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'उड़ता पंजाब' रिव्यू: इसका अंधेरा सामने रखा आईना है

सिस्टम आंकड़े देखता है. वो काउंट करता है.. 13, 40, 89. यहीं सिस्टम से एक रचनाकार भिन्न होता है. वो आंकड़ों को नहीं देखता. वो इंसानों को देखता है.

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मियां मिहिर
17 जून 2016 (Updated: 18 जून 2016, 05:28 PM IST) कॉमेंट्स
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फिल्म समीक्षा : उड़ता पंजाब

निर्देशक : अभिषेक चौबे

कलाकार : शाहिद कपूर, आलिया भट्ट, दिलजीत दोसांझ, करीना कपूर खान, मानव गिल, सतीश कौशिक

समय : 2 घंटे 28 मिनट

हम 'उड़ता पंजाब' के दूसरे हिस्से में हैं. खिड़की के बाहर एक बिलबोर्ड है, 'गो गोवा' वाला, जिस पर एक सपनीला दृश्य अंकित है. वो सपना है. उसे एक लड़की देखती है. लेकिन लड़की गुफ़ा में है. अंधी गुफ़ा. बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं. उसी दुनिया में एक लड़का है. वो उस बिलबोर्ड के भीतर है. सपने के भीतर. लेकिन सपना मृगतृष्णा है. टाइमबम, जो कभी भी फट सकता है. लड़का इस सपने से निकल भाग जाना चाहता है. लेकिन उसे समझ आता है कि ये सपना भी एक अंधी गुफ़ा है. अौर वापस जाने का रास्ता वो खुद फूंक आया है.

अौर फिर ये दोनों मिल जाते हैं. दो सच्चाईयां जो एक ही ज़मीन पर मौजूद हैं. लेकिन एक दूसरे की हकीकत से अंजान. 'उड़ता पंजाब' के ये दो किरदार प्रतिनिधि हैं हिन्दुस्तान की दो सच्चाईयों के. एक जिसे हमने 'शाइनिंग इंडिया' नाम दिया है. अौर दूसरा जिसे हमने 'उभरता भारत' कहा. अौर ये आमना-सामना दोनों की असलियत खोलकर रख देता है.

'उड़ता पंजाब' के दूसरे हिस्से में अपने-अपने हिस्से के राक्षसों से भागते टॉमी सिंह (शाहिद कपूर) अौर बिहारन (आलिया भट्ट) जब पहली बार टकराते हैं, यह फिल्म का सबसे ख़ास मौका है. भिन्न कहानियों में बंटी कथाएं यहां साथ आती हैं. जैसे धाराएं मिलकर नदी बनती हैं. दुख की नदी. दर्द की नदी. चीख की नदी. खामोशी की नदी. यह मौका खास है, क्योंकि इसी नदी से नया रास्ता निकलता है. चीख दर्द को पहचानती है. खामोशी दुख का पता पूछती है. उम्मीद का पौधा फूटता है.

नहीं, 'उड़ता पंजाब' ड्रग्स के बारे में नहीं है. ये सिंगल स्टार  पुलिसवाले एएसआई सरताज के बारे में है, जिसका घर नाके पर बंधे दस हज़ार के हफ़्ते से फलफूल रहा है. लेकिन जिसे मालूम नहीं है कि यह नशा खुद उसके घर की नींव खोद चुका है. ये तेजिन्दर सिंह फुद्दू के बारे में है. लड़का जिसने शायद बर्मिंघम में ड्राइवरी करनी थी, लेकिन जिसका ड्रग्स वाला गाना  सुन दुनिया नाची. उसे 'टॉमी सिंह गबरू' बना दिया. पहले उड़ाया, अब वो गर्त में गिर रहा है तो भीड़ तमाशा देखने को जमा है. ये होकी वाली बिहारन लड़की के बारे में है, जो इंसानी अस्तित्व के सबसे अंधेरे समय में भी सपना देखती है. ये ड्रग्स के अभिशाप से लड़ती निडर डॉक्टर प्रीत साहनी के बारे में है, जैसे लोग अब खोते जा रहे हैं, कम होते जा रहे हैं.

'उड़ता पंजाब' इंसानों के बारे में है. जीते-जागते इंसानों के बारे में. इंसान, जिनकी ज़िन्दगी ये 'सिस्टम' निगलता जा रहा है. सिस्टम, जिसके लिए ड्रग्स कभी पैसा कमाने का ज़रिया है, कभी चुनाव जीतने का. सिस्टम आंकड़े देखता है. नम्बर देखता है. वो काउंट करता है.. 13, 40, 89. यहीं सिस्टम से एक रचनाकार भिन्न होता है. कहानीकार आंकड़ों को नहीं देखता. वो इंसानों को देखता है. उनके दर्द की कहानी सुनाता है.

