'डोंबिवली फास्ट': जब एक अकेला आदमी सिस्टम सुधारने निकल पड़ा
और फिर पूरे सिस्टम ने उसे मिटा डालने के लिए कमर कस ली.
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फोटो - thelallantop
मराठी सिनेमा को समर्पित इस सीरीज़ 'चला चित्रपट बघूया' (चलो फ़िल्में देखें) में हम आपका परिचय कुछ बेहतरीन मराठी फिल्मों से कराएंगे. वर्ल्ड सिनेमा के प्रशंसकों को अंग्रेज़ी से थोड़ा ध्यान हटाकर इस सीरीज में आने वाली मराठी फ़िल्में खोज-खोजकर देखनी चाहिए.

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आज की फिल्म है 'डोंबिवली फास्ट'. एक आम आदमी की कहानी, जो सिस्टम को बदल भले न सका लेकिन उससे लड़ने का हौसला ज़रूर रखता था. जिसका सच्चाई और ईमानदारी जैसे मूल्यों में पूरा विश्वास था. जो चाहता था कि दुनिया स्वर्ग सी भले ही न हो लेकिन कम से कम नर्क तो न बने. ये कहानी है माधव श्रीधर आपटे नाम के एक कॉमन मैन की.
माधव आपटे एक बैंक में नौकरी करता है. घर में बीवी और दो बच्चे हैं. रोज़ाना 'डोंबिवली फास्ट' लोकल ट्रेन से ऑफिस आता-जाता है. कुल मिलाकर एक टिपिकल मिडिल क्लास आदमी. माधव आपटे को औरों से अलग अगर कोई चीज़ करती है, तो वो है उसके प्रिंसिपल्स. उसे बेईमानी, धोखाधड़ी, करप्शन से बेइंतहा चिढ़ है. उसे समझ ही नहीं आता कि लोग कैसे रोज़मर्रा की ज़िंदगी में भी बेईमान बने घूमते हैं. वो खुद ईमानदार है और अपने इर्द-गिर्द ईमानफरोश लोगों की भीड़ उसे गुस्सा दिलाती है.

निशिकांत कामत की पहली फिल्म.
वहीं दूसरी तरफ उसकी बीवी अलका पूरी तरह प्रैक्टिकल है. उसका कहना है कि अगर बेटे के लिए ट्यूशन ज़रूरी है, तो है. माधव समझता है कि क्लास में ठीक से न पढ़ाकर ट्यूशन के लिए ब्लैकमेल करना टीचर्स की बेशर्मी है. वो चिढ़कर पूछता है कि अगर दस लोग ग़लत कर रहे हैं तो मेरा भी वही करना ज़रूरी है क्या? प्रिंसिपल्स और प्रैक्टिकैलिटी की ये जंग घर में रोज़मर्रा की बात है. एक दिन तैश में अलका माधव से कह देती है कि वो सिर्फ ज्ञान न दें, कुछ बदल कर दिखाए. यही से शुरू होती है माधव की सिस्टम से जंग.
लेकिन एक कमज़ोर आदमी कर भी क्या सकता है सिस्टम के खिलाफ? उसे दिखता है कि करप्शन बिल्कुल छोटे लेवल से शुरू होकर टॉप तक फैला हुआ है. इसी दुनिया में स्कूल में एडमिशन के लिए डोनेशन मांगती प्रिंसिपल है, 10 रुपए की कोल्ड ड्रिंक की बोतल, 12 में बेचता दुकानदार है, इलाके का कॉर्पोरेटर एक तरफ तो जनता के लिए स्विमिंग पुल खोलता है वहीं दूसरी तरफ पानी जैसी बेसिक ज़रूरत का व्यापार करता है. खुद माधव का बैंक मैनेजर अपने चहेते कस्टमर का लोन नियम ताक पर रखकर पास करा देता है. कदम-कदम पर संघर्ष है. कैसे लड़ेगा माधव? पर वो लड़ता है. पहले बैट से, फिर चाक़ू से और अंत में गन से. और फिर सारा सिस्टम अपनी पूरी ताकत से माधव श्रीधर आपटे के पीछे पड़ जाता है. उसके इस संघर्ष का अंजाम क्या होता है ये फिल्म देखकर जानिएगा.

