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क्या शंकराचार्य के कहने पर इंदिरा गांधी ने पंजे को कांग्रेस का चुनाव चिन्ह बनाया था?

आज ही के दिन 1980 में इंदिरा गांधी ने चौथी बार पीएम पद की शपथ ली थी

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नए चुनाव चिन्ह के साथ इंदिरा गांधी ने 1980 में बड़ी जीत हासिल की थी.
14 जनवरी 2021 (Updated: 13 जनवरी 2021, 03:54 IST)
Updated: 13 जनवरी 2021 03:54 IST
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1977 में क्या कोई सोच सकता था कि इमरजेंसी का दंश झेल चुका देश इंदिरा गांधी को दोबारा मौका देगा? उस दौर में क्या किसी काॅलेज गोइंग स्टूडेंट के घरवाले और नाते-रिश्तेदार इंदिरा गांधी को दोबारा प्रधानमंत्री की कुर्सी पर देखने के लिए तैयार होंगे, जिनके बच्चों ने लाठियां खाने से लेकर सलाखों के पीछे जाने तक की ज्यादतियों को सहा था?

लेकिन कहते हैं न कि लोकतंत्र में जनता की याद्दाश्त कमजोर होती है. पौने तीन साल बाद देश की जनता ने वह सब कुछ भुला दिया, और इंदिरा गांधी को फिर से 1971 जैसी बड़ी चुनावी जीत दिला दी. लेकिन आखिर कैसे हुआ यह सब? आइए इसकी तह तक जाने की कोशिश करते हैं.

1977 का लोकसभा चुनाव. सब जानते हैं कि इस चुनाव में इमरजेंसी की ज्यादतियों से परेशान जनता ने इंदिरा गांधी की सरकार का बैंड बजा दिया. इस चुनाव में कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई. चुनाव के दौरान कांग्रेस के चुनाव चिन्ह 'गाय और बछड़ा' को इंदिरा गांधी और संजय गांधी से जोड़कर प्रचारित किया गया, जिससे कांग्रेस का माहौल और खराब हुआ. कांग्रेस के अंदर इंदिरा गांधी और यशवंत राव चव्हाण के बीच सत्ता संघर्ष छिड़ गया. इस सत्ता संघर्ष की चरम परिणति 1977 के आखिर में इंदिरा गांधी के कांग्रेस से निष्कासन के रूप में हुई.


इंका के गठन के समय प्रणव मुखर्जी और नरसिंह राव इंदिरा गांधी के प्रमुख सिपहसालार हुआ करते थे.
इंका के गठन के समय प्रणव मुखर्जी और नरसिंह राव इंदिरा गांधी के प्रमुख सिपहसालार हुआ करते थे.
पंजा चुनाव चिन्ह कैसे मिला?

कांग्रेस से निकाले जाने के बाद 1 जनवरी 1978 को इंदिरा गांधी ने अपनी कांग्रेस खड़ी की. नाम रखा गया कांग्रेस (इंदिरा). संक्षेप में कहें तो इंका. नई पार्टी का चुनाव आयोग में एक राजनीतिक दल के रूप में रजिस्ट्रेशन करवाया गया. तब चुनाव आयोग ने इंका को चुनाव चिन्ह के लिए 3 विकल्प दिए. ये थ- हाथी, साइकिल और पंजा.

दूसरी ओर इंदिरा गांधी अपनी नई पार्टी का संगठन खड़ा करने के मकसद से देशव्यापी दौरे करने लगीं. दिल्ली में पार्टी का काम जैसे चुनाव आयोग, प्रेस ब्रीफिंग, कार्यक्रम और एजेंडा वगैरह देखने के लिए 3 नेताओं को महासचिव बनाकर तैनात कर दिया. ये 3 नेता थे- प्रणव मुखर्जी, भीष्म नारायण सिंह और बूटा सिंह.

