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फिल्म रिव्यू: रॉकेट्री-द नंबी इफेक्ट

'रॉकेट्री- द नंबी इफेक्ट' ठीक फिल्म मगर एक औसत बायोपिक है. न आपको मास लेवल पर एंटरटेनमेंट मिलेगा, न आर्ट फिल्म वाली बोरियत.

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फिल्म 'रॉकेट्री' के एक सीन में माधवन.
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1 जुलाई 2022 (Updated: 1 जुलाई 2022, 20:30 IST)
Updated: 1 जुलाई 2022 20:30 IST
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 आर. माधवन की फिल्म 'रॉकेट्री- द नंबी इफेक्ट' सिनेमाघरों में रिलीज़ हो चुकी है. हमने इसे माधवन की फिल्म इसलिए कहा क्योंकि माधवन इस फिल्म के राइटर, डायरेक्टर, प्रोड्यूसर और लीड एक्टर हैं.  

'रॉकेट्री' शुरू होती है आउटर स्पेस के वाइड शॉट के साथ. वो शॉट आकर रुकता है नंबी नारायणन के घर पर, जहां खुशी का माहौल है. मगर अगले कुछ पलों में हालात-जज़्बात सब बदल जाते हैं. पुलिस देशद्रोह के आरोप में नंबी को पकड़कर ले जा रही है. अब तक अपने को नहीं पता है कि नंबी नारायणन कौन हैं? इन्होंने क्या तीर मारा है? फिल्म की असली कहानी इसके 19 साल बाद शुरू होती है. सुपरस्टार शाहरुख खान, नंबी नारायणन नाम के रॉकेट साइंटिस्ट का इंटरव्यू लेने जा रहे हैं. यहां शाहरुख को नंबी अपनी लाइफ स्टोरी सुनाते हैं, जो फ्लैशबैक की मदद से फिल्म में दिखाया जाता है.

फिल्म का फर्स्ट हाफ ये एस्टैब्लिश करने में निकलता है कि नंबी नारायणन ने देश और साइंस के लिए क्या-क्या किया. उन्होंने प्रिंसटन यूनिवर्सिटी से स्कॉलरशिप हासिल की. विदेश जाकर एक से बढ़कर एक डील्स किए, जो भविष्य में भारत के स्पेस प्रोग्राम में मददगार साबित होंगे. वो रॉल्स रॉयस के CEO मिलते हैं. वो 52 साइंटिस्ट को लेकर फ्रांस जाते हैं. वहां से नई चीज़ें सीखकर आते हैं. रशिया से सस्ते दामों पर टेक्नॉलोजी खरीदते हैं. कई एनेक्डोटल एपिसोड्स की मदद ये बताया जाता है कि नंबी नारायणन इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइज़ेशन के लिए बेशकीमती हैं.  

सेकंड हाफ में दिखता है कि जिस आदमी ने देश के लिए इतना कुछ किया, देश ने बदले में उन्हें क्या दिया. देशद्रोही होने का ठप्पा. थर्ड डिग्री टॉर्चर. मेंटल ट्रॉमा. और इस सबसे उनकी फैमिली पर क्या असर पड़ता है. सब्जी कैसे बनती है? तमाम मसालों को मिलाकर. अगर उन मसालों को अलग-अलग टेस्ट करेंगे, तो हमें सब्जी वाला स्वाद नहीं मिलेगा. ठीक वैसे ही किसी भी सिनेमा को तोड़कर नहीं देखना चाहिए. फर्स्ट हाफ-सेकंड हाफ कुछ नहीं होता. एक पिक्चर होती है. हम यहां खुद को कॉन्ट्राडिक्ट कर रहे हैं. मगर हमने 'रॉकेट्री' की कहानी दो भागों में इसलिए बताई क्योंकि ये दो अलग-अलग फिल्म सरीखी लगती है. फर्स्ट हाफ में फिल्म ढेर सारे टेक्निकल टर्म्स का इस्तेमाल करती है. जिनमें से अधिकतर चीज़ें दर्शकों के पल्ले नहीं पड़तीं. इस वजह से ये वाला हिस्सा थोड़ा खिंचा हुआ सा लगता है. 

फिल्म के एक सीन में पुलिस के हाथों टॉर्चर किए जाते नांबी नारायणन.

जब कहानी अपने दूसरे पहलू की रुख करती है, तो गेम चेंज हो जाता है. नंबी पर पाकिस्तान को सीक्रेट्स बेचने के आरोप लगते हैं, उसके बाद ड्रामा बिल्ड होना शुरू होता है. आप दोबारा से कहानी में दाखिल होते हैं. 'रॉकेट्री' की कहानी बताती है कि नंबी नारायणन पर देशद्रोह का आरोप लगा. पुलिस ने जांच में पाया कि वो बेकसूर हैं. मगर ये फिल्म पूछती है कि नंबी ने अगर कुछ गलत नहीं किया, फिर भी उन्हें ये सब झेलना पड़ा. यानी किसी और ने कुछ गलत किया है? बहुत बढ़िया सवाल है. मगर फिल्म इसका जवाब नहीं देती.

