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कहानी मध्यप्रदेश के पहले मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल की, जिनका टिकट कटा और अगली सुबह मर गए

दोस्ती के लिए नेहरू तक से झगड़ा कर लिया.

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रविशंकर शुक्ला मध्यप्रदेश के पहले मुख्यमंत्री थे.
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13 नवंबर 2018 (Updated: 13 नवंबर 2018, 07:29 IST)
Updated: 13 नवंबर 2018 07:29 IST
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चुनावी मौसम में दी लल्लनटॉप आपके लिए लेकर आया है पॉलिटिकल किस्सों की ख़ास सीरीज़- मुख्यमंत्री. आज आपको एक मुख्यमंत्री की कहानी पढ़वाते हैं. मध्यप्रदेश के पहले मुख्यमंत्री पंडित रविशंकर शुक्ल. जिनकी ज़िंदगी में एक बार 'नमक का दारोगा' घटी थी. एक नेता जिसने छाती पर चढ़कर जबरन अंगूठा निशान लेने वाले को बाद में तरक्की दी. और जिसने यार को सीएम बनाने के लिए नेहरू से झगड़ा किया. फिर न नेहरू रहे न नेता, उनकी बिटिया ने ज़रूर उस दोस्त को सीएम बनाया. किस्सा 1 – नमक का दरोगा रिलोडेड
मुख्यमंत्री के बनने में भी प्रेमचंद की मशहूर कहानी नमक का दरोगा दुहराई गई.
मुख्यमंत्री के बनने में भी प्रेमचंद की मशहूर कहानी नमक का दरोगा दुहराई गई.

प्रेमचंद की एक कहानी है 'नमक का दारोगा'. दातागंज के सेठ अलोपीदीन नामी रईस हुए. रसूख ऐसा कि नमक का कानून होने के बावजूद धड़ल्ले से नमक का कारोबार करते थे. लेकिन नसीब ऐसा कि एक रात नमक लदी गाड़ियों समेत जमुना जी के पुल पर नमक दारोगा मुंशी बंशीधर के हत्थे चढ़ गए. रुपए चालीस हज़ार तक घूस की पेश हुई. लेकिन दारोगा साहब पिघले नहीं. अलोपीदीन ज़िंदगी में पहली बार गिरफ्तार हुए. लेकिन पहुंच थी. सो छूट गए. और दारोगा का क्या हुआ? क्या वो अलोपीदीन के कोप का भाजन बने? जवाब दे दिया तो स्पॉयलर हो जाएगा. सो आपको एक मुख्यमंत्री की कहानी सुनाते हैं. मध्यप्रदेश के पहले मुख्यमंत्री पंडित रविशंकर शुक्ल. जिनकी ज़िंदगी में एक बार नमक का दारोगा घटी थी.
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रविशंकर की सियासत समझने के लिए उनकी जिंदगी के ठिए समझने होंगे. पिता जगन्नाथ सागर में बसे थे. फिर राजनांदगांव चले गए. 'बेंगाल नागपुर कॉटन मिल' चलाने. कुछ बरस बाद शुक्ल परिवार रायपुर आ गया. फिर रवि पढ़ाई के लिए जबलपुर, नागपुर भी गए. सागर (बुंदेलखंड), रायपुर( छत्तीसगढ़), जबलपुर( महाकोशल), नागपुर (महाराष्ट्र). इन जगहों के नाम याद रखिएगा. क्योंकि अब नमक का दरोगा कहानी का जीवित वर्जन अपने पहले अंक में प्रवेश कर रहा है.
1899-1900 में भारत में भीषण अकाल पड़ा था. (फोटो: Wikipedia)
1899-1900 में भारत में भीषण अकाल पड़ा था. (फोटो: Wikipedia)

