पटाखा' के म्यूज़िक से गुलज़ार और विशाल भारद्वाज की जोड़ी 2018 में फिर टॉप पर पहुंच जाएगी!
'आजा नेटवर्क के भीतर, मेरे व्हाट्सएप के तीतर'
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फोटो - thelallantop
मुझे मनमर्ज़ियां के गीतों के बारे में न लिख पाने का अफ़सोस इसलिए है क्यूंकि उसका हर गीत एक जेम था. यही हाल पटाखा का भी है. मनमर्ज़ियां के गीतों के बारे में लिखना छूट गया था लेकिन पटाखा के केस में ये गलती नहीं करूंगा. पटाखा म्यूज़िक एल्बम नाम की लड़ी का हर गीत मुर्गा छाप है.
बावज़ूद इसके कि ये एल्बम विशाल या गुलज़ार या रेखा या सुखविंदर या अरिजीत या सुनिधि का बेस्ट म्यूज़िक एल्बम नहीं कहा जाएगा, लेकिन ये एल्बम इन सभी कलाकारों के पिछले कुछ कामों से कहीं बेहतर है. आइए सुनते हैं इस एल्बम के 5 गीत, और पढ़ते हैं उनसे जुड़े 5 पॉइंट्स- # 1) कबीर, तुलसी ने अपने ज़माने में जो बिंब दिए थे वो जुलाहे, पनघट, मोती, सीपी वाले थे. ग़ालिब ने अपने ज़माने में जो बिंब दिए थे वो नक़ाब, चिराग़ वाले थे. यूं हमारे मेटाफर भी हमारे ज़माने के होने चाहिए. सेल्फी, व्हाट्सएप, एफबी, ट्विटर वाले होने चाहिए. और ये बात समय की नब्ज़ पकड़ने वाले गुलज़ार जानते हैं. इसलिए उन्होंने लिखा है गीत – हेल्लो, हेल्लो. गौर फरमाएं –
अल्ला जाने, मेरी छत पे, क्यूं इतना कम सिग्नल है? पैदल है या ऊंट पे निकला, या माइकल का साइकिल है?होने को इस बार नेटवर्क वाली दिक्कत को हाईलाईट करने में वो कुछ लेट हो गए हैं क्यूंकि पूरे भारत में नेटवर्क सुधर गया है और किसी की छत पर कम सिग्नल होने को शायद कम लोग ही रिलेट कर पाएंगे. बहरहाल चूंकि फ़िल्म का बैकड्रॉप राजस्थान का एक अंडर-डेवलप्ड गांव है तो, लिरिक्स कुछ-कुछ जस्टिफाई हो जाती हैं. गुलज़ार अपने आप को समय के साथ मोल्ड करते आए हैं. उनकी कविता ‘किताबें’, कम्प्यूटर युग में किताबों के नॉस्टेल्जिया की अद्भुत फीलिंग देती है. उनका गीत ‘हम है बड़े काम के’ में डायरी और लैपटॉप है. उनके गीत ढेंन ट ढेंन में ‘वन वे रोड’ है. लेकिन साथ में वो अकेले ऐसे कवि-गीतकार हैं जो अगर दिल्ली की बात करते हैं तो साउथ एक्स की नहीं ‘पुरानी दिल्ली’ के बल्लीमारां और दरीबा की. खैर आप अगर इसे गुलज़ार का वर्ज़न 2.0 कहें तो कहें, लेकिन उनकी फैन फोलोइंग जानती है कि नया होना उनके लिए कोई नई बात नहीं.
# 2) पटाखा का म्यूज़िक 'ओंकारा' के म्यूज़िक की याद दिलाता है. वही विशाल, वही रेखा, वही गुलज़ार, बस ‘नमक इश्क का’ चेंज होकर ‘बलमा’ हो गया ‘यूपी’ के बदले ‘राजस्थान’ हो गया है, ‘बिपाशा’ मल्लाईका अरोड़ा हो गई हैं और ‘बीड़ी जलई ले’, ‘हेल्लो हेल्लो’ हो गया. वैसे अरिजीत का गाया नैना बंजारे कुछ हद तक ‘नैना ठग लेंगे’ की याद दिलाता है. वेल ऑलमोस्ट -
नीली-नीली एक नदिया, अंखियों के दो बजरे घाट से भिड़ी नैया, बिखर गए गजरे डूबे रे डूबे मितवा, बीच मझधारे भिड़े रे भिड़े नैना, नैना बंजारेअरिजीत एक विशेष तरह के गीतों में टाइपकास्ट होते जा रहे हैं है, लेकिन ये अच्छी ही बात है, क्यूंकि इस विशेष तरह के गीत ही बॉलीवुड में सबसे ज़्यादा बनते आए हैं. इसलिए ऑलमोस्ट हर म्यूज़िक एल्बम में उनका कम से कम एक और कई बार सारे ही गीत होते हैं. बुरी बात ये है कि लंबे समय के बाद वर्सेटाइल होना ही सर्वाइव होना हो जाता है.
