हाउस अरेस्ट: मूवी रिव्यू
पूरी दुनिया के लिए उम्दा कॉन्टेंट बनाने वाला नेटफ्लिक्स हम भारतीयों के साथ सौतेला व्यवहार क्यूं कर रहा है, समझ से बाहर है.
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कई करैक्टर्स, लेकिन फिर भी पौने घंटे और थिन स्क्रिप्ट के चलते बहुत कम लगे.
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हिकिकोमोरी एक जापानी कॉन्सेप्ट है. जापान के लोग, खासतौर पर युवा अपने को कई दिनों, महीनों या सालों तक घर में बंद कर लेते हैं. वो कहते हैं न भीड़ में रहकर अकेला होना, बस वही है हिकिकोमोरी. नेटफ्लिक्स पर 15 नवंबर को रिलीज़ हुई मूवी ‘हाउस अरेस्ट’ इसी हिकिकोमोरी का इंडियन या फिर कहें कि दिल्ली वाला वर्ज़न है. और इसलिए ही मूवी में हिकिकोमोरी शब्द बार-बार आता है और आपको याद हो जाता है. एक बार तो इसका डिस्टॉर्टेड वर्ज़न भी- हकूना-मटाटा.
करण को लगभग 9 महीने हो गए हैं घर में बंद हुए. पहले तो लगता है कि इसके पीछे कोई खास मोटिव नहीं है, बस दुनिया से दूर रहने के लिए उसने ऐसा किया है. लेकिन मूवी एंड होते-होते उसके घर में बंद रहने के पीछे की असली वजह भी सामने आ जाती है.# कहानी क्या है-
खैर इन 9 महीनों में भी वो घर में सिंगल तो है, पर लोनली नहीं. खास तौर पर जिन 24 घंटों में मूवी की कहानी घटती है, उसमें उसके घर के भीतर और बाहर बहुत सी ऐसी घटनाएं होती हैं, जिनका सेंट्रल कैरेक्टर करण ही रहता है. इस दौरान उसके बचपन के दोस्त जेडी के बहुत से कॉल आते हैं. जेडी, जो उसे किसी न किसी तरह घर से बाहर निकालने पर आमादा है. उसकी पड़ोसन पिंकी उसके घर में आती है. अपने लंबे चौड़े बाउंसर के साथ जिसकी फिजिक खली टाइप की है. पिंकी, पिंक कलर से हद ऑब्सेस्ड है और इसलिए ही उसके सारे कपड़े पिंक कलर के हैं. पिंकी ऑलमोस्ट धमकाकर, ज़बरदस्ती करण के घर में एक बेबी-पिंक कलर का सूटकेस रख जाती है. जिसके अंदर लाश है. उधर जेडी करण के घर में ज़बरदस्ती एक जर्नलिस्ट भेज देता है. जर्नलिस्ट जिसने एक साल जापान में अंग्रेज़ी पढ़ाई है और अब हिकिकोमोरी पर रिसर्च कर रही है. नाम है सायरा.

इन सबके बीच कुछ पुलिसवाले, कुछ गून्स, पता कन्फ्यूज़ कर गए डिलीवरी बॉयज़, नीचे एक सिक्योरिटी गार्ड और कामवाली जैसे छोटे बड़े कैरेक्टर्स उसके घर, उसकी दहलीज या उसके अपार्टमेंट में आते-जाते रहते हैं. इस सब कैरेक्टर्स से दो-चार होने के बाद, करण की ज़िंदगी का एक पूरा दिन बीत जाता है और अंततः मूवी ‘रोमांटिक नोट’ पर एंड हो जाती है.
करण बने हैं अली फज़ल, मिर्ज़ापुर के ‘गुड्डू पंडित’. जहां मिर्ज़ापुर में उनकी एक्टिंग की काफी तारीफ़ हुई थी लेकिन फीडबैक ये भी आया था कि अपनी मासूमियत को नहीं छुपा पाए, वहीं ‘हाउस अरेस्ट’ में वो अपनी ‘गुड्डू पंडिताई’ नहीं छुपा पा रहे लगते हैं. बेशक एक्टिंग यहां भी बुरी नहीं है. रिपोर्टर सायरा बनी श्रिया पिलगांवकर ने अच्छी परफोर्मेंस दी है. जिम सरभ को कई वेब सीरीज़ और वेब मूवीज़ में देखकर लगता है कि वो एक टाइप के रोल में टाइपकास्ट हो गए हैं. अर्बन एल्फा मैन. रिच. स्पॉइल्ड. पिंकी बनी बरखा सिंह को ओवर एक्टिंग करनी थी और ओवर एक्टिंग करने की एक्टिंग उन्होंने अच्छी की है.# एक्टिंग-
‘बदला’, ‘भेजा फ्राई’ और ‘पीहू’ जैसी कई ऐसी मूवीज़ आईं हैं, जिनकी पूरी स्क्रिप्ट या उसका बहुत बड़ा पार्ट एक रूम या एक सेटअप में शूट हुआ है. ऐसी मूवीज़ का सबसे बड़ा स्टार कोई एक्टर या एक्ट्रेस नहीं बल्कि स्क्रिप्ट होती है. क्यूंकि अगर स्क्रिप्ट क्रिस्प और इंगेजिंग नहीं हुई तो फिर वो इतनी (फीचर फिल्म के बराबर की) लंबी लेंथ को जस्टिफाई नहीं कर पाएगी. साथ ही अपने सेटअप के चलते एक ‘नाट्य मंचन’ की तरह भी लगेगी.# दूर से देखा मौसम हंसी था-
इसलिए इस तरह के प्रोजेक्ट में हाथ लगाना एक नंगी तलवार पर चलने सरीखा है. और ‘हाउस अरेस्ट’ के डायरेक्टर्स स्मित बासु और शशांक घोष ऐसा करने में पूरी तरह असफल रहे हैं. फिल्म एक ऐसी च्युइंग गम है जो दस मिनट बाद ही टेस्टलेस हो जाती है, फिर आपकी मर्ज़ी है कि आप इसे बाकी बचे डेढ़ घंटे चबाना चाहते हैं या नहीं.
‘हिकिकोमोरी’ नाम का कॉन्सेप्ट एक मूवी के बेसिक प्लॉट के लिहाज़ से तो बहुत अच्छा है, लेकिन फिर? उसके आगे?

