सलार : हिंसा के अभिभूत करने वाले छींटे (फ़िल्म रिव्यू)
भीषण फ़िल्म Salaar: Part 1 – Ceasefire सिनेमाघरों में घटित हो रही है. Prabhas और Prithviraj Sukumaran की केंद्रीय भूमिकाओं वाली ये एक्शन, फैंटेसी, डिस्टोपियन फ़िल्म Prashanth Neel ने डायरेक्ट की है जो इससे पहले KGF 1, KGF 2 बना चुके हैं. कैसी है ये फ़िल्म, पढ़ें इस बेहद विस्तृत और detailed movie review में.
Rating : 4.5 Stars
"मैड मैक्स: फ्यूरी रोड़" में, फ़िल्म फुटेज पर पहले कभी न कैप्चर हुए एक विराट, विहंगम, विनाशकारी (apocalyptic), काल बनकर आए, तूफ़ान के बीच विक्षिप्त वाहन चलाते हुए एक विक्षिप्त पगला मस्तिष्क में चरमसुख से बौराते हुए गीत सा गाते हुए कहता है - "Oh, What a day... what a lovely day!" "सलारः पार्ट 1 - सीज़फायर" को देखते हुए आप वही पगले होते हैं. पागल - सिनेमा उन्माद में, और चरमसुख में.
वीर, वीभत्स, जुगुप्सा, भयानक जैसे रसों वाली इस फ़िल्म में संतुष्ट करने वाला एक्शन है. अंबअरिव के नाम से प्रसिद्ध कम उम्र के जुड़वा भाइयों अंबु और अरिवु मणि के एक्शन सीक्वेंस सघनता, सुंदरता, चतुरता और असर लिए हैं. स्पष्टतः ये एक्शन साउथ की एक्शन विरासत को ही आगे बढ़ाता है. यह एक्शन फ़िल्म है, पर मैंने इसे एक फैंटेसी फ़िल्म की तरह भी देखा, इसमें एक ज़ॉम्बी मूवी वाले तत्व भी पाए. यह समकालीन समय में स्थित है पर एक डिस्टोपिया भी है. स्लो मोशन का इतना प्रयोग है कि वृहत्तर समय के लिए लगता है कि कोई एपिक स्लो-मोशन फोटोशूट जारी है.
राजा, जंगल, राक्षस, तलवार जैसी पारंपरिक कथा शैली पर चलने वाली यह फ़िल्म कोई बौद्धिक समृद्धि, विमर्श या संदेश देने का दावा नहीं करती, न उसमें ढूंढ़ना चाहिए. यह ख़ून ख़राबे, हिंसा के प्रति विशिष्ट रूचि के साथ मनोरंजन निर्मित करती है और ऐसे जॉनर, सिनेमा में रुचि रखने वाले दर्शकों के लिए ही विशेषतः है. विजु्अली, सिनेमैटिकली और स्टोरीटेलिंग के तल पर कुछ विराट, बेतहाशा और अचंभित करने वाला उपलब्ध कर लेना ही इसका उद्देश्य है और इसमें वह उत्कृष्ट रहती है.
सही अर्थों में यह एक व्यावसायिक, अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म है, जैसे कि - ऑन्ग बाक (2003*), द ट्रांसपोर्टर (2002*), द एक्सपेंडेबल्स (2010*) हैं. उनके एक्शन-स्टोरी तत्वों की विशेषताएं अलग अलग हैं, और "सलारः पार्ट 1 - सीज़फायर" की खासी अलग. लेकिन ये सब आपको निचोड़ जाने वाली, आपका सारा ध्यान चूस लेने वाली, आपको ग़ुलाम बना लेने वाली फ़िल्में हैं. "सलार" इन सबमें भावनात्मक रूप से सर्वाधिक शक्तिशाली और संकेंद्रित भी है.
