इरफान के गुज़रने के बाद उनकी पहली फिल्म रिलीज़ हुई है. बांग्ला भाषा में बनी इस बांग्लादेशी फिल्म का नाम है ‘डूब- नो बेड ऑफ रोजेज़’. बांग्लादेश के सूचना मंत्रालय ने ‘डूब’ को नो-ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट यानी NOC देने से इन्कार कर दिया था. वजह ये थी कि बांग्लादेश की मशहूर सिंगर महर अफरोज़ को ये लगा कि इस फिल्म की कहानी उनके पति और बांग्लादेश के सम्मानित राइटर और फिल्ममेकर हुमायूं अहमद के जीवन से प्रेरित है. विवादों का दामन छोड़ फाइनली ये फिल्म नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ हो गई है. आगे हम इस फिल्म को देखने के अनुभव पर बात करेंगे.

ये कहानी है जावेद हसन नाम के एक फिल्ममेकर की. जावेद अपने दो बच्चों और पत्नी के साथ छुट्टियां मनाने गए हुए हैं. वो वहां टहलते हुए वो अपनी पत्नी माया से कहते हैं- ”हमारी मैरिड लाइफ पहले जैसी नहीं रही.” जिसके जवाब में माया कहती हैं- ‘‘तुम हमेशा पीछे की बात करते हो, जैसे आज हम तुम्हारे सामने हैं ही नहीं.” लौटकर जावेद जब अपनी कर्मभूमि ढाका पहुंचते हैं, तो उनका सामना एक कॉन्ट्रोवर्सी से होता है. हुआ ये कि जावेद की गैर-मौज़ूदगी में उनकी फिल्म की हीरोइन नीतू ने मीडिया से कह दिया है कि उनके और जावेद के बीच ‘स्पेशल फ्रेंडशिप’ है. नीतू, जावेद की बेटी साबेरी की बैचमेट और बेस्ट फ्रेंड है. ये चीज़ हसन परिवार में एक अनकहा सा तूफान ला देती है. जावेद दिमागी शांति के लिए कुछ दिनों के लिए परिवार से दूर चले जाते हैं. इतने दूर कि फिर कभी वापस नहीं आ पाते. नीतू से शादी करके दोबारा वो अपना घर बसा लेते हैं. मगर बंजर जमीन पर रिश्तों की पौध भी कहां उग पाती है. इसी तरह की तमाम टूटी हुई कड़ियों को जोड़कर उसके सहारे खड़े होने की कहानी है- ‘डूब’.

‘डूब’ का अर्थ वही है, जो आप समझ रहे हैं. मगर सवाल है कि डूबना किसे है! उस महिला को, जिसके पति ने उसे छोड़कर दूसरा घर बसा लिया? या उस बेटी को, जिसकी बेस्ट फ्रेंड ने उसका पिता छीन लिया? या उस पति और पिता को जिसका बसा-बसाया परिवार छूट गया? इन सवालों के जवाब ये फिल्म नहीं देती. वो आपकी इंटरप्रेटेशन पर छोड़ देती है. फिल्म सबके नज़रिए से इस कहानी को दिखाती है, मगर किसी का पक्ष नहीं लेती. सही-गलत में अंतर करने का जहमत नहीं उठाती. कम शब्दों में कहें, तो स्पून फीडिंग नहीं करती.
फिल्म में एक सीन है, जहां जावेद पानी मांगता है. मगर घर का कोई भी सदस्य उसकी मांग का जवाब नहीं देता. नाराज़ जावेद घर से बाहर निकल जाता है. उसकी बेटी साबेरी कमरे से बाहर आती है और सड़क पर जा चुके पिता को एक गिलास पानी देकर आती है. वो अपने पिता से बहुत प्यार करती है, मगर उस आदमी से उसे सख्त नफ़रत है, जिसने उससे उसका पिता छीन लिया. वो अपने पिता को पाने के लिए अपने पिता से ही लड़ रही है. यही इस फिल्म की खासियत है. ये रिश्तों की जटिलता को बेहद सरलता से आपके सामने रखती है.