1900 में भीषण अकाल पड़ा. रवि इसमें काम करने के लिए रायपुर के पास सरायपाली गए. फिर कुछ बरस जबलपुर, अपने हाई स्कूल वाला शहर, वहां मास्टर रहे. मन नहीं लगा तो रायपुर लौटे और वकालत करने लगे. जिसकी डिग्री उन्होंने नागपुर में हासिल की थी. मगर सिर्फ डिग्री नहीं, कांग्रेस और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की सोहबत भी वहीं मिली थी. सो रायपुर में वकील साहब कांग्रेसी हो गए. फिर इसी फेर में गिरफ्तार भी हुए. तभी का ये वाकया है. उन्हें एक बार गिरफ्तार कर सिवनी जेल लाया गया. अंग्रेज़ सरकार हर बंदी के अंगूठे के निशान लेती थी. तो शुक्ल से भी अंगूठा लगाने को कहा गया. लेकिन उन्होंने कहा. -
'राजनैतिक बंदी हूं,कोई उचक्का नहीं, जो अंगूठे की छाप दूं.'
इसी सिवनी जेल में रविशंकर शुक्ल को लाया गया था.
इसी सिवनी जेल में रविशंकर शुक्ल को लाया गया था.

सिवनी के डिप्टी कलेक्टर एक नौजवान भूरे साहब थे. आर एन पेंढारकर. वो अंगूठे की छाप पर अड़ गए. हाथापाई हुई. जेल के कोई दस अधिकारी-सिपाहियों ने मिलकर शुक्ल को चित कर दिया. पेंढारकर बाबू शुक्ल की छाती पर चढ़कर बैठ गए. तब जाकर किसी तरह अंगूठे की छाप हो पाई. इस घटना के खूब चर्चे हुए. शुक्ल इसके बाद पेंडारकर को कभी नहीं भूले.
2. शुक्ल बने पीएम
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1937 के चुनाव में मध्यप्रांत (जबलपुर से लेकर हैदराबाद स्टेट की सीमा तक पसरा) में कांग्रेस की सरकार बनी और प्रधानमंत्री बने विदर्भ से आने वाले नारायण भास्कर खरे.

भड़भड़ाइए मत. हम नए सिरे से इतिहास नहीं लिख रहे. करीब एक दशक तक राज्यों के मुख्यमंत्रियों को प्रधानमंत्री ही कहा जाता था. बात शुरू होती है 1937 से. अंग्रेज़ सरकार ने केंद्रीय और प्रांतीय काउंसिल के लिए चुनाव कराए. तब इन्हें धारा सभा कहते थे. मध्यप्रांत (जबलपुर से लेकर हैदराबाद स्टेट की सीमा तक पसरा) में कांग्रेस की सरकार बनी और प्रधानमंत्री बने विदर्भ से आने वाले नारायण भास्कर खरे. ये वही नारायण भास्कर खरे थे जो आगे चलकर अलवर के प्रधानमंत्री हुए और जिनपर महात्मा गांधी की हत्या करवाने का इल्ज़ाम लगा. भास्कर पर आरोप सिद्ध नहीं हुए और वो बरी हो गए थे.

एक कथित प्रेम प्रसंग की वजह से डीपी मिश्र प्रधानमंंत्री नहीं बन पाए और फिर प्रधानमंत्री बने रविशंकर शुक्ल.

खैर, चुनाव में रविशंकर शुक्ल भी जीतकर काउंसिल पहुंचे थे. उन्हें शिक्षा मंत्री बनाया गया. दो साल पहले माने 1935 में मध्यप्रांत और बरार मिलाकर एक कर दिए गए थे. तो खरे ऐसे इलाके के प्रधानमंत्री हुए थे जहां तीन अलग-अलग तासीर के इलाके थे - विदर्भ, महाकोशल और बरार. ये कलह की भूमिका थी और कलह हुई भी. खरे ने महाकोशल के तीनों नेताओं का इस्तीफा मांग लिया - रविशंकर शुक्ल, डीपी मिश्र और दुर्गा शंकर मेहता. खरे नहीं जानते थे कि वो महाकोशल की तिकड़ी को सरकार से बाहर करने के चक्कर में उनका अपना तख्ता पलट जाएगा. कांग्रेस हाईकमान ने खरे को बाहर का रास्ता दिखा दिया. खरे के जाने के बाद प्रधानमंत्री पद के लिए नाम आगे आया पं. द्वारका प्रसाद मिश्र का. लेकिन अपनी किताब 'मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश के' में नामी पत्रकार-संपादक मायाराम सुरजन ने लिखा कि एक कथित प्रेम प्रसंग के चलते मिश्र की गाड़ी अटक गई. और तब प्रधानमंत्री बनाया गया पंडित रविशंकर शुक्ल को.
आजादी से पहले मध्यप्रांत एक बड़ा भू-भाग था, जो बाद में मध्यप्रदेश बना.
आजादी से पहले मध्यप्रांत एक बड़ा भू-भाग था, जो बाद में मध्यप्रदेश बना.