"गेम ऑफ थ्रोन्स", "वाइकिंग्स" जैसी विजुअल कहानियों के स्वीकार किए जाने ने "सलार" के मेकर्स को हिम्मत दी है कि वे भी अपना कैनवस सब बेड़ियां तोड़कर खोल सके. तो यह कहानी अपनी जड़ों में 1000 साल से भी पहले जाती है. मोहम्मद गज़नी और चंगेज़ ख़ान से भी पहले. और इतनी लंबे कथा क्रम में प्रशांत नील की स्टोरी, स्क्रीनप्ले, डायरेक्शन वाली "सलारः पार्ट 1 - सीज़फायर" घटती है 1985-2017 के कालखंड में.
दो बच्चों - देवा और वर्धा की अटूट दोस्ती और अटूट दुश्मनी की ये कहानी है. संदीप रेड्डी, हनुमान चौधरी और डीआर सूरी के डायलॉग्स जगह जगह बिल्ड अप करते चलते हैं और ख़ुद ही अपनी कहानी के क्लाइमेट को हाइप करते चलते हैं. जब अमेरिका से आई आध्या (श्रुति हसन) नाम की लड़की को एक पात्र देवा की कहानी सुनाने जा रहा होता है तो गजब की नाटकीयता के साथ कहता है - "कुछ कहानियों को देखकर डर लगता है, कुछ कहानियों को सुनकर डर लगता है, और कुछ कहानियों को याद करके ही डर लगता है."
इस कहानी के फ्रेम्स स्याह, अंधेरे, कोयले जैसे काले हैं. कुछ कुछ रॉबर्ट रॉड्रिगज की "सिन सिटी" के घुप्प अंधेर फ्रेम्स जैसे. या फिर जगत के बड़े ज़हरीले सांप अफ्रीकी ब्लैक मांबा के मुंह जितने काले. ये कहानी, ये फ़िल्म भी उतनी ही ज़हरीली. जिसे छू भी जाए, मार डाले. इस घुप्प अंधेरे कुएं में कहीं रोशनी की कोई किरण नहीं है. बस दो ही किरणें - पहली, वो बच्चे जो कोयले की खदान में एक स्कूल में पढ़ते हैं और खुशी, प्रसन्नता, शरारतों, बेबाकी, से भरे हैं. वे ताड़ जितने लंबे देवा के दोस्त हैं. दूसरी किरण है, शांतिकाल में देवा. जब तक देवा शांत है तब तक सब ठीक है. बाकी सब कहर और ज़हर. खानसार नाम के नरक में एक बंजारन सी लड़की प्रार्थना करती है - "काली माई से प्रार्थना करती हूं, शायद बचाने कोई राक्षस ही आ जाए." फ़िल्म कहती चलती है कि यहां सब राक्षस हैं. यहां तक कि राक्षसों को मारने आया देवा भी राक्षस हो सकता है.
