महात्मा गांधी का 'सरदार,' जो कभी मंत्री नहीं बना, सीधा मुख्यमंत्री बना
सरदार हरिहर सिंह के बिहार के मुख्यमंत्री बनने की कहानी
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विधानसभा में अचानक की वोटिंग ने कांड कर दिया.
पोटरी का विरोध करने वाला गांधी से तमगा पाता है. आजाद भारत में कई दफा विधायकी करता है, मगर मंत्री पद तक नहीं मिलता. लेकिन एक शाम एक मराठी छत्रप के पटना आने के बाद सब बदल जाता है. नेता मुख्यमंत्री बन जाता है. सूबे का लोकतांत्रिक राजा. पर एक पूर्व राजा की जिद के चलते उसका सिंहासन शुरू से ही डोलता है और एक शाम अचानक हुई एक वोटिंग सब खत्म कर देती है.
मराठा छत्रप की पाटलिपुत्र युक्ति
1967 के चुनाव में स्पष्ट बहुमत नहीं था. तो लगभग दो बरस सरकारें बनाने गिराने का खेल चलता रहा और फिर जनवरी-फरवरी 1969 में बिहार विधानसभा के पहले मध्यावधि चुनाव हुए. इस चुनाव में कांग्रेस ने कई दिग्गजों के टिकट काट दिए. मसलन, पूर्व मुख्यमंत्री केबी सहाय, पूर्व उपमुख्यमंत्री सतेन्द्र नारायण सिंह और दूसरे दावेदार जैसे महेश प्रसाद सिन्हा और रामलखन सिंह यादव. इसकी वजह थी पूर्ववर्ती महामाया सरकार द्वारा गठित जस्टिस एल. वेंकटराम अय्यर कमीशन की इन नेताओं की मंत्री रहते कमीशनखोरी की जांच. राजनीतिक टिप्पणीकारों का मानना है कि ये प्रकट वजह थी, असल में तो दिल्ली का झगड़ा पटना में भी लड़ा जा रहा था. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और सिंडीकेट (कांग्रेस के बुजुर्ग नेताओं का समूह, जिसमें कामराज, मोरार जी देसाई, निजलिंगप्पा इत्यादि थे) का गुप्त युद्ध चल रहा था.
बिहार का गुप्त मतदान जब जाहिर हुआ तो कांग्रेस की सीटें और घट गईं. 318 सदस्यों की विधानसभा में कांग्रेस को केवल 118 सीटें मिली. यानी बहुमत के आंकड़े 160 से 42 कम. दूसरी बड़ी पार्टियों की क्या स्थिति थी. लोहिया जी की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी यानी संसोपा को 52 सीटें, जनसंघ को 34, सीपीआई को 25 और निर्दलीय को 24 सीटें मिलीं. छोटी छोटी कई पार्टियों के इकाई में विधायक थे. एक पार्टी और सुर्खियों में आई. जमींदारों के रक्षक और केबी सहाय से निजी खुन्नस मानने वाले राजा रामगढ़ कामाख्या नारायण सिंह की नवगठित जनता पार्टी. इसे 14 सीटें मिलीं. ये किरदार और नंबर याद रखिए. फिर जिक्र आएगा.
सिर्फ 117 दिनों के लिए मुख्यमंत्री बने थे हरिहर सिंह.