1939 में जब ब्रिटेन ने हिंदुस्तान को बिना भरोसे में लिए विश्वयुद्ध का हिस्सा बना दिया तो देशभर की कांग्रेस सरकारों ने इस्तीफा दे दिया. इसके बाद दोबारा चुनाव हुए 1946 में. शुक्ल दोबारा मध्यप्रांत के प्रधानमंत्री बने. जब तक देश गणतंत्र नहीं बन गया, वो इसी पद पर रहे. 26 जनवरी, 1950 से शुक्ल के पद का नाम हो गया मध्यप्रांत का मुख्यमंत्री.
और फिर दिया दारोगा को सिला
अंग्रेज अफसरों ने जबरन रविशंकर शुक्ल से अंगूठे का निशान लिया था.

मध्यप्रांत का मुख्यमंत्री होने के बाद शुक्ल के पास एक दिन डिप्टी कलेक्टरों के प्रमोशन की एक फाइल आई. फाइल में पेंढारकर का नाम देखकर शुक्ल ने गृह सचिव नरोन्हा को बुलाया. सवाल किया, 'क्या ये वही पेंढारकर है जिसने सिवनी जेल में मेरी छाती पर चढ़कर अंगूठे का निशान लिया था?' नरोन्हा सच जानते थे, लेकिन किसी का करियर बरबाद न हो इसलिए कह दिया कि सर उस समय मैं सर्विस में नहीं आया था तो मुझे जानकारी नहीं. शुक्ल ने पेंढारकर से जुड़ी फाइलें मंगा लीं. उन्हें देखकर शुक्ल ने गृह सचिव से कहा, ''ये वही आदमी मालूम होता है. अच्छा अफसर है. इसे तरक्की मिलनी चाहिए.'' पेंढारकर डिप्टी कमिश्नर हो गए. फिर जबलपुर नगर निगम के प्रशासक भी हुए. जबलपुर महाकोशल का दिल है. और महाकोशल शुक्ल की कर्मभूमि. ये शुक्ल की ज़िंदगी का नमक का दारोगा मोमेंट था. नमक का दारोगा में भी सेठ अलोपिदीन अपमान को किनारे रखते हैं और दारोगा को ईमानदारी का इनाम जायदाद का मैनजर बनाकर देते हैं.
जब नेहरू ने शुक्ल पर 'नज़र' रखना शुरू किया
एक वक्त ऐसा भी आया, जब नेहरू ने शुक्ल पर नज़र रखनी शुरू कर दी.
एक वक्त ऐसा भी आया, जब नेहरू ने शुक्ल पर नज़र रखनी शुरू कर दी.

लेकिन सबकुछ अच्छा ही नहीं चल रहा था. पहले आम चुनाव से ऐन पहले शुक्ल के गृहमंत्री और जिगरी दोस्त डीपी मिश्र ने सरकार से इस्तीफा देकर भारतीय लोक कांग्रेस बना ली. वजह बताई प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का 'तानाशाही' रवैया और प्रदेश कांग्रेस कमेटियों में कांग्रेस हाईकमान का सीधा दखल. डीपी मिश्र की तरह सोचने वाले बहुत थे, लेकिन किसी में दम नहीं था कि मिश्र के साथ जाए. मिश्र ने शुक्ल को हताशा में खत लिखा - आत्महत्या करने का मन होता है. शुक्ल ने अपने दोस्त से कहा कि 52 का चुनाव वो जीत जाएं तो कांग्रेस में लेकर अपने कैबिनेट में शामिल कर लेंगे.
डीपी मिश्र (बाएं) के लिए रविशंकर शुक्ल ने नेहरू की नाराजगी मोल ले ली थी.
डीपी मिश्र (बाएं) के लिए रविशंकर शुक्ल ने नेहरू की नाराजगी मोल ले ली थी.

