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क्या किया उस बच्ची ने, जिसकी मां की जान मछली में थी और बच्ची को उसे बचाना ही था?

अगर मछली मर जाती, तो मां भी नहीं बचती. #चला_चित्रपट_बघूया.

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'पिप्सी' विश्वास और मासूमियत का सुंदर पोट्रेट है.
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10 दिसंबर 2019 (Updated: 10 दिसंबर 2019, 12:10 PM IST) कॉमेंट्स
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मराठी सिनेमा को समर्पित इस सीरीज़ 'चला चित्रपट बघूया' (चलो फ़िल्में देखें) में हम आपका परिचय कुछ बेहतरीन मराठी फिल्मों से कराएंगे. वर्ल्ड सिनेमा के प्रशंसकों को अंग्रेज़ी से थोड़ा ध्यान हटाकर इस सीरीज में आने वाली मराठी फ़िल्में खोज-खोजकर देखनी चाहिए.
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आज की फिल्म है 'पिप्सी'.
अभी हाल ही में लल्लनटॉप अड्डा हुआ. उसमें गीतकार स्वानंद किरकिरे भी आए थे. मराठी सिनेमा की बात चली तो उन्होंने एक दिलचस्प बात कही. मराठी सिनेमा में बच्चों को लेकर काफी अच्छी फ़िल्में बन रही हैं. उनकी बात बिल्कुल सही है. मराठी सिनेमा इस दिशा में बहुत उम्दा काम कर रहा है. हमारी आज की फिल्म भी ऐसी ही है. बच्चों की दुनिया. जो बड़ों की दुनिया में विश्वास, करुणा और प्रेम की मात्रा बढ़ाने का माद्दा रखती है. और इसी दुनिया को परदे पर उतारती एक सहज, सुंदर, सार्थक फिल्म है 'पिप्सी'.

अपनी-अपनी मछली

कहानी है दो बच्चों की. सात-आठ साल के बच्चे. चानी और बाळू. चानी, जिसकी मां बहुत बीमार है और मौत से संघर्ष कर रही है. बाळू, जो चानी का परमसखा है. चानी की फ़िक्र में अधमरा होना और उसके लिए जो चाहे कर गुज़रना यही उसका काम है. चानी की मां बहुत ज़्यादा बीमार है. उनके लिए डॉक्टर ने कहा है कि वो सिर्फ तीन महीने की मेहमान हैं. चानी इस आसमान जितने बड़े दुःख से जूझने का तरीका नहीं खोज पा रही. ऐसे में एक दिन दोनों बच्चे एक कीर्तन में कुछ ऐसा सुनते हैं जिनसे उनके अंदर उम्मीद उभरने लगती है.
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बेकार पड़ा हुआ एक ट्रेन का डिब्बा चानी और बाळू का पर्मनंट अड्डा है.

कीर्तन में महाराज ने एक कहानी सुनाई. कि कैसे एक राजा ने पहले मछली की जान बचाई और फिर आगे चलकर वही मछली उसका तारणहार बनी. कहानी के अंत में कीर्तनकार प्रतीकों की भाषा में कहते हैं कि हर व्यक्ति की अपनी एक मछली होती है. बच्चे इस बात को लिटरली ले लेते हैं. उन्हें लगता है कि जैसे बचपन की कहानियों के राक्षस की जान तोते में कैद थी, वैसे ही चानी की मां के प्राण मछली में कैद हैं. उसी दौरान, घर पर बनने आई मछलियों में से एक ज़िंदा मछली चानी के हाथ लग जाती है. अब बस उस मछली को ज़िंदा रखने की जद्दोजहद है. किसी भी हाल में उस मछली की रक्षा करनी है. क्योंकि अगर मछली मर गई तो मां भी मर जाएगी. दोनों बच्चे मछली को ज़िंदा रखने की इस जंग में किन-किन हालात से गुज़रते हैं, उसी जर्नी की कहानी है 'पिप्सी'.
क्या बच्चे मछली की हिफाज़त कर पाते हैं? क्या चानी की मां बीमारी से उबर पाती है? क्या बच्चों का मासूम विश्वास जीवन के कटु सत्य से लोहा ले पाता है? ये सब जानने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी. 'पिप्सी', जिसकी टैगलाइन ही है, 'अ बॉटल फुल ऑफ होप'.

