथ 2 मुख्यमंत्री हो सकते हैं? जाहिर सी बात है कि आप कहेंगे कि 'नहीं'. संवैधानिक रूप से भी एक राज्य में एक समय में एक ही मुख्यमंत्री हो सकता है. लेकिन अपने देश में एक बार ऐसा भी हुआ है, जब एक सूबे में एक साथ 2 लोग मुख्यमंत्री पद पर आसीन थे. वह भी देश के सबसे बड़े सूबे यानी उत्तर प्रदेश में. ज्यादा पुरानी बात भी नहीं है. सिर्फ 23 साल पुराना वाकया है.

तो चलिए आपको तफ्सील से बताते हैं कि उस वक्त आखिर हुआ क्या था?

यह 1998 का साल था और फरवरी का महीना था. देश में 12वीं लोकसभा के लिए चुनाव चल रहे थे और सभी पार्टियां चुनाव प्रचार में लगी थीं. लेकिन एक आदमी अपनी मुहिम में लगा हुआ था. वह संवैधानिक पद पर बैठे-बैठे ख़ुद सियासी शतरंज की बिसात पर प्यादा बन रहा था. वह भी उसी शहर में जहां से भंग लोकसभा में विपक्ष के नेता रहे अटल बिहारी वाजपेयी फिल्म निर्देशक मुजफ्फर अली के खिलाफ चुनावी मैदान में ताल ठोक रहे थे. संवैधानिक पद पर बैठे उस आदमी का नाम था रोमेश भंडारी. भंडारी उस वक्त उत्तर प्रदेश के राज्यपाल थे और लखनऊ का विशाल राजभवन उनका आशियाना हुआ करता था.
कल्याण सिंह की सरकार को बिना फ्लोर टेस्ट का मौका दिए बर्खास्त कर दिया गया था.
कल्याण सिंह की सरकार को बिना फ्लोर टेस्ट का मौका दिए बर्खास्त कर दिया गया था.
21 फरवरी 1998 को अचानक क्या हुआ था?

यह 21 फरवरी 1998 की तारीख थी. उत्तर प्रदेश की कई सीटों पर चुनाव हो चुका था, जबकि कई सीटों पर 22 फरवरी को वोटिंग होनी थी. 22 फरवरी को होनेवाली वोटिंग में यूपी के कई बड़े नामों, मसलन लखनऊ से अटल बिहारी वाजपेयी और मुजफ्फर अली, संभल से तत्कालीन रक्षा मंत्री मुलायम सिंह, बागपत से भारतीय किसान कामगार पार्टी के अजीत सिंह की सियासी किस्मत का फैसला होना था. लेकिन असल सियासत तो 1 दिन पहले लखनऊ में हो रही थी. उस दिन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह चुनाव प्रचार के सिलसिले में गोरखपुर में थे, जबकि प्रदेश भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह लखनऊ में प्रेस कांफ्रेंस कर लोकसभा चुनाव में भाजपा की बड़ी जीत का दावा कर रहे थे.

लेकिन उसी दरम्यान एक और प्रेस कांफ्रेंस हो रही थी. और इस प्रेस कांफ्रेंस में प्रेस से मुखातिब थीं बसपा की उपाध्यक्ष मायावती. मायावती पत्रकारों के सामने दावा कर रही थीं,

"मेरे संसदीय क्षेत्र अकबरपुर का चुनाव हो चुका है और अब मैं अपना पूरा ध्यान कल्याण सिंह सरकार के खात्मे पर लगाऊंगी, जिसने 5 महीने पहले मेरी पार्टी को गलत तरीके से तोड़ कर अपना बहुमत हासिल किया है."

इसके बाद लगभग 2 बजे मायावती अपनी पार्टी बसपा के विधायकों, अजीत सिंह की किसान कामगार पार्टी के विधायकों, जनता दल के विधायकों और सरकार का समर्थन कर रहे लोकतांत्रिक कांग्रेस के विधायकों के साथ राजभवन चली गईं. राजभवन पहुंच कर उन्होंने कल्याण सिंह सरकार के ट्रांसपोर्ट मिनिस्टर और लोकतांत्रिक कांग्रेस के विधायक जगदंबिका पाल को आगे कर दिया और राज्यपाल रमेश भंडारी से कहा,
"इन्हें यहां उपस्थित सभी दलों के विधायकों का समर्थन प्राप्त है. इसलिए आप कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त कर इन्हें मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवाइए."