उन प्रकाशकिरण बच्चों को पढ़ाने वाली देवा की मां कहती है - "बच्चे पिघले हुए लोहे जैसे होते हैं, सही सांचे में ढालो तो रोशनी देने वाले दीपक बन जाते हैं, गलत में डालो तो ख़ून पीने वाली तलवार बन जाते हैं." देवरथ रायसनी, उर्फ देवा. आइरॉनिकली या आइकॉनिकली, वह गुड्डू धनोवा की "ज़िद्दी" (1997) के देवा (सनी देओल) जैसा ही है. उस देवा ने बहन को छेड़ने वाले का हाथ उखाड़ दिया था, प्रशांत नील का देवा स्त्री को स्पर्श करने वाले गुंडों के हाथ लोहे पर पटक पटक कर चूर-चूर कर देता है और छोटी बच्चियों का उल्लंघन करने वालों की जांघ, हाथ काटकर अलग कर देता है. तो वही ख़ून पीने वाली तलवार है उस टीचर का बेटा. वह दूसरों के ख़ून से स्नान करते हुए थकता नहीं. "सरदार उधम" के 20-22 मिनट लंबे उस सीन में दर्शक थककर गिरने को हो जाता है जब वे जलियांवाला बाग मैदान में लाशों के बीच घायलों को खोजने, उन्हें पानी पिलाने, उन्हें ढोते हुए बाहर लाने, अस्पताल पहुंचाने और फिर से मैदान जाकर इस प्रक्रिया को अनंत बार दोहराते हुए नौजवान उधम के पात्र को देखते हैं. उधम थककर गिरने को होता है, दर्शक के घुटने भी जवाब दे जाते हैं. "सलार" का देवा थकता नहीं. चाहे कितने ही लोगों की सेना सामने हो. मांस में मुक्के मारते रहने से रॉकी बेलबोआ थक जाता है, मांस-अस्थि-मज्जा से बनी इंसानी देह में धातु की तलवार का एक प्रहार कितनी ऊर्जा निकाल लेता है, कुछ मिनटों में पूरी ऊर्जा निचुड़ जाए. लेकिन देवा एक के बाद एक 100-100 किलो के गुंडों की मजबूत देह पर गंडासे जैसे हथियार मारता जाता है, और मानो ऊर्जा का कोई कर्षण हो ही नहीं रहा होता है. उसके प्रहार एफर्टलेस, सुंदर और मक्खन पर चलने वाले गर्म चाकू से लगते हैं. "ज़िद्दी" में देवा के अहिंसावादी पिता अशोक प्रधान की तरह देवा की मां (ईस्वरी राव, जिनके निभाए पात्र ने "केजीएफ 2" में रॉकी को आशीर्वाद दिया था - रोकने से भी न रुकेगी, तुम्हारी ये सल्तनत) भी ख़ून खराबे से दूर शिक्षा का मार्ग पसंद करती है. लेकिन ऐसा हो नहीं पाता.
जब स्क्रीन पर लीड हीरो की एंट्री होती है तो लिखा आता है - रेबल स्टार प्रभास. शुरू में काफी वक्त तक, प्रशांत नील उन्हें रॉबेर ब्रैसों के मॉडल की तरह बरतते हैं, जिसमें एक्टर महत्वपूर्ण नहीं होता उसकी काया, उसका चेहरा, उसका सांचा पात्र के जैसा होने की वजह से महत्वपूर्ण होता है. उसके इतर एक्टर की कोई हस्ती नहीं. प्रभास की स्टील और पहाड़ जैसी विशाल संरचना, चेहरे के स्लो मोशन क्लोज़ अप सीन्स, साइड पोज़ का उपयोग होता है, जो कि बेहद इम्पैक्ट भरा होता है. और बाद में उनका पात्र नए इमोशन दिखलाने लगता है, जहां प्रभास बेहद कंट्रोल्ड और लगभग परफेक्ट परफॉर्मेंस देते हैं. देवा कोयले की खदान में रहता है, मिजाज में चरम है, खाने में ढेर सारी लाल मिर्ची का पाउडर उडेलकर खाता है और रहता है बर्फीले वाइटवॉकर्स जितना शांत. उसका एक चरम है चुप्पी, धैर्य, अहिंसा, मां का आज्ञापालन. एक लड़की को उठाया जा रहा है, ज़ुल्म हो रहा है लेकिन आगे बढ़ जाता है क्योंकि मां का आदेश है. फिर मां ही जब हाथ खोलती है तो परम हिंसा की बारिश करता है. बच्चों के साथ उसका रिश्ता मनमोहक है. वहां वो विशाल काया के साथ भी बहुत कोमल नजर आता है.
