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परिवार सूअर पकड़ता था और लड़के ने 'सवर्ण' लड़की से प्यार करने की जुर्रत कर ली

पवित्रता पर ब्राम्हणों के स्वघोषित कब्ज़े को रेखांकित करती फिल्म है 'फैन्ड्री'.

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भारतीय समाज ने दलितों में कभी आत्मविश्वास पनपने ही नहीं दिया.
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मुबारक
2 दिसंबर 2017 (Updated: 11 जुलाई 2018, 07:38 AM IST) कॉमेंट्स
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हिंदी सिनेमा भले ही ढर्रे से चिपका दिखाई दे रहा हो, लेकिन रीजनल भाषाओं में बहुत बढ़िया काम हो रहा है. मराठी सिनेमा तो इस मामले में जैसे मशाल लेकर आगे चल रहा है. फ़िल्में कैसी होनी चाहिए इसका ट्यूटोरियल हिंदी वालों को मराठी फिल्मकारों से लेना चाहिए. पिछले दशक भर में नेशनल अवॉर्ड जीतने वाली फिल्मों की लिस्ट पर नज़र भर मार लीजिए. ज़्यादातर फ़िल्में मराठी की दिखाई देंगी. मराठी सिनेमा को समर्पित इस सीरीज़ 'चला चित्रपट बघू या' (चलो फ़िल्में देखें) में हम आपका परिचय कुछ बेहतरीन मराठी फिल्मों से कराएंगे. वर्ल्ड सिनेमा के प्रशंसकों को अंग्रेज़ी से थोड़ा ध्यान हटाकर इस सीरीज में आने वाली मराठी फ़िल्में खोज-खोजकर देखनी चाहिए.
 

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सारी इस्कटून जिंदगी मी पाहिली
तरी झाली कुठं चूक मला कळना!

ये 2014 में आई फिल्म 'फैन्ड्री' के इकलौते गाने की दो लाइनें हैं. जिसका हिंदी अनुवाद ये हुआ कि मैंने सारा जीवन उधेड़ कर देख लिया है लेकिन मुझसे गलती कहां हुई ये समझ नहीं आ रहा. ये महज़ दो लाइनें नहीं है. ये भारत की मिट्टी में घुले जातिवाद पर बेहद तीखी कमेंट्री है. ये उस दलित समाज की गागर में सागर जैसी व्यथा है, जो नाकर्दा गुनाहों की सज़ा भोगने के लिए अभिशप्त है. महान संस्कृति का आदिकाल से जयघोष करती आ रही सभ्यता का बदसूरत चेहरा है. ये वो सवाल है जिसका जवाब आजतक तो कोई दे नहीं पाया है. न कोई महंत, न कोई साधू, न कोई नेता और न ही कोई आरक्षण विरोधी जीव.
सारी दुनिया में कमोबेश पाए जानेवाले रेसिज्म का सबसे घृणित रूप अगर कहीं है, तो इस पावन (!) भारतभूमि पर ही है. जातिवाद. ये अलग बात है कि इसको बड़ी सहूलियत नज़रअंदाज़ करना हम सबने सीख लिया है. ये इतना सामान्य है हमारे लिए कि आहत होना तो दूर नोटिस तक नहीं किया जाता.
इसी नाइंसाफी को कैनवास पर उकेरती है 'फैन्ड्री'. बहुत बड़ी बात करती छोटी सी फिल्म. कोई हैरानी नहीं थी कि उस साल के नेशनल अवॉर्ड्स में इसकी धमक सुनाई दी.

कई लोगों का मानना है कि 'फैन्ड्री' नागनाथ मंजुळे का 'सैराट' से ज्यादा उम्दा काम है.


'फैन्ड्री' बिना किसी कृत्रिम संवादों के, अतिनाटकीयता से परहेज़ करते हुए वो सब दिखा जाती है जिससे मुंह चुराना हमारा राष्ट्रीय चरित्र है. फिल्म में दो तरह के लोग हैं. सूअर के छू लेने भर से नहाने के लिए भागते लोग और वो सूअर किसी को छू न पाए इसके बंदोबस्त में लगे लोग. इन दो तरह के लोगों में ही असली संघर्ष है. कहने की ज़रूरत नहीं कि जीत किसके हिस्से आएगी और हार किसका मुकद्दर है.
कचरू माने और उसका परिवार उस कैकाडी समाज से आता है जिनका आदर पर दावा जन्मतः खारिज है. अगर कोई चीज़ उनकी किस्मत में अमिट स्याही से लिखी गई है तो वो है अपमान का दंश. कदम दर कदम दर कदम अपमान. कचरू का एक किशोर उम्र का लड़का है जब्या (जाम्बुवंत कचरू माने), जो अपनी सहपाठी शालू से एकतरफा प्यार करता है. शालू को उसके अस्तित्व की भी ख़बर होगी ऐसा नहीं प्रतीत होता. बावजूद इसके जब्या एक अविश्वसनीय संभावना के पीछे लगातार भागे जा रहा है. किसी ने उससे कह दिया है कि काली चिड़िया को जलाकर उसकी राख शालू के सर पर डालने से वो हमेशा के लिए उसकी हो जाएगी. इस क्षीण सी संभावना में पनाह तलाशता जब्या जंगल-जंगल काली चिड़िया की तलाश में भटक रहा है. एक अंतहीन भटकन.
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चिड़िया को हासिल करना ही अंतिम आसरा है जब्या के लिए.