इसके थोड़ी देर बाद रक्षा मंत्री और सपा सुप्रीमों मुलायम सिंह यादव का भी बयान आ गया कि हमारी पार्टी ने भी जगदंबिका पाल का समर्थन करने का फैसला किया है. थोड़ी देर बाद उनकी पार्टी की ओर से पाल के समर्थन की चिट्ठी राजभवन पहुंच भी गई.
उधर गोरखपुर में जैसे ही यह खबर मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को मिली, तब वे आनन-फानन में लखनऊ पहुंचे और सीधे राजभवन पहुंचे. राजभवन पहुंच कर उन्होंने राज्यपाल रोमेश भंडारी से बहुमत सिद्ध करने का समय देने को कहा. उन्होंने बोम्मई केस में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के जजमेंट का हवाला भी दिया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि 'बहुमत का फैसला सदन में ही होगा.' लेकिन भंडारी ने कल्याण सिंह की इस मांग को अनसुना कर दिया.
उस वक्त उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रहे रोमेश भंडारी की हड़बड़ी से सारा विवाद पैदा हुआ था.
उस वक्त उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रहे रोमेश भंडारी की हड़बड़ी से सारा विवाद पैदा हुआ था.
रात सवा दस बजे क्या हुआ? 

21 फरवरी की रात 10 बजकर 16 मिनट पर वो हुआ जिसकी कल्पना भी किसी ने नहीं की थी. कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त कर दिया गया और जगदंबिका पाल को आनन-फानन में यूपी के मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई दी गई. उनके साथ-साथ 4 और मंत्रियों (नरेश अग्रवाल, राजाराम पांडे, बच्चा पाठक और हरिशंकर तिवारी) को भी मंत्री बनाया गया. लोकतांत्रिक कांग्रेस के अध्यक्ष और कल्याण सिंह सरकार में बिजली मंत्री रहे नरेश अग्रवाल को उप-मुख्यमंत्री अप्वाइंट किया गया. इस पूरे ऑपरेशन के दरम्यान राजभवन से लेकर शपथ लेने वाले लोग इतनी हड़बड़ी में थे कि शपथ ग्रहण के बाद रस्मी तौर पर होने वाला राष्ट्रगान भी नहीं हुआ. राजभवन में हुई महज 10 मिनट की कार्यवाही में देश से सबसे बड़े सूबे का निजाम बदल गया था.


जगदंबिका पाल ने मुख्यमंत्री पद की शपथ जरूर ली लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी पर टिक नहीं पाए.
जगदंबिका पाल ने मुख्यमंत्री पद की शपथ जरूर ली. लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी पर टिक नहीं पाए.
22 फरवरी को क्या हुआ?

22 फरवरी 1998 को लखनऊ समेत यूपी के कई संसदीय क्षेत्रों में वोटिंग हो रही थी. अटल बिहारी वाजपेयी ने भी लखनऊ में अपना वोट डाला. लेकिन वोट डालने के बाद स्टेट गेस्ट हाउस (जहां वह ठहरे हुए थे) में वे राज्यपाल रोमेश भंडारी के खिलाफ आमरण अनशन पर बैठ गए.

उधर दिल्ली में राष्ट्रपति के आर नारायणन ने प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल को पत्र लिखकर लखनऊ के घटनाक्रम और उसमें रोमेश भंडारी की भूमिका पर असंतोष जाहिर किया.

लेकिन असल ड्रामा तो लखनऊ के सचिवालय में हो रहा था. सुबह-सुबह सचिवालय में स्थित मुख्यमंत्री के चेंबर में जगदंबिका पाल जाकर जम गए. वहीं दूसरी तरफ बर्खास्त मुख्यमंत्री कल्याण सिंह भी सचिवालय पहुंच गए. लेकिन उनके सचिवालय पहुंचने का कोई फायदा नहीं था, क्योंकि उस वक्त संवैधानिक रूप से जगदंबिका पाल ही मुख्यमंत्री थे.

लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि कल्याण सिंह कैंप ने हार मान ली थी. उन्हें अभी भी एक रास्ता दिख रखा था. और वह रास्ता था न्यायपालिका का रास्ता. 22 फरवरी को ही कल्याण सिंह सरकार में मंत्री रहे नरेन्द्र सिंह गौड़ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दाखिल कर मांग की कि राज्यपाल रोमेश भंडारी के एक्शन को असंवैधानिक करार दिया जाए और कल्याण सिंह सरकार को बहाल कर दिया जाए. उनकी याचिका पर 23 फरवरी को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जगदंबिका पाल की सरकार को अवैध करार दे दिया और साथ ही कल्याण सिंह सरकार को बहाल करने का आदेश भी दे दिया. हाईकोर्ट के इस आदेश के साथ ही अटल बिहारी वाजपेयी ने अपना अनशन समाप्त कर दिया था.