# 3) हो सकता है कि अभी और गीत रिलीज़ करने बाकी हों लेकिन अभी तक जितने गीत सुने हैं उनको सुनकर कहा जा सकता है कि ये एल्बम 'ओंकारा' की तरह वर्सेटाइल नहीं है. ‘ओ साथी रे’, ‘जग जा’ और ‘लकड़’ का कोई समकक्ष नहीं है.ओंकारा एल्बम में रहे इस तरह के गीत पटाखा के म्यूज़िक एल्बम और फ़िल्म की ज़रूरत न होंगे. ट्रेलर देखकर भी यही लगता है. ‘रॉ’ लिरिक्स है, वैसा ही म्यूज़िक भी है. जिसमें बंदूक की गोलियां हैं, सीटियां हैं, शोर हैं, होली के रंग हैं लेकिन रंग भी सूरज बड़जात्या या संजय लीला भंसाली वाले चमकदार नहीं वो भी रॉ हैं. और यही अच्छी बात है. इस फ़िल्म के कथाकार चरण सिंह पथिक के एक इंटरव्यू में इस पर विस्तार से बात करते हुए गजेंद्र बताते हैं - विशाल वहां (गांव) गए ताकि कथ्य में से वो प्लास्टिक हटे जो हिंदी फिल्मों की व्यावसायिक स्टोरीटेलिंग में व्याप्त है. गांव का नाम रौंसी. राजस्थान के करौली ज़िले का एक छोटा सा गांव.
पढ़ें: उन कथाकार का इंटरव्यू जिनकी कहानी पर विशाल भारद्वाज ने 'पटाख़ा' बनाई है
होली वाला गीत 'गली गली' ही ले लीजिए. जिसमें ‘कमीने’ फ़िल्म की तरह गुल्लक नहीं ‘कुल्हड़’ फोड़े जा रहे हैं और गज़ब का केऑस मचा हुआ है.
ज़रा पोंछ के मुख दिखला दे, कोई और न गले लगा ले.और इसे सुनते वक्त सुखविंदर को पहचानने में आप कतई चूक नहीं करते हो. उनकी आवाज़ केवल उनकी ही हो सकती है, जिसकी कोई शाखा नहीं है.
# 4) मेरे कुलीग मुबारक ने पटाखा के गीतों पर टिप्पणी करते हुए कहा कि इनको सुनना और इनको देखना दोनों अलग अनुभव हैं. ये पिछले गीत ‘गली गली’ में आपको पता लग ही गया होगा. और बलमा देखते हुए इस बात की दोबारा पुष्टि होती है. मैंने कहीं कहा था कि जहां इम्तियाज़ अली ‘विमेन फिलॉसोफी’ को जानने वाले और उसे प्रोजेक्ट कर सकने वाले बॉलीवुड के सबसे अच्छे निर्देशक हैं वहीं ‘विमेन साइकोलोजी’ को बड़े पर्दे में सबसे बेहतरीन तरीके से विशाल भारद्वाज दिखाते हैं. जहां इम्तियाज़ की फिल्मों की औरतों से औरतें रिलेट कर पाती हैं कि – अरे मैं भी ऐसी ही हूं, वहीं विशाल भारद्वाज की फ़िल्में देखने के बाद पुरुष औरतों से रिलेट कर पाते हैं – अरे हां औरतें ऐसी ही तो होती हैं. अब ये बात अच्छी है या बुरी ये विमर्श का विषय है लेकिन बात ऐसी ही है. चाहे वो मकबूल की तब्बू हो, इश्किया की विद्या बालन हो, ओंकारा की करीना कपूर हो या 7 खून माफ़ की प्रियंका चोपड़ा. स्त्रियों के इस मनोविज्ञान को समझने में उनका सहयोग करते हैं शेक्सपीयर और गुलज़ार. होने को अबकी शेक्सपीयर उनके साथ नहीं है, मगर गुलज़ार तो उनके साथ रहे हैं, रहेंगे. मैं, 'स्त्री मनोविज्ञान' और 'गीतों को देखना और सुनना दो अलग अलग अनुभव हैं' जैसी बातें क्यूं कर रहा हूं वो आपको पटाखा का एक और गीत बलमा देखकर और सुनकर पता लगेगा.
पान बनारस का मेरो बलमा, चांद अमावस का तेरो बलमा.
# 5) विशाल भारद्वाज की फिल्मों में म्यूज़िक भी उनका ही होता है, ये सब जानते हैं. सभी गीत की धुनें कमाल की हैं और लिरिक्स के साथ इतनी ख़ूबसूरती से ब्लेंड होती हैं कि एक दो बार सुनकर आपकी ज़ुबान पर चढ़ जाते हैं. हां कमी इतनी सी है कि ‘टेक्निकल’ स्तर पर ये गीत अपने युग से 10 - 12 साल पुराने लगते हैं, इसलिए ये पार्टियों की जान या युवाओं के फेवरेट बनेंगे इसपर शंका है. फ़िल्म का टाइटल सॉन्ग है पटाखा, जिसे निर्देशक, और संगीत निर्देशक विशाल भारद्वाज ने गाया है. यू ट्यूब में अभी तक इसका अलग वीडियो रिलीज़ नहीं किया गया है, लेकिन आप इसे ट्रेलर में या फ़िल्म के ऑफिशियल ज्यूक-बॉक्स में सुन सकते हैं.
गला फाड़ के रोज़ाना मैं-मैं तू कर लो रोज़ उधेड़ो गिरेबां और रोज़ रफू कर लो!