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फ़िल्म रिव्यू: गुंजन सक्सेना - द कारगिल गर्ल

जाह्नवी कपूर और पंकज त्रिपाठी अभिनीत ये नई हिंदी फ़िल्म कैसी है? जानिए.

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गजेंद्र
12 अगस्त 2020 (Updated: 12 अगस्त 2020, 02:16 PM IST) कॉमेंट्स
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फ़िल्म: गुंजन सक्सेना - द कारगिल गर्ल । डायरेक्टर: शरण शर्मा । कलाकार: जाह्नवी कपूर, पंकज त्रिपाठी, मानव विज, विनीत कुमार सिंह, आयेशा रज़ा मिश्रा, अंगद बेदी । अवधि: 1 घंटा 52 मिनट । प्लेटफॉर्मः नेटफ्लिक्स

ये कहानी एक नन्ही सी लड़की से शुरू होती है. वो एक प्लेन में बैठी है. खिड़की का परदा ऊपर करके, बाहर देखना चाहती है. लेकिन खिड़की वाली सीट पर उसका भाई बैठा है जो सोना चाहता है इसलिए उसे डांट देता है. बच्ची मायूस हो जाती है. वहां खड़ी एयर होस्टेस ये सब देख रही होती है. वो उस बच्ची का हाथ पकड़कर उसे कॉकपिट लेकर जाती है. दरवाजा खुलता है. अंदर जटिल मशीनरी, पायलट और सामने आकाश का विहंगम दृश्य देखकर उस बच्ची की आंखें भव्यता से खुली रह जाती हैं. पायलट उससे प्यार से पेश आता है. उसे एक बटन घुमाकर ये आभास दिलाता है जैसेे कि प्लेन को उसने मोड़ा है. लेकिन जब वो बच्ची उनकी सीट पर बैठने का अनुरोध करती है तो पायलट कहता है, "यहां बैठने के लिए आपको पायलट बनना पड़ेगा". उस पल से उस बच्ची को, जिंदगी का सबसे बड़ा सपना मिल जाता है. जो होता है, पायलट बनना. और आसमान में उड़ना. यही लड़की आगे चलकर गुंजन सक्सेना बनती है. फ्लाइट लेफ्टिनेंट गुंजन सक्सेना. वो जिन्होंने 1999 के कारगिल वॉर में सेवाएं दीं. अपनी साथी ऑफिसर श्रीविद्या राजन के साथ वो कॉम्बेट में जाने वाली पहली महिला भारतीय एयरफोर्स ऑफिसर बनीं. इस पूरे वॉर में उन्होंने 40 मिशन अंजाम दिए. इनमें घायलों को हैलीकॉप्टर से इवैक्यूएट करना, थल सेना को सप्लाई ड्रॉप करना और कारगिल घाटी में पाकिस्तानी सेना के ठिकानों को स्पॉट करना शामिल था. गुंजन की ये जर्नी क्या थी, इस दो घंटे से ज़रा कम अवधि की फ़िल्म में हम देखते हैं. 'गुंजन सक्सेना द कारगिल गर्ल' के डायरेक्टर  हैं शरण शर्मा. बतौर डायरेक्टर उनकी ये पहली फ़िल्म है. मूवी बफ रहे शरण ने 2013 में आई 'ये जवानी है दीवानी' में डायरेक्टर अयान मुखर्जी को असिस्ट करने से अपनी शुरुआत की. फिर करण जौहर को उनके प्रोजेक्ट्स में असिस्ट किया. अब उनके बैनर की फ़िल्म डायरेक्ट करके अपना सपना पूरा किया है, जैसे कि गुंजन ने किया था. शरण का डायरेक्शन बहुत महत्वाकांक्षी या रिच नहीं है. एकदम बेसिक स्टाइल का है. और एक आइकॉनिक फिल्म बनने का माल मसाला भी इसमें कम है. लेकिन चकित करते हुए, ये सबकुछ हर आते पल के साथ फ़िल्म में पर्याप्त साबित होता जाता है. एक फ़िल्म के लिए पर्याप्त, बहुत पर्याप्त शब्द होता है. इस हिंदी फ़िल्म में नयापन और ताज़गी