फिल्म में जावेद का रोल किया है इरफान खान ने. ये इरफान का फोर्टे है. वो किरदार, जो ज़ुबां से कम आंखों से ज़्यादा बोलते हैं. वो किरदार जो बोलने से ज़्यादा महसूस करते हैं. सामने वाले को भी वही भाव महसूस करने पर मजबूर करते हैं. फिल्म के एक सीन में जावेद, साबेरी को बताता है कि लोग कब मर जाते हैं. वो कहता है-
”जब आप अपने करीबी लोगों के लिए अप्रासंगिक हो जाते हैं. तब आप मर जाते हैं. जब वो लोग आपके लिए अप्रासंगिक हो जाते हैं, तब आप मर जाते हैं.”
मर जाने को आप लिटरली लेना चाहते हैं मेटाफरीकली, ये आपकी समझपरकता पर निर्भर करता है. बहरहाल, जावेद की बेटी साबेरी का रोल किया है बांग्लादेशी एक्टर नुसरत इमरोज़ तिशा ने. ये फिल्म का ऐसा किरदार है, जिसका एक सिरा कहानी के हर पात्र से जुड़ा हुआ है. जावेद की पत्नी, उसके नीतू के साथ घर बसा लेने वाली बात से खफा है. मगर वो ज़ाहिर नहीं करती. इसलिए ऐसा लगता है कि उसने मूव ऑन कर लिया है. मगर साबेरी अपने पिता के इस किए को कभी पूरी तरह स्वीकार नहीं कर पाती. इसलिए वो हमेशा गुस्से और झुंझलाहट से भरी रहती है. उससे आप एक खास किस्म का जुड़ाव महसूस करते हैं. मगर ये जुड़ाव आपके मॉरल कंपस पर कोई असर नहीं डालता. कहने का मतलब इससे आप साबेरी को सही और जावेद को गलत नहीं मानने लगते. साबेरी की बेस्ट फ्रेंड और उसकी सौतेली मां नीतू का रोल किया है पर्नो मित्रा ने. पर्नो फिल्म में बेहद कम समय के लिए रहती हैं मगर उनकी उपस्थिति फिल्म आपको बार-बार महसूस कराती है.

ब्रोकन फैमिली या दिल, दिमाग और समाज के बीच पिसे लोगों की कहानियों पर यूं तो बेहद कम फिल्में बनती हैं. जो भी बनती हैं, उनमें इतना मेलोड्रामा भर दिया जाता है कि फिल्म की आत्मा मर जाती है. ‘डूब’ में ये चीज़ें बड़ी संजीदगी से पिरोई हुई लगती हैं. नौटंकी नहीं लगती. धीमे-धीमे जैसे ये फिल्म आगे बढ़ती जाती है, आप किसी किरदार की बजाय फिल्म के साथ होते जाते हैं. धीमा होना इस फिल्म की चॉइस है. और फिल्म देख चुकने के बाद आप उस चॉइस से पूरी तरह सहमत होते हैं. फिल्म में कुछ कहकर आपको बताने की जगह आपको दिखाने की कोशिश रहती है. ‘डूब’ के अधिकतर फ्रेम्स खिड़कियों के पीछे से, पेड़ों के नीचे, दरवाज़े के किनारे से आते हैं. अपने कॉन्सेप्ट की तरह फिल्म का कैमरावर्क भी डायरेक्ट तौर पर कुछ कहने से बचता है. मानों एक बड़ी प्राइवेट सी कहानी में झांकनेभर का मौका दे रहा हो.

फिल्म का क्लाइमैक्स शॉकिंग होते हुए भी, बहुत जोर का झटका नहीं देता. ऐसा लगता है किसी का मर जाना उतनी ही आम बात है, जैसे किसी का ज़िंदा रहना. कई बार मौत आपसे कुछ छीन लेने की बजाय आपको देकर जाती है. ‘डूब’ को लेकर बहुत सारी रोमैंटिसाइज़्ड बातें हो सकती हैं लेकिन वो इस फिल्म के साथ बेमानी होगी. ‘डूब- नो बेड ऑफ रोजेज़’ को सिर्फ देखा जा सकता है. कहां- नेटफ्लिक्स पर
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