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मूवी रिव्यू : हिट-द फर्स्ट केस

किरदारों को और ज़्यादा पकाए जाने की ज़रूरत थी. सब आधे-अधूरे लगते हैं. बढ़िया कहानी को अच्छे स्क्रीनप्ले का आकार देने में थोड़ी-सी कमी छूट गई है.

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कहानी में कसाव और स्पीड है.
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अनुभव बाजपेयी
15 जुलाई 2022 (Updated: 15 जुलाई 2022, 10:30 AM IST) कॉमेंट्स
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2020 में एक तेलुगु फ़िल्म आई थी, नाम था हिट: द फर्स्ट केस. अब उसी का हिंदी रीमेक आया है. जिसे बनाया है तेलुगु वर्ज़न डायरेक्ट करने वाले डॉ. शैलेन्द्र कोलानू ने. आज इसी ऐक्शन-थ्रिलर फ़िल्म के कुछ अच्छे, कुछ बुरे और कुछ नए पहलुओं पर बात करेंगे. 

फिल्म में विक्रम के रोल में राजकुमार राव
खुद के ट्रॉमा से डील करता हुआ हत्याएं रोकता नायक

फ़िल्म की कहानी जयपुर के आसपास घटती है. विक्रम एक पुलिस ऑफिसर है. उसका पास्ट उसे हॉन्ट करता है. बाहर से रूड और स्ट्रॉन्ग दिखता है. अंदर से कमजोर है. उसे आग से डर लगता है. डेड बॉडी देखकर उल्टी आ जाती है. उसका काम ही उसे बचा रहा है. वो काम नहीं करेगा तो पागल हो जाएगा. उसका काम है, हत्या होने से पहले रोकना. विक्रम HIT यानी होमीसाइड इंटरवेंशन टीम का हिस्सा है. उसके साथी को लगता है वो न शेव करे है ना ढंग के कपड़े पहने है, किस एंगल से पुलिस वाला लागे है. ख़ैर, इन सबके बीच उसे जो लोग समझते हैं, वो है उसका दोस्त रोहित और उसकी गर्लफ्रैंड नेहा. इनमें से नेहा मिसिंग हैं. उसका कलीग अक्षय इस केस को हैंडल कर रहा है. विक्रम का उससे छत्तीस का आंकड़ा है. एक तरफ अक्षय उसे ढूंढ रहा है. दूसरी तरफ़ रोहित और विक्रम भी उसकी खोज में है. इसी दौरान एक और लड़की प्रीती भी गायब हो जाती है. नेहा और प्रीती की खोज में जो कुछ घटता है, बस वही कहानी है जो मेकर्स को आपको सुनानी है.

ऐसे फ्रेम ही पेंटिंग कहे जाते हैं
कसी हुई कहानी के कई ढीले पेंच

कहानी में कसाव और स्पीड है. रवि शास्त्री के अंदाज़ में कहें तो इट रन्स लाइक अ ट्रैशर बुलेट. कहानी शुरुआती कुछ सीन्स के बाद जो फर्राटा भरती है, आपको पलक झपकने का मौका नहीं देती. नए पहलुओं को उजागर करने के लिए भी अपनी रफ़्तार कम नहीं करती. जैसे मैराथन दौड़ रहे एथलीट को पानी की बोतल पकड़ाई जाती है, ठीक वैसे ही दौड़ती कहानी को राइटर्स नए ट्विस्ट एंड टर्न्स पकड़ाते जाते हैं. एंड बहुत प्रॉमिसिंग नहीं है. सब घटित होने के बाद उसे एक्सप्लेन किया जाना हमेशा ज़रूरी नहीं होता. कम से कम इस फ़िल्म के लिए ओपन एंडिंग ज़्यादा बेहतर विकल्प होता. साथ ही मर्डर का तरीका और मक़सद ये दोनों भी कहानी के हाई स्टैण्डर्ड को एकदम से ज़मीन पर पटक देते हैं. किरदारों को और ज़्यादा पकाए जाने की ज़रूरत थी. जैसे रोहित का किरदार, अक्षय का किरदार या फिर नेहा का किरदार. सब आधे-अधूरे लगते हैं. बढ़िया कहानी को अच्छे स्क्रीनप्ले का आकार देने में थोड़ी-सी कमी छूट गई है. स्क्रीनप्ले को आगे बढ़ाने की हड़बड़ी जान पड़ती है. सबकुछ जल्दी करने के चक्कर में कुछ ही मिनटों में लाई डिटेक्टर टेस्ट से लेकर नार्को टेस्ट तक बात पहुंच जाती है. हां, पूछताछ वाला पार्ट बहुत अच्छा है. खटाखट कट्स हैं. एकदम शार्प. देखकर मज़ा आता है. इस मज़े में बैकग्राउंड स्कोर भी अहम रोल अदा करता है. सिनेमैटोग्राफी भी अच्छी है. कैरेक्टर के साथ कैमरा मोमेंट वाले शॉट्स और ऐंगल उम्दा हैं. आर्टिफिशियल लाइट का प्रयोग अच्छा है. लाइट और कैमरा का संयोजन इतना अच्छा है कि कई फ्रेम्स पेंटिंग सरीखे जान पड़ते हैं. पर ड्रोन शॉट्स की अति कर दी गई है.

नेहा के रोल में सान्या
रेगिस्तान में कुएं की तरह हैं सान्या मल्होत्रा

अदाकारी के मामले में राजकुमार राव ने ठीक काम किया है. विक्रम के रोल में वो हर जगह बढ़िया लगे हैं. बस जहां उनकी यादें उनको परेशान करती हैं, उन जगहों पर वो एक्सप्रेशन्स से मात खा जाते हैं. बनावटी लगते हैं. सान्या को जितना स्क्रीनटाइम मिला है. उसमें वो फ्लॉलेस लगी हैं. नागफनियों के बीच में किसी हंसते हुए फूल जैसी. शिल्पा शुक्ला अपनी साख के अनुसार जौहर नहीं दिखा पाई हैं. मिलिंद गुनाजी ने बढ़िया ऐक्टिंग की है. दलीप ताहिल विक्रम के बॉस के रोल में सही लगे हैं. संजय नर्वेकर बहुत छोटे से रोल में छाप छोड़ जाते हैं. अक्षय का किरदार जतिन गोस्वामी ने कमाल का निभाया है. उन्होंने इत्तु-सी भी ऐक्टिंग करने की कोशिश नहीं की है. अभिनय की यात्रा में उन्हें अभी बहुत दूर तक जाना है.

पिक्चर ख़त्म होते-होते सीक्वल का हिंट भी छोड़कर जाती है. इसके तेलुगु वर्ज़न का सीक्वल तो 29 जुलाई को आ ही रहा है. यानी इसका भी आएगा ही. ख़ैर, जाइए सिनेमाघर और फ़िल्म देख आइए. एक बार देखना तो बनता है.

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मूवी रिव्यू: फॉरेंसिक

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