सरकार बनाने की कोशिशें शुरू हुईं. विपक्ष में एकता नहीं बनी. और कांग्रेस फौरन एक्शन मोड में आ गई. तत्कालीन होम मिनिस्टर और महाराष्ट्र के कद्दावर नेता वाई बी चव्हाण पटना आ गए. पर्यवेक्षक बनकर कांग्रेस विधायकों का मन टटोलने. मगर उनका असली टास्ट था, बहुमत के लिए बचे 42 विधायकों की जुगाड़ करना. चव्हाण ने पटना आते ही उन दो नेताओं से बात की, जो विधायक नहीं थे. सतेंद्र नारायण सिंह उर्फ छोटे साहब और महेश प्रसाद सिन्हा. चव्हाण से इशारा मिलते ही दोनों नेताओं ने अपना राजनीतिक कौशल दिखाना शुरू कर दिया. सबसे पहले राजा रामगढ़ कामाख्या नारायण सिंह की जनता पार्टी (जो पिछले चुनाव में जन क्रांति दल के नाम से अस्तित्व में थी) को साधा. फिर जगदेव प्रसाद के शोषित दल एवं कुछ निर्दलीय विधायकों को मैनेज कर लिया. बहुमत का नंबर नजर आने लगा था. इसके साथ ही नजर आने लगी थी कई नेताओं को सीएम की कुर्सी. चूंकि ज्यादातर कद्दावर तो पहले ही टिकट वितरण में ही किनारे कर दिए गए थे. इसलिए नई दावेदारी स्वाभाविक थी. बिहार की राजपूत भूमिहार लॉबी और चव्हाण ने डुमरांव के विधायक सरदार हरिहर सिंह को सपोर्ट किया. इनके विरोधी गुट ने सारण जिले की परसा सीट से विधायक दरोगा प्रसाद राय का नाम उछाल दिया. चुनाव पर जोर दिया जाने लगा. तब चव्हाण ने नॉन कांग्रेसी सहयोगियों से दबाव बनवाया. कहा गया, बहुमत सिर्फ कांग्रेस का नहीं, सहयोगी दलों की मंशा भी चलेगी और इस बिना पर सरदार हरिहर सिंह के नाम पर सहमति बना ली गई. 26 फरवरी 1969 को बक्सर जिला के चौगाई में जन्म 71 साल के सरदार हरिहर सिंह ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. पूरे सूबे का सरदार बनने की कहानी में अभी कई ट्विस्ट आने थे. मगर पहले इस पदवी की कहानी.
पोटरी का विरोध और गांधी का सपोर्ट
बिहार के शाहाबाद इलाके में अंग्रेज किसानों से मालगुजारी वसूलने के लिए एक तारीख तय करते थे और वह तारीख सामान्यतः भादो मास का अंतिम दिन होता था. किसान अपना हिसाब किताब और रुपया पोटली में बांध देते. पोटली को भोजपुरी भाषी लोग पोटरी बोलते और इसी से पोटरी प्रथा नाम आया. पोटरी जरा भी कम ज्यादा हुई तो किसानों को अमला परेशान करता. हरिहर सिंह और रघुवंश सिंह नाम के दो नौजवानों ने इसके विरोध में आंदोलन चलाया. ये जवान गांधी के हाथों दीक्षा पाए कांग्रेसी थे. बात 1920 की है. आरा सतपहाड़ी में 4 सितंबर को महात्मा गांधी आए थे. साथ में खिलाफत आंदोलन वाले मौलाना शौकत अली और कांग्रेस नेता अब्दुल कलाम आजाद भी. आसपास के सैकड़ों लोग इनसे मिलने पहुंचे. हरिहर और रघुवंश भी. गांधी इन युवकों से संवाद कर बहुत प्रसन्न हुए और चलते समय बोले.
आज से तुम दोनों के ऊपर इस इलाके की जवाबदेही होगी. तुम दोनों यहां के सरदार हो. उसी दिन से दोनों छात्रों, हरिहर और रघुवंश के नाम के साथ सरदार टाइटल जुड़ गया. हरिहर की सियासी पारी को मिली ये पहली थाप थी. आजादी के आंदोलन में वो लगातार सक्रिय रहे. बिहार कांग्रेस की बात करें तो उन्हें श्रीकृष्ण बाबू के खेमे का माना जाता था. 1939 के शाहाबाद डिस्ट्रिक्ट बोर्ड चुनाव में उन्होंने डॉ. राजेंद्र प्रसाद के कैंडिडेट पंडित हरगोविंद मिश्र को पटखनी दी थी. 1946 में जब प्रोविजनल असेंबली के लिए हरिहर आरा से चुने गए, लेकिन जब बिहार विधानसभा के पहले चुनाव हुए तो उन्होंने डुमरांव सीट चुनी. जीतकर विधायक बने. मगर अगले ही चुनाव में सीट गंवा बैठे. एमएलए चुनाव हारे, मगर श्रीबाबू के प्रति वफादारी नहीं गंवाई और फल मिला 1960 में एमएलएसी बनकर. 1967 में फिर विधानसभा की टर्फ पर लौटे और जीते, मगर तब तक कांग्रेस का पतन शुरू हो चुका था. 1969 का चुनाव उनकी विधायकी का चौथा टर्म था. अब तक वह एक बार भी मंत्री नहीं बने थे. और जो बने तो सीधे मुख्यमंत्री.