माधव श्रीधर आपटे.
फिल्म के कितने ही सीन ऐसे हैं जो आपके ज़हन में हमेशा के लिए रजिस्टर हो जाते हैं. जहां से फिल्म शुरू होती है उस सीन का इम्पैक्ट भयावह है. कुछेक मिनटों में मिडिल क्लास शख्स की रूटीन लाइफ दिखाई गई है. सुबह अलार्म की आवाज़ से उठना, नहा-धोकर ऑफिस के लिए निकलना, रोज़ाना सेम लोकल ट्रेन पकड़ना, ऑफिस में रोज़ एक जैसा काम, लंच ब्रेक में एक जैसा ही टिफिन और शाम को वही थकी हुई वापसी. रोज़ यही सब. बिना थके, बिना कंप्लेंट किए. आप-हम में से कितने ही लोग सेम ज़िंदगी जीते हैं. ये ज़िंदगी कितनी मशीनी है ये परदे पर देखकर डर लगता है.
अगर कभी इंडियन सिनेमा में पावरफुल क्लाइमैक्स की लिस्ट बनी तो उसमें 'डोंबिवली फास्ट' का क्लाइमैक्स सीन ज़रूर-ज़रूर होगा. मैं क्लाइमैक्स बताकर स्पॉइलर तो नहीं दूंगा लेकिन एक पर्टिक्युलर डायलॉग ज़रूर बताना चाहूंगा. माधव लोकल ट्रेन में है. उसे पकड़ने आई पुलिस टीम के मुखिया से वो कहता है, "ऑफिसर, आयुष्य गेलं इथे चौथ्या सीट वर बसून. ज़रा खिड़की वर बसू ?" जिसका मतलब हुआ: "ऑफिसर, पूरी ज़िंदगी इस चौथी सीट पर बैठकर निकल गई. ज़रा विंडो सीट पर बैठ जाऊं?" कितनी मामूली मांग! लेकिन ये मांग अपने आप में पूरे मध्यम वर्ग का चित्रण समेटे हुए है. कैसे एक आम आदमी छोटी-छोटी ख्वाहिशों के लिए जीता है और उन्हें लिए-लिए ही मर जाता है.

इस सीन में आप भावुक हो जाते हैं.
माधव आपटे के रोल में संदीप कुलकर्णी ग़ज़ब की पावरफुल परफॉरमेंस देते हैं. उनकी देहबोली से लोगों के कैज्युअल नेचर के प्रति चिढ़ कदम-कदम पर झलकती है. एक सीन है जहां वो आसमान में देखकर ईश्वर से संवाद करते हैं. इस सीन में उनका आक्रोश इतना जेन्युइन लगता है कि दर्शक अस्वस्थ हो जाता है. ग़म, गुस्सा, हताशा जैसे तमाम भाव वो परफेक्टली डिलीवर करते हैं. उनकी बीवी के रोल में शिल्पा तुळसकर ने अच्छी एक्टिंग की है. ख़ास तौर इमोशनल ब्रेकडाउन वाले एक सीन में वो बेहद शानदार लगी हैं.
एक और किरदार है जो आपको बेहद प्रभावित करता है. इंस्पेक्टर सुभाष अनासपुरे. एक ऐसा पुलिसवाला जो माधव आपटे की अंदरूनी टूटफूट को समझ पा रहा है. जो उसके संघर्ष का सम्मान करता है. लेकिन ड्यूटी के हाथों मजबूर है. जो इस करप्ट सिस्टम का हिस्सा भी है और विक्टिम भी. संदेश जाधव ने इस रोल में जान डाल दी है. उनकी गुस्सैल आंखें और दमदार आवाज़ देर तक याद रहती है.

संदेश जाधव ने शानदार परफॉरमेंस दी है.
फिल्म का एक और सशक्त पहलू है इसके संवाद. संजय पवार ने ऐसे दमदार डायलॉग लिखे हैं जो आपको झकझोरकर रख देते हैं. असहज कर देते हैं. हिंदी सिनेमा को 'मुंबई मेरी जान' और 'दृश्यम' जैसी फ़िल्में देने वाले डायरेक्टर निशिकांत कामत की ये पहली फिल्म थी. जो न सिर्फ उस साल की बिगेस्ट मराठी फिल्म बनी बल्कि नैशनल अवॉर्ड भी झटक लाई. इसका तमिल में 'एवानो ओरुवन' नाम से रीमेक भी बना. जिसे निशिकांत कामत ने ही डायरेक्ट किया. लीड रोल में थे आर माधवन.
आम आदमी की तंत्र के खिलाफ लड़ाई यूं तो कई बार परदे पर देखी-दिखाई गई है. जो चीज़ 'डोंबिवली फास्ट' को ऐसी तमाम फिल्मों में स्टैंड आउट करती है, वो है संदीप कुलकर्णी का ग्रैंड शो. आम आदमी के गुस्से को, फ्रस्टेशन को जिस एग्रेशन से उन्होंने परदे पर उतारा है वो शाबाशी में पीठ ठोकने लायक है. ज़रूर देखिएगा. फिल्म ऑनलाइन अवेलेबल है.
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