ऐसे में एक दिन चुनाव चिन्ह का मामला फाइनल करने के लिए चुनाव आयोग ने इंका नेताओं को बुलाया. इंदिरा गांधी उस दिन पीवी नरसिंह राव के साथ आन्ध्र प्रदेश के दौरे पर थीं, इसलिए पार्टी की तरफ से बूटा सिंह चुनाव आयोग पहुंचे. चुनाव आयोग के अधिकारियों ने बूटा सिंह से चुनाव चिन्ह के लिए दिए गए विकल्पों के बारे में पूछा. इस पर बूटा सिंह ने अधिकारियों से कहा, 'मैडम (इंदिरा गांधी) से बात करके बताता हूं.'

बाहर निकलकर बूटा सिंह ने आन्ध्र प्रदेश में मौजूद इंदिरा गांधी को फोन लगाया. वह जमाना मोबाइल फोन, 4G, 5G और वॉट्सऐप का नहीं था. टेक्नीकल दिक्कतों से फोन लाइन का डिस्टर्ब रहना आम बात थी. उस दिन इंदिरा गांधी और बूटा सिंह की बातचीत के दौरान भी यही हो रहा था. ऊपर से बूटा सिंह के बोलने का पंजाबी लहजा भी हाथ (पंजा) और हाथी के अंतर को स्पष्ट नहीं कर पा रहा था. थक-हारकर इंदिरा गांधी ने पीवी नरसिंह राव को फोन थमा दिया. इसके बाद किसने क्या बोला और किसने क्या सुना, ये बूटा सिंह और नरसिंह राव ही जानें. लेकिन दोनों की बातचीत का लब्बोलुआब यही था कि नरसिंह राव ने हाथ यानी पंजा चुनाव चिन्ह पर अपनी सहमति जता दी. इसके बाद बूटा सिंह ने चुनाव आयोग को पार्टी की इच्छा से अवगत करा दिया. इस प्रकार हाथ यानी पंजा चुनाव चिन्ह इंका को मिल गया.


बूटा सिंह ने चुनाव चिन्ह के मामले में चुनाव आयोग में इंका का पक्ष रखा था.
बूटा सिंह ने चुनाव चिन्ह के मामले में चुनाव आयोग में इंका का पक्ष रखा था.
लेकिन इसकी एक अलग कहानी भी है इस अलग थ्योरी के अनुसार,  1977 की चुनावी हार, पार्टी से निकाला जाना, शाह कमीशन और कोर्ट-कचहरी का चक्कर, इन सब से परेशान इंदिरा गांधी तांत्रिकों और धर्मगुरुओं की शरण में जाने लगी थीं. इसी क्रम में एक दिन वे कांची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य स्वामी चन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती के पास पहुंचीं. उनसे अपनी नई पार्टी इंका के लिए लकी चुनाव चिन्ह के बारे में चर्चा की. कहा जाता है कि शंकराचार्य ने इंदिरा गांधी की पूरी बात को बड़े गौर से सुना, और तथास्तु की मुद्रा में अपना हाथ उठा दिया. इसके बाद इंदिरा गांधी ने तथास्तु की मुद्रा वाले हाथ के पंजे को अपनी पार्टी के चुनाव चिन्ह के तौर पर फ्रीज कराने के लिए चुनाव आयोग में आवेदन करने का मन बना लिया.

खैर, कारण चाहे जो भी रहा हो लेकिन इंका को हाथ यानी पंजा चुनाव चिन्ह मिल गया. अगले कई चुनावों तक इंका का मुख्य चुनावी नारा रहा,

"जात पर न पांत पर

मुहर लगेगी हाथ पर"


1980 से लेकर अबतक कांग्रेस का चुनाव निशान हाथ यानी पंजा है.
1980 से लेकर अब तक कांग्रेस का चुनाव निशान हाथ यानी पंजा है.
1979-80 की चुनावी सफलता और संजय गांधी की भूमिका

1977 में बनी जनता पार्टी की मोरारजी देसाई की सरकार अपनी पार्टी के आपसी अंतर्कलह से 1979 आते-आते बिखर गई. फिर बनी चौधरी चरण सिंह की सरकार, लेकिन उससे भी इंदिरा गांधी ने समर्थन वापस ले लिया. आखिरकार मध्यावधि चुनाव की नौबत आ गई.