शुक्ल के जीतने, न जीतने का सवाल नहीं था. वो सरायपाली से लड़े, जीते और मुख्यमंत्री हुए. लेकिन मिश्र कांग्रेस की आंधी के आगे टिके नहीं. तीन जगह से लड़े और हार गए. बात मिश्र की हार के साथ ही खत्म हो जाती लेकिन किसी ने मिश्र और शुक्ल की बातचीत नेहरू के कान तक पहुंचा दी. नेहरू मिश्र की बगावत को माफ करने के मूड में कतई नहीं थे. अब उनकी नज़र शुक्ल पर भी तिरछी हो गई. इतनी तिरछी कि जब 1954 में नैनपुर-मोहगांव (मंडला) उपचुनाव में जब मिश्र प्रजा समाजवादी दल की तरफ से उतरे तो कांग्रेस हाईकमान ने शुक्ल पर नज़र रखने के लिए विंध्य से लोकसभा सदस्य मन्नालाल द्विवेदी और बिहार से तारकेश्वरी सिन्हा को पर्यवेक्षक (ऑब्ज़र्वर) बनाकर भेजा. इस हार के बाद मिश्र कांग्रेस में लौट आए. लेकिन हाईकमान की नाराज़गी कम नहीं हुई. और इस नाराज़गी ने शुक्ल का पीछा भी नहीं छोड़ा.
और फिर बना गणेश जैसा बेडौल प्रदेश
इस नक्शे को
इस नक्शे को देखकर नेहरू ने कहा था कि ऐसा लंबा-चौड़ा और बेढ़ंगा प्रदेश कैसे बन सकता है.

लोक के लिए शुक्ल की ज़िंदगी का सबसे ठोस परिचय उनका मध्यप्रदेश का पहला मुख्यमंत्री होना है. और मध्यप्रदेश बनाना शुक्ल के राजनैतिक करियर का सबसे बड़ा प्रोजेक्ट था. भिलाई के कारखाने से भी बड़ा. राज्य पुनर्गठन आयोग ने अनुशंसा तो कर दी थी कि पांच राज्यों के इलाके मिलाकर मध्यप्रदेश बने लेकिन ज़मीन पर किसी को भरोसा नहीं होता था कि ऐसा राज्य बन सकता है. पंडित जवाहरलाल नेहरू तक ने जब पहली बार मध्यप्रदेश का नक्शा देखा, तो उनके मुंह से निकल ही गया था-
'अरे! ये क्या अजूबा है. ऐसा लंबा-चौड़ा और बेढंगा प्रदेश कैसे बन सकता है?'
आयोग की सिफारिश के बाद जबलपुर में हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस में रवि शुक्ल से भी पत्रकारों ने भी यही पूछा-
'क्या यह भी कोई राज्य बना! गणेश के स्वरूप जैसा बेडौल! कहीं हाथ, कहीं पांव, कहीं सिर!'
शुक्ल ने कहा-
'ठीक तो कहते हो, गणेशजी जैसा गुण संपन्न भी!'

भोपाल के मुख्यमंत्री शंकरदयाल शर्मा चाहते थे कि भोपाल ही मध्यप्रदेश की राजधानी बने.