"सलार" की स्टोरीटेलिंग संरचना भी कमाल की है. कुछ हो रहा है, क्यों हो रहा है दर्शकों को पता नहीं. उन्हें जानकारियां बहुत ही कंजूसी से और छोटे पीसेज में दी जाती हैं. जैसे कहानी में सब डरे हुए हैं, कोई बदला लेना चाह रहा है, कोई बचना चाह रहा है, कौन किसको मारना चाह रहा है, क्यों मारना चाह रहा है, बैक स्टोरी क्या है, हो क्या रहा है, ये इधर से आ रहा, वो उधऱ को जा रहा, नए कैरेक्टर इंट्रड्यूस हो रहे हैं, भई ये हैं कौन - ये सारा डेटा दर्शक को अभिभूत (overwhelm) कर देता है. इसे बड़ी कारीगरी से बुना गया है. कहानी प्याज के छिलकों की तरह खुलती, उतरती है. बाहर से अंदर की तरफ. पहले सस्पेंस बिल्ड किया जाता है, फिर कैरेक्टर का, उसके एक्शन का, उसकी असल कहानी का सबसे अंदरूनी छिलका सबसे अंत में अनावृत्त होता है. ये स्टोरीटेलिंग का गज़ब का तरीका है, ख़ासकर मनोरंजन के लिहाज से.
डायरेक्टर प्रशांत नील और लेखकों की अघोषित वर्जना है कि कभी भी कहानी के सारे पत्ते सामने नहीं रखने हैं. एक एक सेकेंड के हिसाब से बातें, जानकारियां, लीक की जाती है, उघाड़ी जाती है. उनका बिल्ड अप के प्रति आग्रह तो इतना भीषण है कि साढ़े तीन मिनट के ट्रेलर में भी देवा की एंट्री 2.16 मिनट पर होती है. इतने में ट्रेलर ख़त्म हो जाया करते हैं.
कोई भी डायलॉग सीधे नहीं बोला जाता है. एक एक शब्द के बीच में विराम लिया जाता है. घबराती उत्कंठा (anticipation) को बहुत ज्यादा बढ़ाया जाता है. जैसे एक सीन में वर्धा कहता है - "तूने इन सब (हत्यारों को) को ड्रग्स देकर पागल बनाया है, पर वो (देवा) पैदाइशी पागल है." इसमें संवाद के पहले हिस्से के बाद सात-आठ सेकेंड का विराम आता है. दर्शक की उस उत्कंठा और व्यग्रता को रवि बसरूर का बैकग्राउंड स्कोर खूब पंप अप करता है. इतना खींचना एक एक शब्द को एक दुस्साहस है जो सब फ़िल्में नहीं निभा ले जाती हैं. जैसे एक डायलॉग देवा का आता है. वह कहता है - "इसे (वर्धा) कोई हाथ नहीं लगाएगा) Please, I kindly request." इन चार शब्दों को बोलने में देवा 13 सेकेंड लेता है और हर शब्द के बाद न जाने कितने ही फ्रेम्स एडिटर उज्ज्वल कुलकर्णी जोड़ते, मोड़ते हैं.