बनाए रखने के लिए छोटे छोटे प्रयास किए गए हैं. इनमें से एक चीज है - गुंजन का एयरफोर्स में सलेक्शन का प्रोसेस, जो इंडियन सिनेमाई परदे पर नया लगा. ऐसा नयापन इससे पहले फरहान अख्तर की 2004 में आई फ़िल्म 'लक्ष्य' में लगा था. उसे और 'गुंजन सक्सेना' दोनों को एक ही कोष्ठक की मोटिवेटिंग फ़िल्मों में रख सकते हैं. इसमें एसएसबी सलेक्शन प्रोसेस ब्रीफली दिखाया गया है जो इसे बीती फ़िल्मों से ज़रा अलग और अधिक बनाता है. शुरू में कई हिस्सों में फ़िल्म की राइटिंग के लिए मुंह से वाह भी निकलता है. खासकर इसलिए क्योंकि बहुत सिंपल होते हुए भी वो लुभाने वाली होती है. गुदगुदाती है. इसे शरण शर्मा ने निखिल मेहरोत्रा के साथ मिलकर लिखा है. निखिल 'दंगल' और 'छिछोरे' की राइटिंग टीम में भी रहे हैं. एडिश्नल डायलॉग्स हुसैन दलाल के हैं. हुसैन को हम बतौर एक्टर देखते रहते हैं. इसके अलावा वो 'कारवां' और 'ये जवानी ये दीवानी' जैसी फ़िल्मों के डायलॉग भी लिख चुके हैं. 'गुंजन सक्सेना द कारगिल गर्ल' में एक सीन होता है, गुंजन 10वीं अच्छे अंकों से पास करने के बाद जब पढ़ाई छोड़ने और फ्लाइंग एकेडमी जाने का फैसला सुनाती है तो मां और भाई चिढ़ जाते हैं. पिता कहता है, "मैं बात करता हूं". बाद में गुंजन की मां जब उनसे कहती हैं - "अच्छा हुआ गुंजू मान गई. मान गई न?" तो वो कहते हैं - "नहीं, मैं मान गया". राइटिंग में ऐसी ब्रेविटी या संक्षिप्तता है. जो स्मार्ट लगती है. फ़िल्म का ओवरऑल एंटरटेनमेंट दिमाग के लिए विषैला नहीं होता. रिलेक्स्ड होकर देखने जैसा होता है. इसका म्यूजिक भी ऐसा ही है. चार-पांच गाने हैं. भीने भीने, सुहावने. इनमें "मेरे भारत की बेटी..." सबसे यादगार है. इस कहानी और उसके मर्म का पीक है. ये गाने अमित त्रिवेदी ने कंपोज किए हैं, लिखे हैं कौसर मुनीर ने. 'भारत की बेटी' को गाया है अरिजीत सिंह ने. एक्टर्स की बात करें तो गुंजन सक्सेना का रोल जाह्नवी कपूर ने किया है. उनका काम पर्याप्त है. कुछ-कुछ पलों में लुभाने वाला भी है. गुंजन के पिता अनूप सक्सेना का पार्ट किया है पंकज त्रिपाठी ने. ये वैसी ही अच्छी वाइब वाला, दूजों को सकारात्मक ऊर्जा देने वाला किरदार है, जिसमें पंकज 'मसान' से दिखना शुरू हुए थे. उसका एक विस्तार 'बरेली की बर्फी' में दिखता है जिसमें उन्होंने छोटे शहर में रहने वाले अनूठे पिता नरोत्तम मिश्रा का रोल किया. ऐसा पिता जिसे हर बेटी चाहेगी. एक सीन में उस किरदार की सिगरेट खत्म हो जाती है जो सुबह उसे चाहिए होती है तो वो पत्नी से कहता है कि बेटी बिट्टी से मांगो, वो पीती है. उस किरदार की इतनी सी बात उसकी समझ के बारे में सबकुछ कह जाती है. 