1969 तक हरिहर सिंह 4 बार विधायक बन चुके थे लेकिन मंत्री नहीं.
मिट्टी झुकेगी या टूटेगी...
आठ दिनों की माथापच्ची के बाद सरदार हरिहर सिंह की कैबिनेट ने 7 मार्च 1969 की सुबह शपथ ली और उसी दिन शाम को बवाल शुरू हो गया. पटना से दूर दिल्ली में. इस बवाल की जड़ें दो दशक पुरानी थीं.
हरिहर कैबिनेट के 11 मंत्रियों में एक थे जनता पार्टी के अध्यक्ष राजा रामगढ़ कामाख्या नारायण सिंह. कामाख्या के बिहार सरकार से सैकड़ों मुकदमे चल रहे थे. कहीं जमींदारी का झगड़ा, तो कई माइनिंग का. कलकत्ता हाईकोर्ट ने उनके खिलाफ प्रतिकूल टिप्पणियां भी की थीं. शपथ ग्रहण की शाम जब दिल्ली में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक हुई तो इस प्रसंग का जिक्र आया. कार्यसमिति सदस्य और केंद्रीय मंत्री सी. सुब्रह्मण्यम ने राजा रामगढ़ पर आपत्ति जताई. दिनेश सिंह सरीखों ने इसे निराधार बताया. सुब्रह्मण्यम सजातीयों के इस बचाव से भड़के और इस्तीफा दे मीटिंग से निकल लिए.
कुछ दिनों बाद सरदार हरिहर सिंह के एक और फैसले ने इस प्रसंग को जिंदा कर दिया. बिहार सरकार के महाधिवक्ता ने राजा रामगढ़ के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में बिहार सरकार की तरफ से दायर याचिकाओं को वापस ले लिया. इस पर हरिहर सरकार के दूसरे सहयोगी शोषित दल के नेता जगदेव प्रसाद ने आपत्ति की. मुख्यमंत्री पर सामंतों का संरक्षक होने का आरोप लगाया. राजा रामगढ़ को सरकार से हटाने की मांग नए सिरे से चलने लगी. सरदार हरिहर सिंह का तर्क था कि जिसने सरकार को बहुमत दिलाया, उसे कैबिनेट से कैसे चलता करें. कुछ दिनों की रस्साकशी के बाद 28 मार्च को कामाख्या नारायण सिंह ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया. सबको लगा झगड़ा खत्म. सी. सुब्रह्मण्यम भी कार्यसमिति में वापस आ गए.
पर कुछ ही दिनों में कामाख्या नारायण भी कैबिनेट में लौट आए, अपने प्रॉक्सी अवतार में. सरदार हरिहर सिंह ने उनकी मां शशांक मंजरी को मंत्री बना दिया. विवाद फिर उठ खड़ा हुआ. दिल्ली से तत्कलीन विदेश मंत्री दिनेश सिंह आए. सरदार हरिहर को नफा नुकसान और इंदिरा का संदेश समझाया तो मुख्यमंत्री ने भड़ककर कहा-
जाइये और मैडम को कह दीजिए कि वे इलाहाबाद की मिट्टी में पैदा हुई हैं जो झुकना जानती है, मैं शाहाबाद की मिट्टी में पैदा हुआ हूं जो टूटना जानती है. मैं राजा रामगढ़ की माता जी को कैबिनेट से नहीं हटा सकता.इस्तीफा होगा कि नहीं
सरदार हरिहर सिंह की सरकार हिचकोले खाते चलती रही. इसे और मजबूती देने के लिए 14 जून 1969 को कैबिनेट में 17 और मंत्री लाए गए. मुख्यमंत्री के विरोधी खेमे के दरोगा प्रसाद राय और बालेश्वर राम को भी जगह दी गई. लेकिन विभागों का बंटवारा अभी तक सर दर्द बना हुआ था. इसे यूं समझिए कि कैबिनेट में मुख्यमंत्री समेत कुल 29 लोग. मगर विभाग मिले सिर्फ 7 मंत्रियों को. इन्हीं सब के बीच विधानसभा का सत्र भी चल रहा था और वहीं हो गया एक कांड.