दिसंबर 1979 के दूसरे पखवाड़े और जनवरी 1980 के पहले सप्ताह में सातवीं लोकसभा के गठन के लिए चुनाव करवाए गए. इस चुनाव में तीनतरफा लड़ाई हो रही थी.

एक तरफ थी चंद्रशेखर की अध्यक्षता वाली जनता पार्टी, जिसने प्रधानमंत्री पद के लिए जगजीवन राम का चेहरा आगे किया था.

दूसरी तरफ प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की जनता पार्टी (सेक्युलर) और उप-प्रधानमंत्री यशवंतराव चव्हाण की कांग्रेस (उर्स) का गठबंधन था, जिसे वाम दलों का भी समर्थन हासिल था.

लेकिन इस चुनाव की तीसरी धुरी बना रही थी इंदिरा गांधी की नवगठित पार्टी इंका. शुरू में लोग इस पार्टी को बहुत गंभीरता से नहीं ले रहे थे, लेकिन जैसे-जैसे चुनाव करीब आता गया, राजनीतिक पंडितों को इंदिरा गांधी के अंडरकरंट का अहसास होने लगा. इस अंडरकरंट की 3 प्रमुख वजहें मानी जाती है-

पहली- जनता पार्टी की अंतर्कलह के कारण उसके दोनों खेमों- चंद्रशेखर-जगजीवन राम और चरण सिंह-राजनारायण, के प्रति जनता में निराशा का भाव पैदा हो गया था. लोगों को लगता था कि इससे ठीक तो इंदिरा गांधी ही थी.

दूसरी, 1979-80 में ऐन चुनाव के वक्त प्याज महंगा हो गया. तब प्याज की कीमतों को इंदिरा गांधी और संजय गांधी ने बड़ा मुद्दा बना दिया.

तीसरी, इस चुनाव में इंका की पूरी चुनावी कमान खुद संजय गांधी ने संभाल रखी थी. वही संजय गांधी, जिन्हें 1977 में कांग्रेस की हार की बड़ी वजह माना गया था. लेकिन इस बार खासकर उत्तर भारत की एक-एक सीट और उसके टिकट के दावेदारों की स्क्रूटनी खुद संजय गांधी कर रहे थे. टिकट वितरण के दरम्यान संजय गांधी ने 2 बातों का खासा ध्यान रखा. ये थीं-

1.एक-एक सीट पर दोनों प्रतिद्वंद्वी गठबंधन के कैंडीडेट कौन हैं, इसका पता लगाना. उसी के बाद स्थानीय परिस्थितियों के मद्देनजर अपने कैंडीडेट का पत्ता खोलना.

2. कैंडीडेट सिलेक्शन में संजय गांधी ने कई मामलों में परंपरागत राजनीतिक भूगोल की अनदेखी कर दी और अपने उम्मीदवार का ऐलान कर दिया. जम्मू-कश्मीर के गुलाम नबी आजाद को महाराष्ट्र के वाशिम से, गाजियाबाद के राजेश पायलट को राजस्थान के भरतपुर से, पटना के तारिक़ अनवर को कटिहार से और केरल के सीएम स्टीफन को अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ दिल्ली से चुनावी मैदान में उतारा गया.