'गुंजन सक्सेना द कारगिल गर्ल' में भी ऐसे आदर्श पिता का एक और आयाम हम देखते हैं. वो लड़कियों के प्रति समाज के द्विभाव को अपनी गुंजू से कभी स्पर्श भी नहीं होने देता. जब जब बेटी हार मानकर सो जाती है कि अब उसका सपना पूरा नहीं हो पाएगा, तब हर अगली सुबह खिड़की के परदे हटाते हुए और मुस्कुराकर गुड मॉर्निंग बोलते हुए वो उपाय बेटी के सामने रखता है. उसे राह दिखाता है. बेटियों के लिए अपनी इस सोच को लेकर न तो वो कभी अपनी पत्नी, न बेटे और न ही रिश्तेदारों के बासी सवालों के जवाब देता है, न उनसे झगड़ता है, वो बड़े ही धैर्य से बरसों बरस बस बेटी को पोषित करते जाता है. यही उसका जवाब होता है. उसकी सोच का असर अंत में दिखता है जिससे भारतीय वायु सेना में लड़कियों के लिए बराबरी का आसमान बनाने में मदद मिलती है. गुंजन की मां का रोल फ़िल्म में आयेशा रज़ा मिश्रा ने किया है. अंगद बेदी ने आर्मी ऑफिसर भाई अंशुमान का किरदार किया है जो बहन को हमेशा याद दिलाता है कि तुम एक महिला हो और सेना पुरुषों की होती है. विनीत कुमार सिंह ने फ्लाइट कमांडर दिलीप सिंह का रोल किया है जिसकी सोच मर्दवादी और स्टोन एज वाली लगती है. मानव विज ने कमांडिंग ऑफिसर गौतम सिन्हा का रोल किया है जो अनुशासित और पॉजिटिव आदमी है. कास्टिंग में दो और चेहरे ताज़गी और वाइब के लिए याद रहते हैं. एक गुंजन की दोस्त मन्नू बनी बार्बी राजपूत, दूसरे मनीष वर्मा जो एसएसबी ऑफिसर समीर मेहरा के किरदार में दिखते हैं. इस फ़िल्म में तीन थीम मुझे प्रमुखता से नज़र आईं  - थीम 1 - कमर्शियल हिंदी फ़िल्मों के रेफरेंस 'गुंजन सक्सेना द कारगिल गर्ल' में बार बार दिखाई देते हैं. ये मनोरंजक फ़िल्मों और रियल लाइफ में लोगों के संंबध का अनूठा चित्र बनता है. फ़िल्में असल जिंदगी में कितना असर डालती हैं इसकी मिसाल टॉम क्रूज की फ़िल्म 'टॉप गन' है जिसे देखने के बाद सुनीता विलियम्स ने पायलट बनने का सपना देखा. फिर एस्ट्रोनॉट बनीं, अंतरिक्ष में रहने का कीर्तिमान बनाया. दुनिया को अंतरिक्ष में अपनी सेवाएं उन्होंने दी इसका उद्गम बिंदु एक फिक्शनल फ़िल्म ही थी. वैसे ही यहां गुंजन सक्सेना का पात्र भी फ़िल्मों का दीवाना है. जब वो 10वीं में खूब नंबर लाती है और घर पर पार्टी होती है तो वहां सुभाष घई की 1989 में आई फ़िल्म 'राम लखन' का गाना बज रहा होता है. जब गुंजन से एसएसबी इंटरव्यू में देश के सम सामयिक विषयों पर बोलने के कहा जाता है तो उसे कुछ नहीं पता होता. अंत में उसी साल 1994 में आई डेविड धवन, गोविंदा, करिश्मा की फ़िल्म 'राजा बाबू' उसके बचाव को आती है, जिसके गाने 'सरकाय लो खटिया जाड़ा लगे' पर वो पूरे उत्साह, संजीदगी से बोलती है. एक सीन में पिता उसे एक मैगजीन के कवर पर रेखा की फोटो दिखाकर मोटिवेट करता है. और रेखा ने एक फ़िल्म की तैयारी के लिए कितना वजन, कैसे घटाया, ये फ़िल्मी न्यूज़ गुंजन के एयरफोर्स में ऑफिसर बनने के लक्ष्य को असंभव से संभव बनाती है. फ़िल्म में कौसर मुनीर का लिखा एक गाना तक आता है - 'रेखा ओ रेखा, जबसे तुझको देखा, बदला किस्मत का लेखा'. ये फ़िल्म सिनेमा के अपने रेफरेंस में यहीं नहीं रुकती. जब पढ़ाई में औसत रही गुंजन की दोस्त मन्नू शादी कर रही होती है तो वो करियर