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रावसाहेब - मराठी फिल्म रिव्यू

Nikhil Mahajan की Raavsaheb: प्रकृति और इंसान के मतभेद पर बनी एक मज़बूत फिल्म.

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‘रावसाहेब’ अभी सिर्फ फिल्म फेस्टिवल्स में ही घूम रही है.
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यमन
23 मई 2025 (Published: 02:12 PM IST) कॉमेंट्स
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Raavsaheb 
Director: Nikhil Maharajan 
Cast: Jitendra Joshi, Sonalee Kulkarni, Mukta Barve, Rashmi Agdekar
Rating: 3.5 Stars

महाराष्ट्र का एक गांव. रात का समय है. सरपंच की बेटी की शादी में सभी जमा हुए हैं. नाच रहे हैं, झूम रहे हैं. दो सेकंड के लिए रंग में भंग पड़ता है, बत्ती गुल होती है. लेकिन अगले ही पल लौट भी आती है, साथ ही लौट आता है गांववालों का वो उत्साह जिसमें मस्त होकर वो एक-दूसरे को गले लगाकर नाच रहे थे. तभी एक शख्स उस नशे से बाहर निकलता है. आंखें इधर-उधर दौड़ने लगती हैं. अगल-बगल वालों से पूछता है कि मोगरा कहां हैं. मोगरा गांव की वो बच्ची है जिसे जी भर के देख लेने से सबकी आंखों की थकान मिट जाती. कुछ क्षण पहले वो यहीं थी. अब नहीं है.

फॉरेस्ट रेंजर कांतार स्टेज पर चढ़ता है. पुकारता है कि मोगरा गायब हो गई है. जिस ज़मीन पर गांववालों के दनदनाते पांव पड़ रहे थे, उस पर अब सन्नाटा पसरा है. सभी लोग एक झुंड बनाकर जंगल की ओर कूच करते हैं. ‘मोगरा, ‘मोगरा!’ की आवाज़ से सोती हुई पत्तियां थर्रा जाती हैं. गांववाले नहीं चाहते कि उनका डर सही साबित हो जाए. हर किसी के मन में यही सवाल है कि कहीं रावसाहेब तो मोगरा को नहीं खा गया. T-3 यानी रावसाहेब एक बाघ है जो पहले भी एक आदिवासी बुजुर्ग को मार चुका था. जंगल में थोड़ा अंदर जाने पर मोगरा मिलती है. वो अपनी अंतिम सांसें ले रही है. गले से खून बहे जा रहा है. पूरी शक्ति लगाकर बस इतना कहती है, “वो बाघ नहीं था”. कांतार और उसके साथी मोगरा को उठाकर हॉस्पिटल ले जाना चाहते हैं. लेकिन तभी सचिन नाम का एक लोकल नेता हंगामा मचा देता है. उसे अपनी राजनीति भुनानी है. किसी भी हालात में बच्ची को वहां से नहीं जाने देता. माहौल गर्म होता है. धक्का-मुक्की होती है. और इस बीच सब ये भूल जाते हैं कि मोगरा ने हमेशा के लिए आंखें मूंद ली हैं.
‘रावसाहेब’ के इस सीन को देखते हुए मुझे एहसास हुआ कि मैंने बेचैनी के मारे अपनी मुट्ठी भींच रखी थी. सीन खत्म होने पर मुट्ठी खुली, और पाया कि हथेली पर गढ़े हुए नाखून अपनी जगह बना चुके थे.

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निखिल महाजन को ‘गोदावरी’ के लिए नैशनल अवॉर्ड से सम्मानित किया गया था. 

दिल्ली में हैबिटेट फिल्म फेस्टिवल चल रहा है. उसी दौरान निखिल महाजन की फिल्म ‘रावसाहेब’ भी दिखाई गई. निखिल वहीं डायरेक्टर हैं जिन्होंने अपनी पिछली फिल्म ‘गोदावरी’ के लिए नैशनल अवॉर्ड जीता था. खैर उनकी नई फिल्म ‘रावसाहेब’ सदियों से चल रहे इंसान और प्रकृति के मतभेद के बारे में है. कई सारे किरदार हैं जो एक ही धागे से बंधे हुए हैं. एक कमिशनर है जो सही करना चाहती है, एक कोयले की खदान चलाने वाला है जिसके लिए मुनाफे से बढ़कर कुछ नहीं, एक फॉरेस्ट रेंजर है जो बस अपनी ड्यूटी करना चाहता है, एक जर्नलिस्ट है जो ज़मीनी हकीकत तक पहुंचना चाहती है, एक लोकल नेता है जो किसी विषैले नाग से भी ज़हरीला है, एक NGO चलाने वाली महिला है जो अपनी पॉलिटिक्स नहीं समझ पा रही है और जब तक उसे गणित समझ आता है, तब तक देर हो जाती है. इन सभी के जीवन के केंद्र में है रावसाहेब नाम का बाघ, जिसका गुनाह बस ये है कि वो एक बाघ है.