निर्देशक अभिषेक चौबे की फिल्म हमारे सामने किसी फ्लैशलाइट की तरह आती है. चौबे इससे पहले भी 'इश्किया' अौर डेढ़ इश्किया' में कठोर यथार्थ के साथ ब्लैक ह्यूमर घोल चुके हैं. लेकिन यहां उनका ह्यूमर सिर्फ़ हंसी नहीं देता. आप हंसते हैं, अौर फिर वही हंसी आपके भीतर सबसे गहरे जाकर चुभती है. एक उदाहरण देखें. टॉमी सिंह को जेल की कोठरी में डाल दिया है. वो डरा सा बैठा है, अचानक उसे अपने ही पहले गाने की आवाज़ सुनाई देती है. दो किशोर लड़के हैं, जो गा रहे हैं. उसे बोलते हैं, हम आपके फैन हैं. आप हंसते हैं. फिर अगला वाक्य, 'जब पहली सिरिंज लगाई थी, आपकी ही तस्वीर सामने थी'. दूर बैठा बूढ़ा सरदार टोकता है, 'अरे कुछ तो शरम करो नालायकों. अपनी मां को मारकर बैठे हो यहां'. हंसी डंक मारती है. टॉमी सुन्न पड़ गया है. उसे दूर गूंजती सी आवाज़ सुनाई देती है, हमें भी, 'क्या करते, वो पैसे ही नहीं देती थी'.

'उड़ता पंजाब' का यथार्थ कहीं ज़्यादा असहनीय अौर कड़वा है. उसका अंधेरा दिबाकर बनर्जी की 'शांघाई' की याद दिलाता है. अनुराग कश्यप की 'अगली' की याद दिलाता है. लेखक सुदीप शर्मा की 'एनएच 10' की याद दिलाता है.

दिलजीत दोसांझ के चेहरे पर एक कमाल की इन्नोसेंस है. उनका पुलिसवाले की भूमिका में चयन करना सच में कमाल की कास्टिंग है. उससे भी खास हैं उनके अफसर जुझार सिंह की भूमिका में मानव गिल. 'अंदर की सब खबर जाननेवाला' पुलिसवाला. सिस्टम का प्रतिनिधि. दोनों की जुगलबन्दी है जो कहानी को कमाल का विरोधाभासी गठन देती है. बिहारन के किरदार में आलिया की ईमानदार कोशिश भी नज़र आती है. लेकिन 'उड़ता पंजाब' अन्तत: फिल्म है शाहिद कपूर की, जिन्होंने टॉमी सिंह के किरदार को इस कदर डूब के जिया है कि 'कमीने' अौर 'हैदर' में देखे गए अपने ही अभिनय के मेयार कुछ अौर ऊंचे उठा दिया हैं.

अोपनिंग सीन से ही वो अपनी भूमिका में गज़ब की स्फूर्ति भरते हैं. लेकिन ख़ास है उनका ट्रांसफॉर्मेशन, जिसमें वो पिता पर गोली चलाने वाले 'गबरू' टॉमी सिंह के भीतर से उस अकेले बच्चे को निकालकर सामने रख देते हैं, जिसे एक मां की गोद की तलाश है. 'टॉमी सिंह' उड़ता पंजाब का सबसे शानदार किरदार है, अौर उसका सफ़र सबसे मुकम्मल. ऐसे किरदार लिखकर ही निर्देशक-लेखक अमरता प्राप्त किया करते हैं.

हमें समस्या गालियों से नहीं है. हिंसा से भी नहीं है. स्वीकार करें कि ये दोनों ही हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं. विश्वास ना हो तो अखबार खोलिए, किसी शहर-कस्बे की थड़ी पर पुरुषों के साथ बैठकर चाय पीजिए, या किसी सार्वजनिक परिवहन में यात्रा कीजिए. हमें दिक्कत तब होती है जब हमारी फिल्में सच्चाई के इतना करीब आने लगती हैं, जो हमें असहज करता है. 'उड़ता पंजाब' ड्रग्स को बढ़ावा देती है या नहीं, ये परेशानी कभी थी ही नहीं. हिन्दुस्तान का हर दर्शक इतना सिनेसाक्षर तो है ही कि ये समझे. परेशानी इससे है कि वो हमारे सामने टूटा ही सही, एक आईना रखती है. हमारे सामने भी, अौर हमारे लोकप्रिय सिनेमा के सामने भी. फिल्में समाज को नहीं बदलतीं. समाज को इंसान बदलते हैं. आपके, मेरे जैसे ज़िन्दा इंसान. इंसान, जिनकी कहानी 'उड़ता पंजाब' सुनाती है. बशर्ते हम सुनने को तैयार हों.

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