The Lallantop
Advertisement

फ़िल्म रिव्यू : ट्रैप्ड

अपने ही कमरे में 25 दिन के लिए कैद लड़के की कहानी.

Advertisement
Img The Lallantop
फोटो - thelallantop
pic
केतन बुकरैत
17 मार्च 2017 (Updated: 17 मार्च 2017, 08:49 AM IST) कॉमेंट्स
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share

ट्रैप्ड.



एक लड़का है. एक लड़की है. एक कमरा है. एक बड़ा कमरा है.




लड़के को लड़की से प्यार है. लड़का जिस कमरे में रहता है उसमें और भी लड़के रहते हैं. इसलिए शादी के बाद लड़की वहां नहीं रहना चाहती. लड़का बड़ा कमरा ले लेता है. किराये पर. उसी में कैद हो जाता है. उस दिन, जिस दिन वो उस लड़की को सरप्राइज़ देना चाहता था. उसे उससे शादी करने के सपने को सच करना था. इसके लिए वो हर संभव कोशिश कर रहा था.

25 दिन. एक कमरे में कैद. बिना बिजली. बिना पानी. बिना खाना. एकदम अकेला. राजकुमार राव यानी शौर्य. ट्रेलर में हमें इनका नाम नहीं मालूम चलता है. लड़की का नाम मालूम है, नूरी. गीतांजलि थापा ने रोल निभाया है.

फ़िल्म की कहानी में इससे ज़्यादा और कुछ भी बताये जाने के लायक नहीं है कि शौर्य एक कमरे में फंस जाता है और बाहर निकलने की मशक्कत करता है. फ़िल्म की कहानी उसके कमरे से बाहर निकलने के तमाम प्रयासों, जुगाड़ों के बारे में ही है. अंत में वो निकल भी पाता है या नहीं, ये भी नहीं बताया जाना चाहिए. कतई नहीं.

बहुत समय बात एक ऐसी फ़िल्म देखने को मिली है जिसमें आप एक ही कोण पर अपनी देह टिकाए फ़िल्म नहीं देख सकते. आप परेशान होंगे, विचलित होंगे, आंखें बंद कर लेंगे और बहुत थोड़ी सी खोल कर बस स्क्रीन की ओर झाकेंगे. आप शौर्य के साथ परेशान होंगे. उसके साथ रोयेंगे. थियेटर में 'त्च...त्च...' की आवाज़ें आती रहेंगी.

trapped1

बेहद इंटेंस, बहुत टाइट फ़िल्म है ट्रैप्ड. बिना किसी डिज़ाइन. बिना किसी सजावट के बनी फ़िल्म. एक बार को आप सोचने लगते हैं कि इस फ़िल्म को बनाने में लागत कितनी कम लगी होगी. लेकिन दूसरे ही सेकंड आपको समझ में आता है कि ठीक इसी वजह से ऐक्टर्स और डायरेक्टर पर दबाव कितना बढ़ जाता है. चकाचौंध से काफी कुछ ढक जाता है. लेकिन जब वही चकाचौंध गायब हो जाती है तो असलियत सामने आती है. ट्रैप्ड फ़िल्म की ताकत ये असलियत ही है. फ़िल्म के डायरेक्टर विक्रमादित्य मोटवाने कहते हैं कि ये रोल राजकुमार राव के सिवा और कोई नहीं कर सकता था. आप जब फ़िल्म देखना खतम करते हैं तो आपको मालूम चलता है कि विक्रमादित्य की बात सौ टका सच थी.