लेकिन इतने भर से कल्याण सिंह को वापस मुख्यमंत्री की कुर्सी नहीं मिलनी थी. क्योंकि अब हाईकोर्ट ने फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने की बारी जगदंबिका पाल कैंप की थी. वे सुप्रीम कोर्ट गए भी. लेकिन इसी दरम्यान उन्हें एक बड़ा झटका लग चुका था. उप-मुख्यमंत्री नरेश अग्रवाल और मंत्री हरिशंकर तिवारी समेत लोकतांत्रिक कांग्रेस के अधिकांश विधायक वापस कल्याण सिंह कैंप में लौट चुके थे. 'मुख्यमंत्री' जगदंबिका पाल की तो हालत ऐसी हो गई थी कि सचिवालय भवन में सीएम की कुर्सी पर बैठे होने के बावजूद उन्हें पानी मांगने पर एक घंटे बाद पानी का ग्लास मुहैया कराया जाता था. साथ ही नाश्ता मांगने पर दोबारा पानी का ग्लास सामने रख दिया जाता था. दरअसल 23 फरवरी को हाईकोर्ट का फैसला आने के बाद सचिवालय का एक अदने कर्मचारी भी उन्हें सीएम मानने को तैयार नहीं था. 23 फरवरी की शाम एक दफा ऐसा भी हुआ कि जब जगदंबिका पाल ने सचिवालय के स्टाफ से नाश्ता मांगा, तो उन्हें बहुत थोड़ा सा बिस्कुट वगैरह मुहैया कराया गया. और जब पाल ने इसपर सवाल किया तो उनके स्टाफ़ ने कहा,

"साहब, कल्याण सिंह का जो नाश्ता बचा था वही आपको दिया हूं."

तो ये हालत हो गई थी 'मुख्यमंत्री' जगदंबिका पाल की. लेकिन खैर, 24 मार्च को उनकी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई. सुप्रीम कोर्ट के सामने भी अजीब स्थिति थी. एक तरफ राज्य के संवैधानिक प्रमुख यानी राज्यपाल का फैसला तो दूसरी तरफ हाईकोर्ट का जजमेंट. दोनों एक दूसरे के विरोधाभासी. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के कस्टोडियन की अपनी भूमिका का निर्वाह करते हुए बीच का रास्ता निकाला और कहा,

"अगले 48 घंटे के भीतर विधानसभा में कैमरे की निगरानी में 'कंपोजिट फ्लोर टेस्ट' होगा और उसमें जो जीतेगा उसे मुख्यमंत्री माना जाएगा. तब तक के लिए दोनों (जगदंबिका पाल और कल्याण सिंह) के साथ मुख्यमंत्री जैसा व्यवहार किया जाएगा. लेकिन कोई भी नीतिगत फैसला कंपोजिट फ्लोर टेस्ट के बाद ही होगा."
  • कंपोजिट फ्लोर टेस्ट का मतलब यह है कि दोनों मुख्यमंत्री एक साथ विश्वास प्रस्ताव रखेंगे और उसपर एकसाथ वोटिंग होगी. वोटिंग में जिसके साथ ज्यादा विधायक होंगे, उसे वोटिंग का नतीजा घोषित होने के समय से मुख्यमंत्री माना जाएगा, जबकि हारने वाले की मुख्यमंत्री पद पर दावेदारी वोटिंग के नतीजे के साथ ही खारिज हो जाएगी.
26 मई को फ्लोर टेस्ट में क्या हुआ? 26 मई की सुबह विधानसभा में कंपोजिट फ्लोर टेस्ट की प्रक्रिया शुरू हुई. देश-विदेश की मीडिया की मौजूदगी में विधानसभा की कार्यवाही शुरू हुई. सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार 16 कैमरे लगाए गए थे और बेहद शांतिपूर्वक (शायद कोर्ट की निगरानी का असर था) तरीके से कार्यवाही चल रही थी. लेकिन सबसे मजेदार सीन तो विधानसभा के अंदर की सीटिंग अरेंजमेंट का था. विधानसभा अध्यक्ष केसरीनाथ त्रिपाठी के दोनों तरफ 2 कुर्सियां लगाई गई थी और उनपर दोनों मुख्यमंत्रियों को बिठाया गया था. शाम के वक्त 425 सदस्यों की विधानसभा में जब कंपोजिट फ्लोर टेस्ट का नतीजा आया, तब मुख्यमंत्री पद पर जगदंबिका पाल की दावेदारी खत्म हो चुकी थी.
 
नरेश अग्रवाल के पाला बदलने के कारण फ्लोर टेस्ट में कल्याण सिंह की सरकार बच गई थी.
नरेश अग्रवाल के पाला बदलने के कारण फ्लोर टेस्ट में कल्याण सिंह की सरकार बच गई थी.