इन सब प्रयासों का नतीजा यह निकला कि इंका को 543 सदस्यों की लोकसभा में 353 सीटें मिल गईं. यानी 1977 की चुनावी हार (153 सीटें) से 200 सीटें ज्यादा. उत्तर से दक्षिण तक इंका को भारी कामयाबी मिली. इंदिरा गांधी के पक्ष में चली चुनावी लहर में किसी भी अन्य दल को लोकसभा की 10 प्रतिशत सीटें (55 सीटें) भी नहीं मिलीं कि मुख्य विपक्षी दल का दर्जा दिया जा सके. जनता पार्टी (सेक्युलर) को 41 और जनता पार्टी को 31 सीटें मिली थीं. विपक्ष के लिए राहत की बात यही थी कि उसके ज्यादातर बड़े नेता चुनाव जीतने में सफल रहे थे. चौधरी चरण सिंह, यशवंतराव चव्हाण, चंद्रशेखर, जगजीवन राम, अटल बिहारी वाजपेयी, मधु दंडवते, जॉर्ज फर्नांडीस, इंद्रजीत गुप्त, सब अपनी पार्टी की हार के बावजूद लोकसभा पहुंचने में कामयाब रहे थे. इंका की ओर से इंदिरा गांधी ने अपनी दोनों लोकसभा सीट- उत्तर प्रदेश की रायबरेली और आन्ध्र प्रदेश की मेडक जीती. रायबरेली में इंदिरा ने जनता पार्टी की विजयराजे सिंधिया को और मेडक में जनता पार्टी के ही एस. जयपाल रेड्डी को बड़े अंतर से हराया था. अमेठी में संजय गांधी भी जीत गए थे. इंका के अधिकांश बड़े नेता चुनाव जीत गए थे. केवल सीएम स्टीफन (नई दिल्ली) और प्रणव मुखर्जी (बोलपुर) जैसे बड़े नेताओं को ही हार का मुंह देखना पड़ा था.


1979-80 के चुनाव में इंदिरा गांधी की कांग्रेस को बड़ी सफलता दिलाने में उनके बेटे संजय गांधी का बड़ा योगदान था.
1979-80 के चुनाव में इंदिरा गांधी की कांग्रेस को बड़ी सफलता दिलाने में उनके बेटे संजय गांधी का बड़ा योगदान था.

इसके बाद 14 जनवरी 1980 को मकर संक्रांति के दिन इंदिरा गांधी ने देश की सत्ता संभाली. इस दिन राष्ट्रपति भवन के अशोक हाॅल में तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने इंदिरा गांधी और उनके कैबिनेट सहयोगियों को शपथ दिलाई. इस शपथ ग्रहण समारोह में लोगों को सबसे ज्यादा आश्चर्य तब हुआ, जब चुनाव हार चुके प्रणव मुखर्जी को भी कैबिनेट मंत्री बनाया गया. उन्हें इस्पात एवं खनन (Steel & mines) मंत्री बनाया गया. दूसरी हैरान करने वाली बात ये हुई कि भागलपुर के सासंद भागवत झा आजाद नाम पुकारे जाने के बावजूद शपथ लेने नहीं आए. उन्हें इस बात का मलाल था कि वरिष्ठता के बावजूद उन्हें कैबिनेट मंत्री के बजाए राज्य मंत्री बनाया जा रहा था. वह राज्य मंत्रियों की लिस्ट में अपना नाम देखकर पहले ही अशोक हाॅल से खिसक लिए थे.

इसके बाद इंदिरा गांधी ने लगभग 5 साल (2 महीने कम) अपनी सरकार चलाई. सरकार गठन के कुछ ही महीनों बाद इंदिरा गांधी को बड़ा व्यक्तिगत धक्का तब लगा, जब 23 जून 1980 को उनके छोटे बेटे और 5 महीने पहले मिली चुनावी जीत के आर्किटेक्ट संजय गांधी की विमान दुर्घटना मृत्यु हो गई. इसके बाद उनके बड़े बेटे और पेशे से पायलट राजीव गांधी की सियासत में एंट्री हुई, जो अक्टूबर 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पार्टी और सरकार, दोनों में उनके उत्तराधिकारी बने.


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