निरागस विश्वास

'पिप्सी' न सिर्फ एक यकीन की कहानी कहती है बल्कि निस्वार्थ दोस्ती के रंगों से भी आपकी मुलाक़ात कराती है. चानी और बाळू की दोस्ती इतनी क्यूट है कि आपको रह-रहकर दोनों बच्चों पर प्यार आता है. कुछेक सीन तो आपके सीने को प्रेम की गर्माहट से भर देंगे. जैसे एक सीन में मछली की तलाश में चानी रात के अंधेरे में कुएं में उतरती है. अंधेरे से डरने वाला बाळू कुएं में उतरने की हिम्मत तो नहीं कर पाता, लेकिन ऊपर से टॉर्च पकड़कर सारी रात खड़ा रहता है. कुएं के किनारे पर ही सो जाता है. बहुत प्यारा सीक्वेंस है ये. ऐसे ही एक और सीक्वेंस में मछली के लिए बाळू अपने पिता की दुकान से पारले-जी की चोरी करता है. इल्ज़ाम नौकर पर लगता है. नौकर को निकाल दिए जाने से बच्चे अपराधबोझ से दब जाते हैं और बाळू के पिता को सब सच बताने की हिम्मत कर जाते हैं. ऐसे ही छोटे-छोटे लम्हों में ये फिल्म बड़ी बनती है.
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मछली को बचाने की जद्दोजहद और इंटेंस क्लाइमैक्स एक दर्शक को द्रवित कर देता है.

बच्चों की फिल्म बनाना काफी जोखिमभरा काम है. न सिर्फ आर्थिक फ्रंट पर रिस्क होता है, कहानी प्रेजेंट करने में भी एक अलग लेवल की संवेदनशीलता की ज़रूरत होती है. कई बार बच्चों को लेकर बनी फ़िल्में अपने आप में बचकानी निकल आने का अंदेशा होता है. छोटे बच्चों की मानसिकता को सूक्ष्मता से पकड़ना थोड़ा जटिल काम तो है. शुक्र है कि कुछ मराठी फिल्म मेकर्स, निर्देशक इस जटिलता को आसानी से क्रैक कर पा रहे हैं. ये लोग बच्चों की दुनिया को सरलता से परदे पर पेश करने में काफी हद तक सफल रहे हैं. 'पिप्सी' के डायरेक्टर रोहन देशपांडे ऐसे ही लोगों में से एक लगते हैं. उनको फुल मार्क्स.

एक्टिंग 'नहीं' करने वाले बच्चे

एक्टिंग की बात की जाए, तो चानी और बाळू के रोल में लीड एक्टर्स ने मंत्रमुग्ध कर देने वाली परफॉरमेंस दी है. इतनी अच्छी कि लगता ही नहीं ये बच्चे एक्टिंग कर रहे हैं. चानी के रोल में मैथिली पटवर्धन मासूमियत और क्यूटनेस का परफेक्ट पैकेज हैं. मैथिली पर से नज़रें नहीं हटती. दिल करता है इस बच्ची को घर ले आएं. बाळू की भूमिका में साहिल जोशी ने मैथिली के ही लेवल की परफॉरमेंस दी है. इससे पहले भी वो 'रिंगण' जैसी फिल्म में अपनी बेमिसाल अदाकारी का लोहा मनवा चुके हैं. ये दो बच्चे इस फिल्म को एक मीठा, मोहक अनुभव बना देते हैं. बाकी के कलाकार भी अपना काम ईमानदारी से कर जाते हैं. स्पेशल मेंशन सौरभ भावे का होना चाहिए जिन्होंने इतनी प्यारी स्क्रिप्ट लिखी है. 'पिप्सी' की सबसे बड़ी जीत इसका सहज-सुंदर लेखन ही है.
चानी के रोल में मैथिली पटवर्धन ने इंतेहाई क्यूट लगी हैं.
चानी के रोल में मैथिली पटवर्धन ने इंतेहाई क्यूट लगी हैं.

ये ऐसी फिल्म है जिसे देखते वक्त माजिद मजीदी की 'चिल्ड्रेन ऑफ़ हेवन' जैसी फिल्म दिमाग में कौंधती है. और ये बात भी रेखांकित होती है कि बच्चों की दुनिया कितनी निरागस, कितनी निश्चल होती है. अपने बचपन में हम सबने भी ऐसा कुछ ज़रूर किया होगा. माता-पिता के बीमार पड़ने पर ईश्वर से मन्नत मांगी होगी. उस निष्पाप, भोली दुनिया को डेढ़ घंटे की इस फिल्म में बेहद असरदार तरीके से पिरोया गया है. पूरी टीम को बधाई. ज़रूर देखी जानी चाहिए 'पिप्सी'.


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