"सलारः पार्ट 1 - सीज़फायर" साल 1985 में शुरू होकर 2017 तक जाती है. लेकिन इसकी ये समकालीन समयरेखा (timeline) एक मृगमरीचिका है. असल में ये एक dystopian फ़िल्म है. यानी एक दुःस्वप्न जैसा प्रलय पश्चात का भविष्य. ये भविष्य में स्थित नहीं लेकिन भविष्य में ही स्थित है. ये एक अतीव काल्पनिक डिस्टोपियन स्टोरी है जिसमें कई थीम और रुपांकन (motif) समाज, राजनीति, हिंसा, पशुवत व्यवहार, बर्बरता, रक्त-पिपासा, नैतिकता-अनैतिकता के हैं. एक कस्टम, बंदरगाह का ऑफिसर थरथर कांपते हुए एक ऐसी रहस्यमयी जगह का ज़िक्र करता है जिसके चारों तरफ कोई विशाल दीवार बनी है. दीवार पर अत्याधुनिक हथियार इंस्टॉल्ड हैं. इंडिया के कानून वहां अप्लाई नहीं होते, लेकिन वहां के नियम इंडिया पर अप्लाई होते हैं. ऐसी किंवदंती जब वो सुनाता है तो वो कोई भविष्य की dystopian जगह ही लगता है. "मैड मैक्स" फ़िल्मों के रचनाकार जॉर्ज मिलर ने अपनी फ़िल्म के डिस्टोपिया को परिभाषित करते हुए कहा था - "एक ऐसी दुनिया जो regress होकर वापस मध्ययुगीन बर्बर व्यवहार में लौट गई है. सिर्फ वर्तमान दुनिया की वस्तुएं-उपकरण ही बचे हैं. जैसे, हमारे आज के वाहन जो कंप्यूटरों पर बहुत निर्भर हैं वे प्रलय (apocalypse) के बाद के विश्व में नहीं बचते. लेकिन हॉट रॉड्स वाहन या मसल कारें न सिर्फ बची हैं बल्कि उन्हें लगभग fetishized किया जाता है जैसे कि धार्मिक कलाकृतियों को किया जाता है. "सलार" के इस डिस्टोपिया में भी कुछ कुछ ऐसा है. इसमें इस जगह का नाम है - खानसार. इसका वर्णन करते हुए फ़िल्म कहती है - "दहशत ही था उनका हथियार जिसका सामना कोई न कर पाया. खानसार का."
"सलार" इस डिस्टोपिया में कुछ चित्तरंजक भी करती है. खानसार किसी यूरोपियन देश जैसा लगता है. घनी बसावट वाला. संभवतः फ्रांस, इटली या स्वीडन जैसा. गोरा. कलरफुल, सुदंर वास्तुकला, रात को जगमगाती इमारतें और शहर. लेकिन यहां रहने वाले लोग आज भी कबीलों के नियमों से रहते हैं औऱ वो भी पाषाण काल के कबीलों जैसे. जब वे बर्बर होते थे. पशु होते थे. ये विरोधाभास गजब का है. इसका एक भावार्थ यह भी है कि दुनिया मध्ययुगों से प्रोग्रेस होकर आई है, लेकिन अदृश्य रूप में वैसी की वैसी ही है. बस इंसान सूट बूट पहने अंग्रेजी बोलता है. गंडासे नहीं हैं बोर्डरूम्स में, प्राधिकरणों में, संसदों में, न्यायाधिकरणों में, लेकिन वहां कलम से इंसान काटे जाते हैं. खानसार के बारे में कहा जाता है कि एक ऐसी दुनिया जहां जंग हार जाने का मतलब था सब हार जाना. क्या ऐसा असल ज़िंदगी के साथ हम नहीं देखते? आज भी.
फ़िल्म एक जगह पर्ज “द मूवी” में भी तब्दील होती है. जहां जेम्स डिमॉनेको की उस डिस्टोपियन एक्शन हॉरर फ्लिक की तरह घोषणा की जाती है कि रात 12 बजे के बाद सीज़फायर हटा दिया जाएगा और खानसार में जहां, जो चाहे वो वैसे एक दूसरे को काट सकता है. ये पर्ज मूवीज़ भी कमाल का मनोवैज्ञानिक परिदृश्य है सिनेमा में. दो बातें मन में आती हैं - पहली ये कि सिनेमा (ख़ासकर अमेरिकी सिनेमा) पर्ज मूवीज़ बनाने की जरूरत क्यों समझता है और मनोरंजन या जॉनर एक्सप्लोरेशन के अलावा क्या कारण है? दूसरी बात, दर्शक ऐसी फ़िल्में क्यों देखता है जहां वहशी, पागल, हत्यारे अपने से कमज़ोर, बेकसूरों, निहत्थों को अकारण, सिर्फ प्लेज़र के लिए मार रहे हैं? इसके मनोवैज्ञानिक कारण क्या हैं? आखिर दर्शक क्या पाता है इससे? तुरंत न्याय? कि उसे तमाम कानूनों, नैतिकताओं से मुक्त करके बर्बर हो जाने दिया जाए,वह दौर जब कोई भी किसी को मार देता था.