225 विधायकों ने कल्याण सिंह के पक्ष में जबकि 196 विधायकों ने जगदंबिका पाल के पक्ष में वोट किया था. विधानसभा की कुछ सीटें खाली थीं. बसपा के सदस्यों ने जब अपनी पार्टी के कुछ विधायकों को गलत तरीके से तोड़े जाने का आरोप लगाकर उनके वोट रद्द करने की मांग की, तब अध्यक्ष केसरी नाथ त्रिपाठी ने 12 बसपा विधायकों के वोट रद्द कर दिए. लेकिन तब भी कल्याण सिंह के पक्ष में 213 विधायक थे, जो जगदंबिका पाल के समर्थक विधायकों की कुल संख्या से तब भी ज्यादा थे.

इस प्रकार न्यायालय के हस्तक्षेप से पूरे 5 दिन तक चले इस घटनाक्रम का पटाक्षेप हुआ था.

इस घटनाक्रम के कुछ ही हफ्तों के बाद लोकसभा चुनाव का नतीजा आ गया. इस चुनाव में किसी को स्पष्ट बहुमत तो नहीं मिला, लेकिन भाजपा अपने सहयोगी दलों के साथ बहुमत के काफी करीब पहुंच गई. 16 मार्च 1998 को राष्ट्रपति के आर नारायणन ने भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने का निमंत्रण दे दिया. और उधर लखनऊ में राज्यपाल रोमेश भंडारी ने दीवार पर लिखी इबारत को बांटने में तनिक भी देर नहीं कि और उसी शाम अपने पद से इस्तीफा दे दिया. उन्हें लग गया था कि अब तो भाजपा सरकार उन्हें राज्यपाल पद से हटाएगी ही, इसलिए बेहतर है कि पहले ही कुर्सी छोड़ दी जाए.
इस पूरे घटनाक्रम पर हमने बात की बीबीसी के लखनऊ संवाददाता रहे रामदत्त त्रिपाठी से. रामदत्त त्रिपाठी के अनुसार,

"उस वक्त रक्षा मंत्री रहे मुलायम सिंह मैनपुरी की अपनी सीट छोड़ कर संभल से चुनाव लड़ रहे थे ,जहां उनका मुकाबला भाजपा के मजबूत माने जाने कैंडिडेट डी पी यादव से हो रहा था. 22 फरवरी को वहां चुनाव होना था और वे बेहद कड़े मुकाबले में फंसे थे. इसलिए वे नहीं चाहते थे कि प्रदेश में कल्याण सिंह की भाजपा सरकार रहते वहां चुनाव हो. रही बात मायावती कि तो उनकी कल्याण सिंह से खुन्नस स्वाभाविक थी. 5 महीने पहले ही उनकी पार्टी बसपा को तोड़ कर कल्याण सिंह ने अपना बहुमत साबित किया था. वैसे इस पूरे मामले पर रोमेश भंडारी ने अपनी किताब में काफी कुछ लिखा है."


मुलायम सिंह यादव के साथ जगदंबिका पाल. फ़ोटो क्रेडिट : gettyimage
मुलायम सिंह यादव के साथ जगदंबिका पाल. फ़ोटो क्रेडिट : gettyimage

रामदत्त त्रिपाठी के कहने पर हमने रोमेश भंडारी की किताब 'As I saw it : My days in Uttar Pradesh Rajbhawan'  के पन्ने उघाड़े. इसमें उन्होंने लिखा है,
"उस मामले मैं क्या करता. मेरे सामने जो दस्तावेज पेश किए गए, मैंने उन पर भरोसा कर उसके मुताबिक काम किया. जगदंबिका पाल मामले में सबसे होशियार आदमी नरेश अग्रवाल थे. उनके बारे में कहा जाता है कि उनके पिताजी हरदोई से कांग्रेस के कैंडिडेट थे और उन्होंने अपने बेटे नरेश को पार्टी सिंबल के लिए पार्टी आलाकमान के पास भेजा, तब नरेश ने आलाकमान के पास जाकर कहा कि 'मेरे पिता गंभीर रूप से बीमार हैं इसलिए उन्होंने चुनाव लडऩे से इनकार कर दिया है और मुझसे चुनाव लडऩे को कहा है. इसलिए मेरे नाम पर  सिंबल इश्यू कर दिया जाए.' जब तक यह बात उनके पिता को पता चलती तब तक नरेश अग्रवाल नामांकन दाखिल कर चुके थे. इसलिए जो आदमी अपने पिता का न हुआ वह जगदंबिका पाल का ही क्यों, किसी का नहीं हो सकता था. पाल की सरकार नरेश अग्रवाल के पाला बदलने से गिरी थी.'

आखिर में बात जगदंबिका पाल की. कहते हैं ना कि समय बहुत बलवान होता है. आज जगदंबिका पाल उसी भारतीय जनता पार्टी में हैं, जिसकी सरकार गिरा कर वे मुख्यमंत्री बने थे. पिछले 2 चुनावों से वे उत्तर प्रदेश की डुमरियागंज लोकसभा सीट से भाजपा सांसद हैं.

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