‘रावसाहेब’ अपनी पॉलिटिक्स को लेकर बिल्कुल भी नहीं शर्माती. शुरुआत में किरदारों का इंट्रो आता है और साथ ही उनकी पॉलिटिक्स भी स्क्रीन पर लिखी हुई आती है. जैसे रूमी नाम की जर्नलिस्ट न्यूट्रल है. धीरन नाम के प्रवासी मजदूर के पास पॉलिटिक्स चुनने की सहूलियत नहीं है. एक जगह उसे सिर्फ इसलिए काम नहीं मिलता क्योंकि वो बाहर वाला है. ‘रावसाहेब’ की दुनिया में जो लोग बुरे हैं, उन्हें आप पहले ही आइडेनटिफाय कर लेते हैं. लेकिन यहां के अच्छे लोग भी पूरी तरह अच्छे नहीं. जैसे एक सीन है जहां फॉरेस्ट रेंजर कांतार को सचिन बेइज़्ज़त कर के चला जाता है. कांतार कुछ नहीं कर सकता क्योंकि वो अपनी वर्दी के दायरे में बंधा है. अगले सीन में वो चौकी के अंदर आता है. अपने कांस्टेबल्स को देखता है. उन पर फट पड़ता है. गुस्से से उसका चेहरा लाल हो चुका है. जब शब्द कम पड़ने लगते हैं तो वो अपना जूता निकालकर उन पर फेंकता है. इतने पर भी गुस्सा शांत नहीं होता और वो अपने चोटिल हुए आत्म-सम्मान के साथ अकेला रह जाता है. वो अपनी बेचैनी, अपने अपमान को चेहरे पर आने देता है. जितेंद्र जोशी ने कांतार का रोल किया है. उन्होंने फिल्म में बेहतरीन काम किया है. ऐसा ही मुक्ता बर्वे, मृण्मयी देशपांडे, सोनाली कुलकर्णी और रश्मि अगडेकर जैसे एक्टर्स के लिए भी कहा जा सकता है.

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अभी तक ‘रावसाहेब’ का ट्रेलर रिलीज़ नहीं हुआ है. एक टीज़र आया है जिसका फिल्म से कोई लेना-देना नहीं.  

‘रावसाहेब’ के शुरुआत में बहुत कुछ घट रहा होता है. आप एक ही साथ बहुत सारे किरदारों से मिलते हैं. लेकिन धीरे-धीरे ये दुनिया आपको अपने अंदर खींचने लगती है. आप खुद को उन किरदारों के लिए कुछ महसूस करते हुए पाते हैं. जिस तरह की ये फिल्म है, उससे आपको अंत का भी एक आइडिया लगने लगता है. लेकिन क्लाइमैक्स में आकर फिल्म आपकी सारी उम्मीदों को उल्टा कर देती है. ये आपको चौंकाती नहीं है, बस थोड़ा निराश करती है. क्लाइमैक्स में अचानक से कुछ ऐसा होता है जैसा आप किसी टिपिकल मसाला फिल्म में देखते आए हों. ऐसी फिल्म जहा पुलिसवालों ने अपनी ड्यूटी की परवाह किए बिना कुछ कर दिया हो. बस ऐसा ही कुछ यहां भी होता है. ये अखरता है. बहरहाल क्लाइमैक्स की वजह से मैं वो सब कुछ नहीं भूल सकता जो उससे पहले तक की फिल्म ने मुझे महसूस करवाया. वो गुस्सा, वो बेचैनी, अंत तक ये भाव मेरे साथ रहे. इसके लिए फिल्म की साउंड डिज़ाइन की भी तारीफ होनी चाहिए. फिल्म में जिस तरह से साउंड से ट्रांज़िशन किए गए, बाघ की दहाड़ को पिरोया गया, वो आपको फिल्म के माहौल में जकड़कर रखता है.

‘रावसाहेब’ अभी सिर्फ फिल्म फेस्टिवल्स में ही घूम रही है. जल्द ही इसे पब्लिक के लिए भी रिलीज़ किया जाएगा. जब भी ये सिनेमाघरों में आती है तो इसे ज़रूर देखिएगा.              
           

वीडियो: फिल्म रिव्यू: मराठी फिल्म रेडू

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