टेलर शैरिडन की एपिक सीरीज़ "येलोस्टोन" की प्रीक्वल सीरीज़ "1883" की कहानी ही ले लें, जिसमें वो काल है जब अमेरिका लुटेरों, हत्यारों, अनसिविल, बर्बर लोगों का देश होता था. सिविल वॉर के बाद अमेरिका के एक कोने टेक्सस से डटन परिवार और कई अन्य लोग ओरेगन जाने के लिए निकले हैं, पैदल डेरे के साथ, ताकि वहां बस सकें, बच सकें. लेकिन राह में जगह जगह लुटेरे बैठे हैं. जिसके पास पिस्टल है, बंदूक है वो जो चाहे कर ले. और ये रियल स्टोरी है. "सलार" में खानसार के नियम ऐसे ही हैं. यहां पर्ज के दौरान एक कैरेक्टर कहता है - "मेरे में ख़ुद वॉयलेंस करने की कैपेसिटी नहीं है इसलिए मैंने कुछ जंगली कुत्तों (इंसानों) को भूखा रखकर ख़ून का प्यासा बनाया है. वो टूट पड़ेंगे, बोटी नोचेंगे और पचाक पचाक ख़ून निकलेगा और मैं ताली बजाकर हंसूंगा". ये दर्शक की महज मूकदर्शक बनकर ख़ून देखने की इस अभिरूचि के बारे में बहुत कुछ कहता है.
ख़ून से लिखी स्मार्ट, मेहनतकश पोएट्री है सलार. ये भारत की "मैड मैक्स" है. सिर्फ उपमा में ही नहीं, असल में भी. ये उससे ख़ासी प्रेरित भी है. इसमें कई एलीमेंट और एक्शन सीक्वेंस जॉर्ज मिलर की फ़िल्मों से आए हैं. "सलारः पार्ट 1 - सीज़फायर" में एक सीन में गुंडे घेर लेते हैं और आध्या (श्रुति हसन) से कहते हैं - "तू मेरी प्रॉपर्टी है अब". यहां याद करें "मैड मैक्सः फ्यूरी रोड़" (2015) में इममॉर्टल जो कहता है - "आई वॉन्ट दैम बैक, दे आर माय प्रॉपर्टी". वो अपनी गु़लाम पत्नियों की बात कर रहा होता है. इंपीरेटर फ्यूरीओसा की गर्दन के पीछे सील लगी होती है इममॉर्टल जो की, "सलार" में आध्या पर भी खानसार के शासन की सील लगा दी जाती है.
"सलार" में कई सीन सम्मोहक बन पड़ते हैं. एक सीन में देवा का दोस्त वर्धा (वरदाराजन मन्नार - पृथ्वीराज सुकुमारन) संकट के समय में उसे बुलाने आता है. देवा तो जाने को तैयार है पर मां नहीं चाहती कि वह जाए. वह मना करने के लिए उनकी ओर बढ़ रही होती है कि साइड में कोई ठक-ठक कील ठोक रहा होता है और एक सुंदर सम्मिश्रण के साथ मां को सहसा याद आ जाती है कीलों की वो ठक-ठक जो उस भयावह बरसाती रात में नन्हा देवा दरवाजे पर ठोक रहा होता है ताकि अंदर बैठी मां की बाहर खड़े दूसरे कबीले वालों से रक्षा कर सके जो उसका रेप करेंगे, उसे मार देंगे. उस रात वर्धा आता है और अपने राज-पाट का एक बहुत ही बड़ा हिस्सा उन विक्षिप्त हमलावरों को देकर उसकी मां की जान बचाता है. और एक नैनो सेकेंड में मां की स्मृति तुरंत कीलों की वर्तमान ठक ठक में लौटती है और उसी क्षण ना के साथ बढ़ते उसके कदम हां में बदल जाते हैं और वह बेटे से कहती है - "तू जा". और सब हैरान रह जाते हैं.
