भारतीय सेना की वो कामयाबी, जिसने एक नया देश बना दिया
1971 की जंग और पाकिस्तान के 2 टुकड़े होने की घटना से जुड़ी 10 रोचक बातें जान लीजिए
आज से ठीक 49 साल पहले. तारीख 16 दिसंबर 1971. स्थान : ढाका का रेसकोर्स मैदान. लाखों की भीड़ जमा थी. नारे लग रहे थे,
"मुक्ति वाहिनी जिंदाबाद
",
"मित्र वाहिनी जिंदाबाद
"
"आमार सोनार बांग्ला".
क्यों हुआ था यह संघर्ष?
दिसंबर 1970 में पाकिस्तान की संसद के चुनाव हुए थे. आजादी के 23 साल बाद पहली बार पाकिस्तान में संसद के चुनाव कराए गए थे. उस समय वहां की संसद में 300 सीटें हुआ करती थीं. पश्चिमी पाकिस्तान (आज का पाकिस्तान) में 138 सीटें, जबकि पूर्वी पाकिस्तान में 162 सीटें थीं. इस चुनाव में अवामी लीग ने पूर्ण बहुमत प्राप्त कर लिया. अवामी लीग पाकिस्तान के पूर्वी हिस्से यानी बंगाली बहुल इलाकों में प्रभाव रखती थी. शेख मुजीबुर रहमान इस पार्टी के नेता थे. अवामी लीग को कुल 160 सीटें मिली थीं. ये सभी सीटें पूर्वी पाकिस्तान की ही थीं. लेकिन पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल याह्या खान ने अवामी लीग को सरकार बनाने का न्योता नही दिया. याह्या खान मार्शल लाॅ को जारी रखना चाहते थे. अवामी लीग के नेता मुजीबुर रहमान ने सरकार गठन की अपनी दावेदारी ठुकराए जाने के बाद आंदोलन शुरू कर दिया. उन्हें पश्चिमी पाकिस्तान की मियांवाली जेल में बंद कर दिया गया. इसके बाद पूर्वी पाकिस्तान में जगह-जगह आंदोलन शुरू हो गए. पूर्वी पाकिस्तान के लोगों में अपने साथ भेदभाव की जो भावना पहले से भरी थी, वह सतह पर आ चुकी थी. इसके बाद पाकिस्तान के हुक्मरान चिंतित हुए, और पूर्वी पाकिस्तान में आर्मी की ताकत के दम पर आम लोगों का दमन शुरू कर दिया. पाकिस्तानी सेना के इस दमन चक्र ने अमानवीयता की सारी हदें पार कर दीं. महिलाओं और बच्चों को भी नही बख्शा गया. नतीजा ये हुआ कि भारतीय सीमा पर दबाव बढ़ने लगा. लोग भाग-भाग कर भारत में शरण लेने लगे. तब जाकर भारत सरकार ने हस्तक्षेप किया, और सैन्य कार्रवाई शुरू की. महज 13 दिनों की इस सैन्य कार्रवाई के बाद 16 दिसंबर 1971 को दुनिया के नक्शे पर एक नए राष्ट्र बंग्लादेश का उदय हुआ.
क्या हुआ था 16 दिसंबर को, कैसे यह ऑपरेशन शुरू हुआ, और कौन-कौन लोग उस दिन पाकिस्तानी सेना को सरेंडर कराने के अभियान में शामिल थे, पाकिस्तान के सैन्य खेमे में क्या हलचल थी, इसके बाद क्या हुआ- आइए 10 फैक्ट्स में इस सबसे आपको रूबरू कराते हैं.
1.इंदिरा गांधी छह महीने पहले ही कार्रवाई करना चाहती थीं
जब पूर्वी पाकिस्तान में दमन बढ़ने और उधर से भारत की ओर पलायन होने की खबरें दिल्ली पहुंचने लगीं, तब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सेनाध्यक्ष सैम मानेकशाॅ को बुलाकर तत्काल सैन्य कार्रवाई के बारे में उनकी राय जानी. इस पर मानेकशाॅ ने कहा,
"पूर्वी पाकिस्तान का इलाका नदी-घाटियों का इलाका है. कई नदियां 5-5 मील चौड़ी हैं. ज्यादातर इलाकों में कोई सड़क संपर्क नही है. इसलिए बेहतर होगा कि मॉनसून का सीजन खत्म होने के बाद कार्रवाई की जाए."
इंदिरा गांधी ने भी उनका कहा माना और दिसंबर 1971 के पहले हफ्ते में सैन्य कार्रवाई शुरू हुई.