लेकिन भाषा की जादूगरी से राजनीतिक होड़ पर लगाम नहीं लगती. मध्यप्रदेश में मिलने वाले सूबों में मध्य भारत सबसे अमीर था. वहां के नेता मध्यप्रदेश में मिलना नहीं चाहते थे. वैसा ही हाल विंध्य का था. वहां के नेता या तो अलग रहना चाहते थे, या फिर उत्तर प्रदेश में मिलना. भोपाल के मुख्यमंत्री शंकरदयाल शर्मा मध्यप्रदेश में मिलने के तो खिलाफ नहीं थे, लेकिन वो चाहते थे कि भोपाल राजधानी बने. ये इंदौर, जबलपुर, ग्वालियर और रायपुर सबको अस्वीकार था. महाकोशल, विंध्य और मध्यप्रांत की कांग्रेस कमेटियां तक एक दूसरे की सगी नहीं थीं. किसी तरह बैठक पर बैठक करके सबको साथ लिया गया. सब तय होने के बाद 16 अक्टूबर 1956 को मध्यप्रांत की राजधानी नागपुर में एक बैठक हुई. पंडित शुक्ल को सर्वसम्मति से नेता चुना गया और वो नए मध्यप्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बने. बाकी तीन सूबों के मुख्यमंत्री शुक्ल के कैबिनेट में मंत्री बने.
पंडित नेहरू चाहते थे कि नए मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री कोई और बने, लेकिन रविशंकर शुक्ल की तरह कोई सर्वमान्य नेता ही नहीं था.
पंडित नेहरू चाहते थे कि नए मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री तख्त्मल जैन बनें, लेकिन रविशंकर शुक्ल की तरह कोई सर्वमान्य नेता ही नहीं था.

लेकिन ये सर्वसम्मति महज़ ऊपरी थी. कांग्रेस हाईकमान और खासकर नेहरू ये चाहते थे कि शुक्ल स्वेच्छा से रिटायर हो जाएं. और मध्यभारत के मुख्यमंत्री तख्तमल जैन को नए मध्यप्रदेश की सीएम सीट मिले. फिर भी शुक्ल नए मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने, तो उसकी सबसे बड़ी वजह यही थी कि इतने विविध इलाके की राजनीति में सर्वमान्य नेता तब वही थे. उनका नाम आगे न किया जाता तो शायद कांग्रेस वाले ही एकमत नहीं होते. फिर सबका यही विचार था कि तीन महीने में चुनाव होने ही थे, तब नए सिरे से सत्ता बांटी जा सकती थी.
डीपी मिश्रा से दोस्ती की कीमत भी चुकाई शुक्ल ने
रविशंकर शुक्ला ने सेठ गोविंद दास के मिलकर डीपी मिश्रा का नाम आगे कर दिया, जिससे नेहरू रविशंकर शुक्ला से नाराज हो गए.
रविशंकर शुक्ला ने सेठ गोविंद दास के मिलकर डीपी मिश्रा का नाम आगे कर दिया, जिससे नेहरू रविशंकर शुक्ला से नाराज हो गए.

फरवरी-मार्च 1957 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए महाकोशल कांग्रेस कमेटी ने प्रत्याशियों की लिस्ट दिल्ली भेजी. महाकोशल कांग्रेस कमेटी ने पं नेहरू की नाराज़गी को दरकिनार करते हुए द्वारका प्रसाद मिश्र का नाम भी प्रत्याशियों में लिख दिया. वरिष्ठ पत्रकार विजयदत्त श्रीधर अपनी किताब 'शह और मात' में लिखते हैं कि पंडित रविशंकर के शुभचिंतकों ने उन्हें इस बात पर टोका भी था. लेकिन शुक्ल ने दोस्ती निभाई और सूची डीपी मिश्र के नाम के साथ दिल्ली पहुंच गई. कांग्रेस हाईकमान डीपी मिश्रा की बगावत और इसे लेकर नेहरू के सख्त रवैये से वाकिफ थी. उसे ये समझने में वक्त नहीं लगा कि डीपी मिश्रा का नाम रवि शंकर शुक्ल और महाकोशल कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष सेठ गोविंददास की सहमति से ही सूची में लिखा गया होगा. शुक्ल ने सब जानकर जोखिम लिया था. वो इस बात के पैरोकार थे कि मिश्र उनके बाद मध्यप्रदेश के सीएम बन जाएं. एक इच्छा उनकी ये भी थी कि बेटे विद्याचरण को लोकसभा का टिकट मिल जाए.
आपकी सेवा अन्यत्र ली जाएंगी...राजनीतिक अंत का बयान
जवाहर लाल नेहरू के कहने पर मौलाना अबुल कलाम आजाद ने रविशंकर शुक्ल से कहा कि अब आपकी सेवाएं दूसरी जगह ली जाएंगी. ये राजनीति से रिटायर होने का संकेत था.
जवाहर लाल नेहरू के कहने पर मौलाना अबुल कलाम आजाद ने रविशंकर शुक्ल से कहा कि अब आपकी सेवाएं दूसरी जगह ली जाएंगी. ये राजनीति से रिटायर होने का संकेत था.