एक सीन जो फ़िल्म का सबसे नृशंस, मार-काट वाला सीन है, जिसमें बकरे की बलि और किसी राक्षस के वध की बड़ी समतुल्य, बेढंगी उपमा दी जाती है. काली मां से रक्षा के लिए आने के लिए रो-रोकर याचना करती एक बंजारन महिला से देवा कहता है कि इस तरह काम नहीं बनेगा. काली को मनाना है तो बकरा ढूंढा जाता है, उसे तैयार किया जाता है, उस पर पानी छींटा जाता है और फिर वो हिलता है तो इसका मतलब कि काटे जाने को तैयार है. और पानी छींटे जाने वाले उन शब्दों के पैरेलल विजुअल आता है सामने खड़े कामवासना से विक्षिप्त एक बुरे व्यक्ति पर, जो हिलता है पानी के छींटे पड़े बकरे की तरह. वीर-वीभत्स रस के सौंदर्य वाले सिनेमा के बेस्ट दृश्यों में से एक आगे दिखता है.
एक सीन में एक टैटू बनाने वाली विचित्र, जादूगरनी सी महिला देवा से पूछती है - "क्या गोदूं बोल?" माने, क्या टैटू बनाऊं तेरे हाथ पर, और वह स्वैग के साथ कहता है - "जो मेरी आंखों में दिखे." सुंदर पंक्तियां. तृप्त करते संवाद. ये वीर रस की पंक्ति है वैसे, जिसे यूं पढ़ते हुए पहचाना न जा सकेगा. फ़िल्म ने लिखे शब्दों को अपनी सिनेमैटोग्राफी, एडिटिंग, साउंड डिजाइन, डायरेक्शन से अलग ही आसमान पर पहुंचा दिया है.
अंत में कहानी इतनी थ्रिलिंग और पेचीदा हो जाती है कि समझने के लिए श्रुति हसन के पात्र को दारू पीनी पड़ती है.
डायरेक्टर जॉर्ज मिलर ने कहा था, "हम एक अराजकता भरे, chaotic जगत में रहते हैं. सूचनाओं, अराजकता की इस बारिश का मतलब ढूंढ़ने की कोशिश करते हैं. इस बमबारी में से कुछ distill करके निकालने का ज़रिया है कहानियां, फ़िल्ममेकिंग. वे ही इस शोर में कोई सिग्नल खोजने का तरीका है. और ये बड़ा ही मदहोश करने वाला तरीका है." "मैड मैक्स" पर हो सकता है ये खरा उतरता हो. परंतु "सलारः पार्ट 1 - सीज़फायर" में इस chaos में अर्थ ढूंढ़ने की कोशिश नहीं हो रही है, ये फ़िल्म किसी अर्थ की तलाश में नहीं. ये दो दोस्तों की दोस्ती और फिर उनकी दुश्मनी की कहानी है, लेकिन सर्वत्र वह एक अभिभूत करने की कोशिश में लगी फ़िल्म है. आपके भीतर भावों का, कौतुक का, जिज्ञासा का, व्यग्रता का, इंस्टेंट जस्टिस का, हीरो वर्शिप का और आपको एक फैंटेसी लैंड में स्थानांतरित कर गुज़रने का तूफ़ान पैदा करने में लगी फ़िल्म है. इसे देखें और अपनी समझ स्वयं बनाएं.
ये बात यहीं तक.
अस्तु!
Film: Salaar Part 1 - Ceasefire । Director: Prashanth Neel । Cast: Prabhas, Prithviraj Sukumaran, Shruti Haasan, Jagapathi Babu, Bobby Simha, Tinnu Anand, Easwari Rao, Sriya Reddy, Ramachandra Raju and others । Run Time: 2h 55m । Rating: A - Adult (Violence, Blood, dismemberment, child abuse, strong visuals)