'रॉकेट्री' एक नॉर्मल बायोपिक नहीं है. वो एक रॉकेट साइंटिस्ट की बायोपिक है. फिल्म आपको ये बात याद दिलाती रहती है. इसलिए कनेक्ट नहीं कर पाती है. मगर इमोशनल सीन्स में वो अपने सारे पाप धो लेती है. आप नंबी के लिए बुरा फील करते हैं. आपको लगता है कि जिस आदमी ने देश के लिए क्या-क्या नहीं किया, आज उसको अपने जीवन में ये सब भी देखना पड़ा. उसकी फैमिली प्रभावित हो रही है. पत्नी का मानसिक संतुलन बिगड़ गया. घर पर पत्थर फेंके जा रहे हैं. फिल्म का वो हिस्सा वाकई मूविंग है.

फिल्म के एक सीन में अपनी पत्नी मीना के साथ जाते नांबी.

अधिकतर बायोपिक्स से मेरी एक ही शिकायत रहती है. कोई भी फिल्ममेकर किसी की बायोपिक इसलिए बनाता है क्योंकि उसकी लाइफ एक्साइटिंग लगती है. (प्लस बिज़नेस एंगल भी है). पिछले दिनों हिंदी फिल्म इंडस्ट्री ने नया टर्म सीखा था. स्टोरी इज़ द हीरो. किसी के ऊपर बायोपिक बन रही है, मतलब वो ऑलरेडी हीरो है. आपको उसे हीरो दिखाने के लिए एक्स्ट्रा मशक्कत करने की ज़रूरत नहीं है. ये उन लोगों के अचीवमेंट को गुड एनफ नहीं मानने जैसा लगता है. ये समस्या 'रॉकेट्री' के साथ भी आती है. इस फिल्म की मानें, तो 1969 से लेकर 90 के दशक में ISRO ने जो भी किया, सबकुछ नंबी नारायणन की वजह से संभव हो पाया. जबकि फिल्म में विक्रम साराभाई, एपीजे अब्दुल कलाम, सतीष धवन जैसे लोगों का ज़िक्र भी होता है. इसके अलावा फिल्म में नंबी के साथ दो रॉकेट साइंटिस्ट और नज़र आते हैं. मगर वो बस नंबी की हौसला अफजाई के लिए हैं. वो लोग रियल लाइफ की तरह फिल्म में भी सपोर्टिंग कास्ट हैं. उनकी अपनी कोई पहचान नहीं है. सेंसिबल फिल्मों में इस तरह की बातें खलने लगती हैं.

माधवन ने 'रॉकेट्री' में नंबी नारायणन का रोल किया है. इस फिल्म में उन्हें उम्र के अलग-अलग पड़ावों पर दिखना था. फिर आता है बुढ़ापे वाला हिस्सा, जहां से फिल्म शुरू और खत्म होती है. आखिरी हिस्से में फिल्म माधवन को हटाकर ओरिजिनल नंबी नारायणन को ले आती है. और यकीन मानिए, आपके व्यूइंग एक्सपीरियंस पर बिल्कुल जोर नहीं पड़ता. इस सीन में माधवन और नंबी इतने ज़्यादा सिमिलर दिखते हैं, कि दिमाग को सामंजस्य बिठाने के लिए एफर्ट नहीं करना पड़ता.

फिल्म में शाहरुख खान ने अपना किरदार निभाया है. ये बताया गया है कि शाहरुख खान अपनी फिल्म की शूटिंग छोड़कर ये इंटरव्यू लेने आए हैं.

क्लाइमैक्स में शाहरुख को देखकर 'चक दे' में उनकी परफॉरमेंस याद आती है. फिल्म में उन्होंने अपना ही किरदार निभाया है, जिसे नंबी का इंटरव्यू लेने के लिए बुलाया गया है. वो फिल्म के 5-6 सीन्स में दिखते हैं. लंबे समय बाद शाहरुख खान को स्क्रीन पर देखकर फील गुड हो गया. सिमरन ने नंबी नारायणन की पत्नी मीना का रोल किया है. फिल्म में वो बहुत कम समय के लिए नज़र आती हैं. मगर उतने समय में ही फिल्म को एक इमोशनल डेप्थ दे देती हैं. इम्पैक्टफुल परफॉरमेंस. 

कुल जमा बात ये है कि 'रॉकेट्री- द नंबी इफेक्ट' ठीक फिल्म मगर एक औसत बायोपिक है. न आपको मास लेवल पर एंटरटेनमेंट मिलेगा, न आर्ट फिल्म वाली बोरियत. एक इंट्रीगिंग कहानी देखने को मिलेगी. ये फिल्म दो लोगों के संघर्ष की कहानी है. पहले नंबी नारायणन जो तमाम मुश्किलों से गुज़रे. और दूसरे माधवन जिन्होंने बड़े मन से उनकी कहानी पर फिल्म बनाई. प्लस शाहरुख खान.

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