1971 के भारत-पाक युद्ध के समय प्रधानमंत्री पद पर इंदिरा गांधी थीं जबकि थल सेनाध्यक्ष सैम मानेकशाॅ थे.
2.कहाँ सरेंडर कराया गया?
उस दिन भारतीय सेना की पूर्वी कमांड के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा करीब 3 हजार सैनिकों के साथ ढाका में मौजूद थे. वहीं पाकिस्तान के सैन्य कमांडर अमीर अब्दुल्ला खान नियाजी करीब 26 हजार सैनिकों के साथ ढाका में थे. लेकिन पाकिस्तान की फ़ौज पस्त हो गई थी, क्योंकि भारतीय सेना की एक बेहद छोटी टुकड़ी ने स्थानीय लोगों के सहयोग से बांग्लादेश में मौजूद 93 हजार पाकिस्तानी सैनिकों को धूल चटा दी थी. जब पाकिस्तानी सेना सरेंडर के लिए तैयार हुई, तब तय हुआ कि सरेंडर की प्रक्रिया ढाका के रेस कोर्स मैदान में पूरी की जाएगी.
3. कैसे हुआ सरेंडर?16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तानी सेना के सरेंडर की प्रक्रिया पूरी कराने की जिम्मेदारी भारतीय सेना की तरफ से जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा को सौंपी गई. पाकिस्तान की तरफ से यह काम नियाजी ने किया. मजेदार बात यह थी कि ब्रिटिश काल में अरोड़ा और नियाजी, दोनों क्वेटा के मिलिट्री स्कूल से ही पढ़े थे. पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल याह्या खान तो क्वेटा में जनरल अरोड़ा के बैचमेट हुआ करते थे. रेस कोर्स मैदान में लाखों लोगों के हर्षोन्माद के बीच जब सरेंडर की औपचारिकता पूरी करने जनरल अरोड़ा और नियाजी पहुंचे, तब प्रक्रिया का सवाल उठा. कई भारतीय सैन्य अधिकारियों ने कहा कि नियाजी टोपी उतारकर सरेंडर करें, लेकिन तभी वहां मौजूद लेफ्टिनेंट गंधर्व नागरा ने कहा,
इस पर नियाजी ने कहा,"एक सैन्य अधिकारी दूसरे देश के सैन्य अधिकारी की टोपी उतरवाकर सरेंडर करवाए, ये सेना की मर्यादा के अनुकूल नहीं है. बेहतर होगा कि नियाजी तलवार सौंपकर सरेंडर करें."
"तलवार पाकिस्तान की सैन्य परंपरा का हिस्सा नही है."इसके बाद तय हुआ कि नियाजी जनरल अरोड़ा को अपनी रिवॉल्वर और उसकी कुछ गोलियां सौंपकर सरेंडर करेंगे. उन्होंने ऐसा ही किया, और सरेंडर के कागजात पर दस्तखत किए.
1971 में पाकिस्तान के सरेंडर के बाद बांग्लादेश अस्तित्व में आया
4. पाकिस्तान में क्या हलचल थी?
सरेंडर से एक दिन पहले यानी 15 दिसंबर 1971 की शाम जनरल याह्या खान ने राष्ट्र को संबोधित किया और लोगों को भरोसा दिलाया कि पूर्वी पाकिस्तान में हालात कंट्रोल में हैं. लेकिन उनका दावा गलत निकला क्योंकि अगले ही दिन पाकिस्तान की सेना ने सरेंडर कर दिया. याह्या खान के बारे में वैसे भी कहा जाता है कि वो ओवर कॉन्फिडेंस में रहते थे और शराब बहुत पीते थे. ऐसा कहा जाता है कि उनके सहयोगियों ने ही अधीनस्थ अधिकारियों को निर्देश दे रखा था कि रात 8 बजे से 10 बजे के बीच उनके दिए आदेश की तामील न करें, क्योंकि इस दौरान वो रावलपिंडी और पाकिस्तान के नामचीन लोगों के साथ पार्टी करते हैं. अक्सर शराब के नशे में चूर रहते हैं.
उस वक्त जनरल याह्या खान पाकिस्तान के राष्ट्रपति थे.
5. उस वक्त भारत में क्या चल रहा था?