राजकुमार राव एक नेशनल अवार्ड चांप चुके हैं. ये परफॉरमेंस भी कहीं से कम नहीं है. फ़िल्म की मेकिंग में मालूम चल ही चुका है कि इस रोल के लिए उन्होंने पूरे शूट के दौरान कॉफ़ी के सिवा कुछ नहीं खाया पिया. जिस खून से दफ्ती पर लिखकर मदद के लिए गुहार लगाता है वो खून असल में राजकुमार राव का ही है. राजकुमार के साथ विक्रमादित्य मोटवाने की 'कलाकारी' के लिए भी तालियां पीटी जानी चाहिए. विक्रमादित्य ने बहुत ज़मीनी स्क्रिप्ट लिखी है. इसमें कहीं भी आपको कोई लूपहोल नहीं मिलेगा ये एक ऐसी बात है जो अमूमन फिल्मों से गायब रहती है. लॉजिकली, फिल्मों में आप कई लूपहोल्स निकाल सकते हैं. मगर इस फ़िल्म में विक्रमादित्य चाहें तो गलती निकालने का कम्पटीसन रखवा सकते हैं.


motwane
राजकुमार राव और विक्रमादित्य मोटवाने


फ़िल्म में जो कुछ भी शौर्य के साथ घटा है, उसे देखकर आप उसकी जगह कतई नहीं रहना चाहेंगे. लेकिन फिर भी जैसे-जैसे फ़िल्म आगे बढ़ती जाती है, आप खुद को शौर्य की जगह पाते हैं. आप उसकी पीड़ा में खुद दर्द झेल रहे होते हैं. आप कई जगहों पर उन लोगों के बारे में सोचने लगते हैं जिन्हें आप प्यार करते हैं, जिन्हें आप प्यार करना चाहते हैं, जिनसे आप बात करने को तड़पते हैं और जिनसे दूर चले जाना चाहते हैं. आपको अचानक से समझ में आता है कि आप कीमती हैं. या कोई और आपके लिए कितना कीमती है. ये सब कुछ मात्र 105 मिनट में. इस लिहाज़ से भी ये फ़िल्म एक अच्छी डील है. 



फ़िल्म देखी जानी चाहिए. न गाना. न रोने-धोने का फर्जीवाड़ा. न गाजा-बाजा. न चमकती लाइटें. न ओवर-द-टॉप ऐक्टिंग. खालिस, प्योर, ज़मीनी कहानी. सबसे अच्छी बात, इस फ़िल्म में इंटरवल नहीं है. इंटेंसिटी बनी रहती है. आपका दिमाग इधर-उधर नहीं जाता. पॉपकॉर्न आप चाहें तो फ़िल्म की शुरुआत में ही ख़रीद के स्टॉक कर लें. वैसे फ़िल्म देखते वक़्त पॉप-कॉर्न नहीं खाने चाहिए. मैं तो नहीं खाता. दिमाग एक जगह नहीं लग पाता. न पॉप-कॉर्न पर और न फ़िल्म पर. साथ ही, पिक्चर शुरू होने से पहले पेशाब ज़रूर कर लें. बीच में उठके जायेंगे तो बहुत कुछ मिस कर देंगे. इस फ़िल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है जो मिस किया जाना चाहिए.

लुटेरा के बाद विक्रमादित्य ने अब एक फ़िल्म बनाई है. उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए. इतना अंतर ठीक नहीं है. कोई दबाव नहीं है लेकिन उन्हें फ़िल्में थोड़ा जल्दी-जल्दी बनानी चाहिए. हमें अच्छी फ़िल्में जल्दी-जल्दी मिलती रहें तो अच्छा रहेगा.

ट्रैप्ड देखी जानी चाहिए.

https://www.youtube.com/watch?v=RJaj39jI-qk


 
ये भी पढ़ें:

‘कश्मीर’, ‘पाकिस्तान’ और ‘जापान’ ने हमारे पुलिसवाले के कपड़े फाड़ डाले

जब कल्पना चावला ने पूरी क्लास को किराए पर मंगाकर फिल्म दिखाई

न एयरटेल न वोडा, जियो का बाजा फाड़ने दादाजी मैदान में आए हैं

मोदी जी ने रवि शास्त्री को दिया उन्हीं की ‘भाषा’ में जवाब

टीम इंडिया को इस सीज़न की सबसे बड़ी चोट लगी है

कोर्ट ने किसान के नाम कर दी ‘एक्सप्रेस ट्रेन’

फतवा, फतवा… आखिर ये फतवा क्या है?

Subscribe

to our Newsletter

NOTE: By entering your email ID, you authorise thelallantop.com to send newsletters to your email.

Advertisement