से हताश दोस्त गुंजन से कहती है - "मैं भी तो गई थी मुंबई. अपना ख्वाब और मेकअप लेकर हीरोइन बनने. छह महीने हीरोइन के पीछे एक्स्ट्रा बनकर डांस किया. हज़ार ऑडिशन में मां, बहन, बुआ, बेटी सबकी एक्टिंग की. पर क्या हुआ? उम्मीदें लेकर गई थी, आंसू लेकर वापस आई. इसलिए मैंने वो चैप्टर ही बंद कर दिया. कब तक अपने सपनों के पीछे भागती यार. पर अब एक नया चैप्टर शुरू करने जा रही हूं (शादी की मेहंदी दिखाते हुए). शायद इसी में खुशी मिल जाए. माधुरी बन न सकी तो क्या, माधुरी दिख तो रही हूं!" थीम 2 - इस फ़िल्म की अल्प लेकिन एक बहुत जरूरी बात देशभक्ति की इसकी परिभाषा है. एक सीन में गुंजन रात को पिता को जगाती है. पूछती है कि - "पापा, एयरफोर्स में ऐसे कैडेट्स होने चाहिए जिनमें देशभक्ति हो. लेकिन मेरा तो बस प्लेन उड़ाने का ड्रीम था इसलिए मैं एयरफोर्स में आई. कहीं ये ख़्वाब पूरा करने के चक्कर में, मैं देश के साथ गद्दारी तो नहीं कर रही हूं?" इस मासूम, प्योर सवाल पर पिता का जवाब बहुत समझदारी भरा होता है. वो पहले उससे पूछते हैं - "गद्दार का विपरीत क्या होता है?" गुंजन कहती है - "ईमानदारी". फिर वो उसे कहते हैं - "तो अगर तुम अपने काम में ईमानदार हो, तो देश के संग गद्दारी कर ही नहीं सकती. तुम्हे क्या लगता है एयरफोर्स को 'भारत माता की जय' चिल्लाने वाले चाहिए? उन्हें बेटा, वैसे कैडेट्स चाहिए जिनका कोई लक्ष्य हो. जिनमें जोश हो. जो मेहनत और ईमानदारी से अपनी ट्रेनिंग पूरी करें. क्योंकि वही कैडेट्स आगे चलकर बेहतर ऑफिसर बनते हैं और देश को अपना बेस्ट देते हैं. तुम सिनसिएरिटी से, हार्ड वर्क से, ईमानदारी से एक बेहतर पायलट बन जाओ, देश भक्ति अपने आप हो जाएगी." इस प्रश्नोत्तर से लगता है जैसे मेकर्स को भान है कि एक सैन्य अधिकारी की बायोपिक के इस मुख्य विषय से कौन सा उप-विषय जुड़ा हुआ है, जो आज के टाइम में हमारे समाज को ज़हरीला बना चुका है, जिस पर एक सरल, मुकम्मल टिप्पणी की जरूरत है. ये उत्तर वही टिप्पणी होता है. थीम 3 - आकार में देखें तो फ़िल्म में सबसे बड़ी थीम है महिलाओं का वो अनथक संघर्ष जो पुरुषों की कब्जाई इस दुुनिया में उनको करना पड़ता है. एक सरल, साधारण लड़की गुंजन को उसके पिता ने हमेशा यही समझाया कि तुम्हे एयर फोर्स में हेलीकॉप्टर उड़ाना है, उठाना थोड़े ही है जो पुरुषों वाला बल चाहिए. लेकिन जब वो उधमपुर बेस की पहली महिला ऑफिसर बनकर आती है तो उसे ऑलमोस्ट रियलाइज़ करवा दिया जाता है कि तुम्हे हेलीकॉप्टर उड़ाना ही नहीं, उठाना भी पड़ेगा. 'गुंजन सक्सेना द कारगिल गर्ल' इस विमर्श में एक अच्छी कोशिश है. न सिर्फ लड़कियों को बल्कि उनके भाइयों और माता-पिता को भी ये फ़िल्म जरूर देखनी चाहिए. ये न सिर्फ ताज़ा तरीके से मनोरंजन करती है, बल्कि भीतर से आपको बेहतर भी करती है. जिसे पकड़ना हर दर्शक का सबसे बड़ा लक्ष्य होना चाहिए. ****

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