और इसी सवाल के उत्तर न मिल पाने के चलते शुरू में मूवी अपने यूनिक कॉन्सेप्ट की वजह से आपको अपनी ओर खींचती तो है लेकिन फिर आपको ‘दूर से देखा’ वाले बचपन के राइम को दोहराने का मन होता है.
जहां बड़े पर्दे की स्क्रिप्ट्स छोटे शहरों और ‘रियल्टी’ की तरफ मुड़ रही हैं, वहीं वेब बेस्ड कंटेंट, एक नीटनेस की तरफ. एक नकलीपन की तरफ. ये लार्जर दैन लाइफ बेशक न हो, लेकिन इतने चमकदार और ग्लिटरिंग हैं कि आखें चौधियां जाती हैं. 'मेड इन हेवन', 'परमानेंट रूममेट्स', 'फोर मोर शॉट्स प्लीज़' के बाद ये एक और कंटेट है जिसमें आपको घर, घर नहीं फाइव स्टार होटल लगता है. खाने को खाना नहीं कोई फ्रेंच नाम देने का मन करता है. ‘आला कार्टे’. ‘कार्टे दी ज़ोर’. रिलेशन टिंडरमय हैं तो बचपन की दोस्ती टू प्रोफेशनल. ये सब कुछ टू अनरियलिस्टिक है. टू अनबिलिवेबल है.# ये कहां आ गए हम-
वो जो छोटे शहरों के बैकड्रॉप पर बनी फिल्म्स का एक शहरी फ्लेवर होता है, ‘हाउस अरेस्ट’ टाइप के कॉन्टेंट में मिसिंग रहता है. इसमें आपको दिल्ली कहीं नहीं दिखेगी. करण की कामवाली बाई तक मुंबई की कामवाली का फील देती है.
इस मूवी को देखने के बाद आपको पता चल जाएगा कि बिलकुल सेम स्क्रिप्ट होते हुए ट्रीटमेंट और डायरेक्शन के डिफ़रेंस से कैसे एक मूवी कल्ट आर्ट हाउस मूवी और दूसरी एक दोयम या औसत मूवी बनकर रह जाती है. लाश का ज़िन्दा हो जाना या किसी का घर में आकर ऐसे ही कोई ‘पैकेट’ रख जाना, या किसी का पिंक के प्रति इतना ऑब्सेशन. ये सब बेशक रियल्टी में न होता हो. लेकिन अगर इनका ‘जादुई’ ट्रीटमेंट किया जाता तो एक अलग ही ऐब्स्ट्रैक्ट चीज़ बाहर निकलकर आती. जिसमें ह्यूमर भी होता और दर्शन भी. अनुराग कश्यप की ‘नो स्मोकिंग’ या स्टेनली क्यूब्रिक की ‘डॉक्टर स्ट्रेंजलव’ की तरह. या काफी हद तक ‘जाने भी दो यारों’ के द्रौपदी चीर हरण वाले, थोड़ा खाओ थोड़ा फैंको टाइप के सीन्स की तरह.# ऐब्स्ट्रैक्ट और एवरेज के बीच की फाइन लाइन-
वैसे इस फिल्म में एक नया सा कॉन्सेप्ट देखने को मिला, जिसने मुझे प्रभावित किया. जब करण को किसी का फोन आता है तो स्क्रीन दो भागों में बंटने के बजाय या फिर दोनों बंदों को एक-एक करके दिखाने के बजाय करण के घर में ही दूसरे बंदे का सेटअप लग जाता है. एज़-इफ वो बंदा करण के पास ही बेड में सोया हो.# एक नया कॉन्सेप्ट-

पहले ‘ड्राइव’ और फिर ये ‘हाउस अरेस्ट’. पूरी दुनिया के लिए उम्दा कॉन्टेंट बनाने वाला नेटफ्लिक्स हम भारतीयों के साथ सौतेला व्यवहार क्यूं कर रहा है, समझ से बाहर है. ऑल्ट बालाजी की अपनी एक अलग फैन फॉलोइंग है, उसे केटर करने के विचार को नेटफ्लिक्स जितनी ज़ल्दी त्याग दे उतना ही हम दर्शकों के साथ न्याय होगा, दर्शक खुश होंगे तो नेटफ्लिक्स को खुद तो फायदा होगा ही.# नेटफ्लिक्स को ये क्या हो गया-