उधर कचरू का जीवन वैसा ही है जैसा एक उपेक्षित दलित परिवार के मुखिया का होता है. एक लड़की को दामाद ने छोड़ दिया है, उसे संभालते हुए दूसरी लड़की की शादी का सीन जमाना है उसे. उसके लिए हर काम करने को तैयार है.
'फैन्ड्री' वेदना और विद्रोह का भयानक कॉन्ट्रास्ट है. जहां एक तरफ गांव देवी की यात्रा में नाचने की इजाज़त न मिलकर लैंप लेकर खड़ा किए जाने से जब्या अपमान की वेदना झेलने पर मजबूर है, वहीं उसमें विद्रोह की चिंगारी भी गाहे-बगाहे नज़र आती है. पाटिल के हौदे में से सूअर को निकालने से इनकार करता जब्या इसी विद्रोह का प्रतीक है.
पूरा गांव नाच रहा है और जब्या सर पर लैंप लिए खड़ा है.
पूरा गांव नाच रहा है और जब्या सिर पर लैंप लिए खड़ा है.

'फैन्ड्री' घटनाओं से ज्यादा प्रतीकों से बात करती है. और बेहद मुखरता से. एक सीन में जब जब्या काली चिड़िया की तलाश में एक पेड़ पर टंगे घोंसले की फ़िराक में होता है, तब गांव की एक दादी उसे समझाती है,
"चिड़िया ब्राह्मण होती है. उसे छूना नहीं चाहिए. छूने से वो अपवित्र हो जाएगी और बाकी की चिड़ियाएं उसे अपने झुंड में नहीं लेंगी."
पवित्रता पर ब्राम्हणों का स्वघोषित कब्ज़ा महज़ इस सीन से रेखांकित हो जाता है.
जब्या के लिए ऐसा महज़ ख्वाबों में ही संभव है.
जब्या के लिए ऐसा महज़ ख्वाबों में ही संभव है.


गैर-दलित समाज से आता एक औसत भारतीय अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में कितना क्रूर हो सकता है ये 'फैन्ड्री' में फ्रेम दर फ्रेम नज़र आता है. 'फैन्ड्री' सूअर को कहा जाता है. इसी नाम को गाली बनाकर जब गांव वाले जब्या को 'फैन्ड्री' कहकर पुकारते हैं, तो अमानुषता का विकृत मुज़ाहिरा होता है वो. और उससे क्रूर बात ये कि ये सामान्य प्रैक्टिस है.
दलितों पर लगता अट्टहास हमारे लिए सामान्य दृश्य है.
दलितों पर लगता अट्टहास हमारे लिए सामान्य दृश्य है.


फिल्म का क्लाइमेक्स किसी थ्रिलर से कम नहीं. फर्क सिर्फ इतना है कि ये थ्रिल किसी मानवीय भावनाओं से भरपूर शख्स़ को शर्म से भर देगा. जब्या को पूरे स्कूल और ख़ास तौर से शालू के सामने सूअर को पकड़ने का काम करना पड़ता है. अपने प्यार के सामने ज़लील होना जब्या के लिए शायद अपमान की सर्वोच्च चोटी को छूने जैसा है. उस पर एक दीवानगी सी तारी हो जाती है. उसी की परिणिति है वो पत्थर, जो वो तंग आकर पूरी ताकत से अपना मज़ाक उड़ाते गांव वालों की तरफ दे मारता है. वो पत्थर हिंदी सिनेमा के चंद प्रभावशाली दृश्यों में से एक है. वो पत्थर दर्शकों को मारा गया है. उस बेशर्म समाज को मारा गया है, जहां से तमाम सुधारों के बावजूद जातिवाद गायब नहीं हो पाया है. उस पत्थर की चोट हर संवेदनशील इंसान अपने माथे पर महसूस कर सकता है.
ये इस फिल्म का सबसे प्रभावी दृश्य है.
ये इस फिल्म का सबसे प्रभावी दृश्य है.


'फैन्ड्री' की कहानी फिक्शन होकर भी फिक्शन नहीं है. मंगल ग्रह तक पहुंच चुके मुल्क में अभी भी ये कहानी, तमाम घटनाओं समेत मौजूद है. इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी! फिल्म डायरेक्टर नागराज मंजुळे की माने तो ये उनकी अपनी कहानी भी रही है. उनको भी कभी किसी सवर्ण लड़की से प्यार हुआ था. फिर एक दिन उनके हिस्से एक झापड़ आया और प्यार काफूर हो गया.
जाते-जाते एक और सीन का ज़िक्र किए बगैर रहा नहीं जाता. अंतिम पत्थर से जस्ट पहले का सीन. प्रतीकात्मकता को बेहद कलात्मकता से इस्तेमाल करते नागराज मंजुळे का एक और मास्टरस्ट्रोक. सूअर को पकड़ लिया गया है. उसे डंडे से उल्टा लटकाकर ले जा रहे हैं. पीछे दीवार पर एक के बाद एक तस्वीरें दिखाई देती है. वो तस्वीरें हैं, बाबासाहेब अम्बेडकर, सावित्रीबाई फुले, संत गाडगे महाराज की.
भारतीय समाज विडंबनाओं से ठसाठस भरा संदूक है.
भारतीय समाज विडंबनाओं से ठसाठस भरा संदूक है.


ये वो लोग हैं जिन्होंने अपनी तमाम ज़िंदगी जातिवाद के खिलाफ़ जंग लड़ी. उनके मरने के बरसों बाद भी जातिवाद उसी तीव्रता से मौजूद है. विडंबना शब्द का सही मतलब ऐसे वक़्त ही समझ आता है.
फिल्म को यूट्यूब पर यहां देखिए, सबटाइटल्स के साथ:
https://www.youtube.com/watch?v=oHF4_bzl620


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