30 दिसंबर, 1956 की शाम. शहर दिल्ली. ये नतीजे की घड़ी थी. कांग्रेस संसदीय बोर्ड के कद्दावर सदस्य मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने पं रविशंकर शुक्ल को 7, जंतर मंतर स्थित कांग्रेस दफ्तर बुलवाया. शुक्ल दफ्तर जाने से पहले थोड़े आशंकित तो थे, क्योंकि दूसरों की तरह अखबारों में उन्होंने भी ये पढ़ लिया था कि उन्हें सीएम पद से हटाकर गवर्नर हाउस भेजा जा सकता है. माने लूप लाइन. लेकिन दफ्तर में वो हुआ जो शुक्ल ने सपने में भी नहीं सोचा था. शुक्ल जब दफ्तर से बाहर निकले तो उनके चहरे का रंग उड़ा हुआ था.
अपने ठिकाने लौटने की जगह वह चार घंटे कनॉट सर्कस में घूमते रहे. साथ में थे कांग्रेस नेता हरिश्चंद्र मारोठी. मारोठी के मार्फत ही दुनिया ने जाना कि उस दिन कांग्रेस दफ्तर में क्या हुआ था. शुक्ल से कांग्रेस दफ्तर में ये कहा गया था कि न विद्याचरण को टिकट मिलेगा और न डीपी मिश्र सीएम बनेंगे. मिश्र को टिकट ही नहीं दिया जाना था. लेकिन शुक्ल का दिल तोड़ने वाली बात आखिर में कही गई –
'आपकी सेवाओं का उपयोग अब 'अन्यत्र' किया जाएगा.'

टिकट कटने के अगले ही दिन रविशंकर शुक्ला को दिल का दौरा पड़ा और उनकी मौत हो गई.

यह साफ इशारा था कि कांग्रेस 1957 के विधानसभा चुनाव के लिए शुक्ल का टिकट काटने का पूरा मन बना चुकी थी. 78 साल के शुक्ल के लिए ये किसी सदमे से कम नहीं था. अब शुक्ल लौटना चाहते थे. लेकिन जाते कहां. तब दिल्ली में मध्यप्रदेश भवन नहीं बना था. मध्यप्रदेश के नेता दिल्ली में कोटा हाउस में ठहरते थे. लेकिन शुक्ल का मन लगता था 3 केनिंगलेन पर. ये उनके दोस्त सेठ गोविंददास को बतौर सांसद मिला सरकारी बंगला था. वहीं चले गए. इसी घर में अगले दिन माने 31 दिसंबर, 1956 को दोपहर 11 से 12 के बीच किसी घड़ी शुक्ल को दिल का दौरा पड़ा और वो शांत हो गए. दोपहर देढ़ बजे ऐलान किया गया कि देश के सबसे बड़े राज्य के पहले मुख्यमंत्री पं रविशंकर शुक्ल नहीं रहे. मध्यप्रदेश शासन की सील पर आज भी बरगद का निशान है. शुक्ल की कहानी जानने वाले उस बरगद को देखकर उन्हें ही याद करते हैं.


 

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