19 जून 1969 को पशुपालन विभाग के लिए supplementary grant (पूरक अनुदान या supplymentry grant तब सदन के पटल पर रखा जाता है जब बजट में निर्गत राशि के अलावा किसी विभाग में अतिरिक्त पैसे की आवश्यकता पड़ती है और सामान्यतः इस पर ध्वनिमत से ही मंजूरी मिल जाती है) रखा गया. ग्रांट पर सरकार के कुछ नाराज मंत्रियों ने वोटिंग की मांग कर दी. ये सुनकर विपक्ष भी उत्तेजित हो गया और उनकी हां में हां मिलाने लगा. वोटिंग हुई और ग्रांट की मंजूरी का प्रस्ताव गिर गिया. अब शुरू हुआ कानूनी दांवपेंच.
हरिहर सिंह का निधन 74 बरस की उम्र में 1988 में हुआ था.
सरदार हरिहर सिंह का मानना था कि ग्रांट का मामला मनी बिल है. इसमें सदन में हार का मतलब, सरकार अल्पमत में, इसलिए उन्हें इस्तीफा देना चाहिए. लेकिन हरिहर के संरक्षक सतेंद्र नारायण और महेश प्रसाद सिन्हा की दलील अलग थी. वो पूर्व अटॉर्नी जनरल सीके दफ्तरी की सलाह से लैस थे. कि सप्लीमेंट्री ग्रांट पर वोटिंग के नतीजे के आधार पर ऐसा कदम उठाने की जरूरत नहीं. इन नेताओं का कहना था कि ये मनी नहीं फाइनेंस बिल है. दो दिन की उधेड़बुन में सरदार समझ चुके थे कि आज नहीं तो कल सत्ता जानी ही है, सो 22 जून की देर रात वह राजभवन पहुंच गए और गवर्नर नित्यानंद कानूनगो को इस्तीफा सौंप दिया. उनके बाद भोला पासवान शास्त्री ने विपक्षी दलों को साथ ले सरकार बनाई.
इसके कुछ ही महीने बाद कांग्रेस का विभाजन हुआ. सरदार हरिहर सिंह, केबी सहाय, सतेंद्र नारायण और महेश सिन्हा जैसे पुराने मंझे नेताओं ने इंदिरा गांधी के बजाय ओल्ड गार्ड्स को चुना. वहीं राम लखन यादव, दरोगा प्रसाद राय, ललित नारायण मिश्र आदि ने इंदिरा का कांग्रेस आर को. विधायक दल के बंटवारे में 118 में 60 विधायक इनके साथ आ गए. कांग्रेस ऑर्गनाइजेशन विधायक दल के नेता बने सरदार हरिरर सिंह. कांग्रेस आर के सदन में नेता बने दरोगा प्रसाद राय. दोनों पूर्व मुख्यमंत्री.
सरदार हरिहर सिंह की सियासत इसके बाद पूर्व और भूतपूर्व होती गई. 1972 के चुनाव में वह कांग्रेस ऑर्गनाइजेशन के टिकट पर विधायकी बचा पाए, मगर पार्टी की ताकत छीजती रही. 1977 में बाकी इंदिरा विरोधियों की तरह वो भी जनता पार्टी की छतरी तले गए. लेकिन विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की उस वक्त की सहयोगी सीपीआई के रामाश्रय सिंह के हाथों खेत रहे. इस हार के बाद हरिहर ने सियासत को हरि बोल कर दिया. 1988 में उनका पटना में निधन हो गया.