मूवी रिव्यू: त्रिभंग
कैसा रहा काजोल का डिजिटल डेब्यू?
Advertisement

त्रिभंग मूवी रिव्यू
ऐसे ही एक सेशन में नयनतारा को स्ट्रोक आता है और वो कोमा में पहुंच जाती है. हॉस्पिटल में अपनी मां के सिरहाने मजबूरन लैंड हुई अनुराधा अच्छी-कड़वी यादों के बीच खुद को फंसा पाती है. यहां से कहानी फ्लैशबैक के सहारे खुलती जाती है. कि क्यों अनुराधा को अपनी मां से इतनी नफरत रही है. क्या इस नफरत का कोई अच्छा-बुरा असर उसकी खुद की बेटी पर हुआ? या सिर्फ किरदार बदले और कहानी वही रही? ये सब जानने के लिए फिल्म देखिए, निराश नहीं होंगे.

तन्वी आज़मी ने नयनतारा आपटे को बेहद संजीदगी से पोट्रे किया है. (फोटो-ट्रेलर)
# अपने-अपने संघर्ष 'त्रिभंग' अपने आप में एक साहसिक कोशिश है. ये महिलाओं की चॉइस पर बात तो करती है, पर ज्ञान देने की टोन में नहीं. महिलाओं के हिस्से आने वाले अलग-अलग संघर्ष दिखाते वक्त ये बेचारगी का रास्ता नहीं चुनती. न तो नयनतारा, न अनु और ना ही माशा बेचारी हैं. इन सबकी अपनी-अपनी चॉइस रही है और अपने हिस्से आने वाली हर परेशानी को इन्होंने अपने हिसाब से हैंडल किया है. किसी के हिस्से पैट्रियार्की का ज़हर आया, किसी के हिस्से अब्यूज़, तो किसी के हिस्से दकियानूसी सोशल सिस्टम का दंश.
नयन ने अस्सी के दशक वाले भारत में एक महिला की वैचारिक स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ी. और इस प्रोसेस में अपनी संतान से दूर हो गई. अनु ने अपनी मां के लेखन के प्रति जुनून को बच्चों के प्रति लापरवाही समझा. उससे उपजी नफरत का नतीजा ये निकला कि खुद अपनी औलाद को लेकर ओवर प्रोटेक्टिव हो गई. और इसी क्रम में कमोबेश वहीँ आकर खड़ी हुई, जहां उसकी अपनी मां थी. माशा ने, जिसे परिवार के नाम पर कुछ न हासिल हुआ, जॉइंट फैमिली के कुचक्र में फंसना चुना. कुल मिलाकर 'त्रिभंग' कामयाब मांओं को उनकी औलादों के नज़रिए से देखने की कोशिश करती है. और इस कोशिश में तमाम ज़रूरी मुद्दे छू आती है.

काजोल का डिजिटल डेब्यू आपको बिलकुल भी निराश नहीं करेगा. (फोटो-ट्रेलर)
# दी काजोल शो 'त्रिभंग' का सबसे सशक्त पक्ष इसकी कास्टिंग है. अनुराधा के रोल में काजोल यहां पूरे जलाल पर हैं. जीवन को लेकर बेहद स्पष्ट नज़रिया रखने वाली अनुराधा. कोमा में पड़ी मां के सिरहाने खड़े होकर जोक मारने वाली अनुराधा. मुंह भरके गालियां देने वाली अनुराधा. काजोल हर फ्रेम में चमकती हैं. मिलन का रोल करते कुणाल रॉय कपूर के साथ उनके एनकाउंटर्स तो पैसा वसूल हैं. बेसिकली ये 'कभी ख़ुशी कभी ग़म' वाली मुंहफट अंजलि का प्रो वर्जन है. गालियों से अपडेटेड. जहां एक तरफ वो अपने संवादों और हावभाव में बेबाकी पूरी तरह घोलकर रखती हैं, वहीँ इमोशनल दृश्यों में उनकी आंखें भी अभिनय करती हैं. कमाल की परफॉरमेंस.
यही बात कमोबेश तन्वी आज़मी के लिए भी कही जा सकती है. नयनतारा के किरदार को उन्होंने बहुत बारीकी से पकड़ा है. महज़ कुछ सीन्स में, रूढ़ियों को कुचलने को आतुर जुनूनी लेखिका उन्होंने बेहतरीन ढंग से निभाई. मिथिला पालकर ने भी अपना काम सफाई से किया. अपनी मां के डॉमिनेटिंग और केयरिंग साए में पली लड़की, जो वक्त आने पर अपनी बात स्पष्टता से रखने की हिम्मत रखती है. 'कारवां' के बाद मिथिला का एक और अच्छा रोल. तीन-तीन सशक्त अभिनेत्रियों के होते हुए भी कुणाल रॉय कपूर अपनी उपस्थिति कामयाबी से दर्ज करा जाते हैं. काजोल से गाली खाने वाले कुछ दृश्य बहुत फनी हैं. इसके अलावा काजोल के भाई के रोल में वैभव तत्ववादी भी पॉजिटिव वाइब्स देते हैं.

मिथिला पालकर तेज़ी से एक बैंकेबल आर्टिस्ट के रूप में उभर रही हैं. (फोटो-ट्रेलर)
इन सबसे ज़्यादा तारीफ़ होनी चाहिए रेणुका शहाणे की. जिन्होंने न सिर्फ फिल्म लिखी है बल्कि डायरेक्शन का ज़िम्मा भी संभाला. ये दोनों ही ज़िम्मेदारियां उन्होंने कुशलता से निभाई हैं. उनके किरदार अनअपोलोजेटिक हैं, बगावत से भरे हैं, पर किताबी नहीं हैं. रियलस्टिक हैं. फिल्म के संवाद तीन भाषाओं का मिश्रण लिए हुए हैं. मराठी, हिंदी, इंग्लिश. जहां जो सूट करे. ये बात फिल्म को और भी मज़बूती देती है.
कामयाब मां की निजी ज़िंदगी को उसके बच्चों की नज़र से देखने की कोशिश में पिछले साल आई 'शकुंतला देवी' चूक गई थी. रेणुका की 'त्रिभंग' ये काम कामयाबी से कर जाती है. इस वीकेंड ज़रूर देखी जा सकती है ये छोटी सी लेकिन सशक्त फिल्म.