जिस समय ढाका में सरेंडर की प्रक्रिया चल रही थी, उस समय दिल्ली में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी संसद भवन के अपने ऑफ़िस में स्वीडिश टीवी को एक इंटरव्यू दे रही थीं. तभी उनके टेलीफ़ोन की घंटी बजी. फोन लाइन पर दूसरी तरफ सैम मानेकशाॅ थे. उन्होंने प्रधानमंत्री को गुड न्यूज सुनाई, जिसके बाद प्रधानमंत्री ने स्वीडिश पत्रकार से माफ़ी मांगी और लोकसभा चली गईं. लोकसभा में उन्होंने ऐलान किया-
"ढाका अब एक स्वतंत्र देश की स्वतंत्र राजधानी है."
इसके बाद का उनका उनका वक्तव्य तालियों की गड़गड़ाहट और नारेबाज़ी में दबकर रह गया.
6. भारत ने सरेंडर किए गए सैनिकों के साथ क्या किया?ढाका में पाकिस्तानी सैनिकों के सरेंडर से पहले ही लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा ने पाकिस्तानी कैंप को आश्वस्त कर दिया था कि सरेंडर करने वाले सैनिकों के साथ जिनीवा कंवेंशन के तहत सम्मानपूर्वक व्यवहार किया जाएगा.
(जेनेवा कंवेंशन सरेंडर करने वाले सैनिकों के साथ समुचित व्यवहार करने के मकसद से 1949 में किया गया था. भारत ने भी इस समझौते पर दस्तखत किए थे. इस कंवेंशन की शर्तों के मुताबिक, दस्तखत करने वाले प्रत्येक देश को युद्धबंदियों के साथ सम्मानपूर्वक और मानवीय व्यवहार करना होगा.)
सरेंडर के बाद पूर्वी पाकिस्तान, जो बांग्लादेश बन चुका था, के अलग-अलग हिस्सों में मौजूद लगभग 93 हजार सैनिकों को भारत लाया गया. उन्हें ससम्मान अलग-अलग शहरों में सैनिक कैंप बनाकर रखा गया. खाना-नाश्ता, चाय-कॉफ़ी सबकी व्यवस्था की गई. मोटे तौर पर कहें तो मेहमाननवाजी में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी गई.
7. सैनिकों को उनके परिवार से जोड़े रखने की अनूठी पहलउस दौर में आज की तरह टेलीफोन, मोबाइल जैसी सुविधाएं आसानी से उपलब्ध नही थीं. इंटरनेट और वॉट्सऐप का तो कोई नामोनिशान तक नहीं था. ऐसे में ऑल इंडिया रेडियो ने अपनी तरफ से पाकिस्तानी सैनिकों और उनके परिवारवालों के बीच एक प्रभावी सूचना तंत्र की भूमिका का बखूबी निर्वाह किया. उन दिनों ऑल इंडिया रेडियो के शॉर्ट वेव पर जैसे ही नियमित प्रसारण का समय समाप्त होता था, उसके बाद पाकिस्तानी सैनिकों का कार्यक्रम शुरू होता था. रेडियो पर दिन-दिन भर यही चलता रहता था, 'मैं मिस्टर X पाकिस्तानी आर्मी के ….. बटालियन से हूं और यदि मेरे परिवार वाले सुन पा रहे हैं तो वे मेरी सलामती के लिए निश्चिंत रहें. मुझे यहां बहुत अच्छे से रखा गया है. मैं बिल्कुल ठीक हूं. उम्मीद है, जल्दी मिलेंगे.' जितने दिन पाकिस्तानी सैनिक भारत में रहे, उनके लिए यह कार्यक्रम चलता रहा. यानी उस दौर में भी इतना इंतजाम भारत सरकार ने पाकिस्तान के आत्मसमर्पण कर चुके सैनिकों के लिए किया था. लगभग सवा दो साल ये सैनिक भारत में रहे. फरवरी 1974 से उन्हें सकुशल पाकिस्तान भेजने की प्रक्रिया शुरू हुई, जो अगले 3 महीने तक चली. जनरल नियाजी भी इसी दौरान पाकिस्तान भेजे गए.
1971 की जीत के बाद ख़ुशी मनाते सेना के जवान
8. भारत में क्रेडिट लेने का विवाद
अब सरेंडर तो जगजीत सिंह अरोड़ा ने करवा लिया. जनता ने भी उन्हें ही इस कार्रवाई का हीरो माना. लेकिन कई अन्य आर्मी ऑफिसर्स के मन में यह कसक बनी रही कि इसका क्रेडिट तो मुझे मिलना चाहिए था. जनरल जेएफआर जैकब ने तो खुलकर अपनी निराशा व्यक्त कर दी, जबकि कुछ लोगों का मानना था कि जनरल ओम प्रकाश मल्होत्रा, जो बाद में आर्मी चीफ बने, इसके असली हकदार थे. हालांकि मल्होत्रा ने जैकब की तरह कभी इस मामले पर अपनी जुबान नही खोली. लेकिन दोनों के दावों की पड़ताल करने पर यही पता चलता है कि उस दिन ढाका में भारतीय सेना के जो भी अधिकारी मौजूद थे, उनमें जनरल अरोड़ा ही वरिष्ठ थे. जैकब और मल्होत्रा, दोनों उनके सब-ऑर्डिनेट थे. इसीलिए भारत के तत्कालीन सेनाध्यक्ष सैम मानेकशाॅ ने सरेंडर की प्रक्रिया पूरी कराने की जिम्मेदारी जनरल अरोड़ा को सौंपी थी. हां, सरेंडर के लिए नियाजी को तैयार करने में जैकब और मल्होत्रा की बड़ी भूमिका थी. बाद में एक इंटरव्यू में सैम मानेकशॉ ने माना कि 1971 में वाहवाही मेरी हुई, लेकिन असली काम तो जग्गी (जगजीत सिंह अरोड़ा) ने ही किया था.
खैर, ये तो हुई जंग और सरेंडर की बात. लेकिन जहां तक जैकब और मल्होत्रा के सम्मान की बात है, तो इस मामले में चंद्रशेखर और अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने अपने-अपने कार्यकाल में दोनों को भरपूर सम्मान दिया. चंद्रशेखर ने जहां मल्होत्रा को पंजाब का गवर्नर बनाया, वहीं वाजपेयी ने अपने कार्यकाल में जैकब को पंजाब का गवर्नर बनने का मौका दिया. इसके उलट जगजीत सिंह अरोड़ा को रिटायरमेंट के बाद कोई बड़ा ओहदा नहीं मिला. उनके जिम्मे सिर्फ अकाली दल की ओर से राज्यसभा की सदस्यता ही आई. हालांकि सरकार की तरफ से जनरल अरोड़ा को परम विशिष्ट सेवा मेडल से सम्मानित किया गया था.9. नियाजी की सरेंडर वाली पिस्तौल का क्या हुआ?
एक तरफ जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा 93 हजार पाकिस्तानी सैनिकों को लेकर भारत पहुंचे, तो पूरा देश जश्न में डूब गया. किसी को ये भी ख्याल नही रहा कि सरेंडर वाली रिवॉल्वर का क्या हुआ. लेकिन जनरल अरोड़ा को इसकी याद थी. इस घटना के करीब एक दशक बाद 1982 में उन्होंने यह रिवॉल्वर आइएमए यानी इंडियन मिलिट्री एकेडेमी के गोल्डन जुबली वर्ष में उसे सौंप दी. हालांकि कुछ साल पहले यह खबर आई थी कि दिल्ली के एक संग्रहालय से यह रिवॉल्वर गायब हो गई है. लेकिन IMA ने स्पष्ट किया कि रिवॉल्वर IMA देहरादून में सुरक्षित है.
10. भारत में जनरल अरोड़ा का कितना सम्मान है?यह 1996 की बात है. दिल्ली की सड़क पर एक बुजुर्ग की कार एक नौजवान की बाइक से जा टकराई. उसके बाद यही हुआ, जो आमतौर पर होता है. कार के चारों तरफ लोग जमा हो गए. तभी कार से एक बुजुर्ग सिख उतरे और कहा,
तभी भीड़ में से किसी ने पूछा,''मेरा नाम जगजीत सिंह अरोड़ा है. आपकी बाइक का जो भी नुकसान हुआ है, उसको बनवाने का ख़र्च आप मुझसे ले लिजीए.''
"कौन जगजीत सिंह अरोड़ा? वो बांग्लादेश वाले?''
बुजुर्ग ने हां में सिर हिलाया, और लोग झेंप गए. लोगों ने उलटा उस बाइक वाले को ही डांटना शुरू कर दिया. बाइक वाला नौजवान भी जनरल अरोड़ा से माफ़ी मांगने लगा. इस वाक़ये के बाद जनरल अरोड़ा की आँखें नम हो गईं. वो बोले,
''सरकार एहसान फ़रामोश हो सकती है, लेकिन लोग अब भी बहुत सम्मान करते हैं.''
वाकई यह देश अपने आइकॉन को हमेशा से सम्मान करता आया है.