Film Review: कुछ वजहें हैं कि 'फोर्स-2' जैसी सब फिल्में अच्छी लगती हैं
इन्हें जान लेंगे तो कंटेंट आप पर नहीं आप कंटेंट पर हावी रहेंगे.
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फिल्म के एक दृश्य में जॉन अब्राहम.
फिल्म: फोर्स - 2 । निर्देशक: अभिनय देव । कलाकार: जॉन अब्राहम, सोनाक्षी सिन्हा ताहिर राज भसीन, नरेंद्र झा, राज बब्बर । अवधि: 2 घंटे 07 मिनट
आगे कुछ Spoilers/खुलासे हैं, अपने विवेक से ही पढ़ें.
मुंबई पुलिस में एसीपी यशवर्धन ने पिछली बार ड्रग माफिया से टक्कर ली थी. उसमें उसकी पत्नी मारी गई. अब चार-पांच साल बाद वह एक बार और भारत का अकेला काबिल अफसर साबित होने वाला है. कहानी ये है कि कोई अंदर का आदमी भारत की गुप्तचर एजेंसी रॉ (रिसर्च एंड एनेलिसिस विंग) के चीन और अन्य जगह स्थित गुप्तचरों का कवर लीक कर रहा है और वे मारे जा रहे हैं. यश का दोस्त भी एक एजेंट होता है. जब समाचारों में बता दिया जाता है कि एक दुर्घटना में उसकी मौत हो गई तो यश को यकीन नहीं होता. उसके दोस्त ने तभी उसे एक क्लू भी भेजा होता है. तो वह जाता है अधिकारियों के पास. वह कहता है कि ये हमलावर बूडापेस्ट में है. फिर उसे एक रॉ एजेंट कमलजीत कौर के साथ उस 'गद्दार' को पकड़ने बूडापेस्ट भेजा जाता है.क्या फिल्म देखते हुए मजा आता है?बिलकुल आता है. सही सवाल ये है कि कितना आता है? क्योंकि 'टेकन', 'ट्रांसपोर्टर', 'बोर्न आइडेंडिटी', 'मिशन इम्पॉसिबल' और 'डाई हार्ड' जैसी समान सी एक्शन फिल्मों के साथ एक खास बात ये है जिस पर ज्यादा ध्यान नहीं देते कि इन्हें देखते हुए हमारी सोचने समझने की नसें सुन्न पड़ जाती हैं. हम पसरकर सब देखते जाते हैं. सही-गलत की पहचान करना छोड़ देते हैं. जो भी दिखाया जाता है वो मनोरंजन के नाम पर बस देखते हैं. कोई पुलिसकर्मी-गुप्तचर अपने मिशन में निर्दोष को भी गोली मार रहा है तो भी हमें फर्क नहीं पड़ता. हमारे दिमाग में न जाने ये कहां से फिट कर दिया गया है कि ये सिर्फ कहानी है, असली में नहीं है.. "और फिल्मी मनोरंजन में ही सारा कानून क्यों ढूंढ़ रहे हो?" ज्यादातर मौकों पर इस जॉनर की फिल्मों में जो हम देखते हैं उससे हमें असल जिंदगी में कहीं कोई मदद नहीं मिलती. कुछेक होती हैं जो हमें कंप्यूटर हैकिंग, सतर्कता, लड़ने का कौशल, किसी ताकतवर का सामना करने की प्लानिंग, सत्ता से बचने की ट्रिक्स और इंडिपेंडेंट राय का महत्व सिखा जाती हैं. लेकिन ऐसी फिल्में बहुत कम होती हैं. ज्यादातर कचरा होती हैं. लेकिन चूंकि इन्हें देखते हुए बहुत ही मीठा मीठा और पैसिव एंटरटेनमेंट मिलता है इसलिए जब भी शरीर या दिमाग में कुछ बोरिंग सा होता है, कुछ सामान्य सा चल रहा होता है तो मन बेला तार या सत्यजीत रे की फिल्में देखने का नहीं होता, 'टेकन' देखने का होता है. 'डाई हार्ड', 'रैंबो', 'द एक्सपेंडेंबल्स' हम कितनी बार रिपीट देख चुके हैं काउंट कर लीजिए. तो 'फोर्स-2' भी ऐसी ही फिल्म है. आप सीट पीछे करके देखेंगे. देखते रहेंगे. दो घंटे पूरे होंगे. आप थियेटर से बाहर आ जाएंगे. कुछ नसों में इंजेक्ट हो गया होगा जो बेहतर तो बिलकुल नहीं होगा. लेकिन हमारा ध्यान टाइमपास और नशीले दो घंटों पर रहेगा. ऐसी सबसे ज्यादा एंटरटेनमेंट और रिपीट वैल्यू वाली स्पाय-पुलिस-एक्शन फिल्मों के मुकाबले 'फोर्स-2' में वजन कम है. इसमें ट्रिक्स कम हैं. सस्पेंस कम है. एसीपी यश और एजेंट केके दोनों कहीं-कहीं स्मार्ट दिखाए जाते हैं लेकिन ओवरऑल वे डम्ब होते हैं. गोलियां सब लोग हवा में ही मारते रहते हैं. ऐसी ही कमियां हैं. जैसे एक जगह देखिए. केके की घड़ी में नीचे की ओर बाग़ी रॉ एजेंट चिप लगा देता है और फरार हो जाता है. अब वो यश-केके की हर गतिविधि को ट्रैक कर सकता है. इससे उनका मिशन शुरू में फेल हो जाता है. यहां अचरज इस बात का है कि घड़ी में चिप लगी है और रॉ की धुरंधर एजेंट केके को कई दिन तक पता ही नहीं चलता है. जबकि चिप बाहर उस हिस्से में लगी होती है जो त्वचा को स्पर्श करता है और वो उभरी हुई चिप आराम से महसूस हो सकती है. लेकिन रॉ एजेंट रोज पहनती व उतारती है लेकिन उसे चिप नहीं दिखती. हमें मजा आता है जब केके रॉ के काम करने के तरीके की शेखी बघारती है लेकिन बाद में यश किसी काम में सफलता पाकर कहता है ये मुंबई पुलिस के काम करने का तरीका है. औरत-आदमी की नोक-झोंक में आदमी को यूं छोटे मौकों पर जीतते देखकर दर्शकों को मजा आता है. उन्हें लगता है यही सही चीज थी. इसमें दो बातें हैं. पहली: ये "रॉ वर्सेज मुंबई पुलिस वाली तकरार" हॉलीवुड की फिल्मों में "एनवाईपीडी वर्सेज एफबीआई की तकरार" से आई है. निर्देशक अभिनय देव अपनी फिल्म 'गेम' और टीवी शो '24' में अपनी हॉलीवुड प्रेरणाएं दिखा चुके हैं. चूंकि हमारे यहां ऐसा सार्वजनिक जीवन में नहीं रहा है तो हमने वहां से लिया है. 'फोर्स-2' में हमें ये देखते हुए थ्रिल होता है. लेकिन ये फीका ही है. इसी तर्ज पर जॉन अब्राहम का पात्र जॉन मैक्लेन की तरह है. उसे देसी आदमी की तरह दिखाया जाता है जो कॉमन सेंस से काम करता है. ऊंची एजेंसियों के काम करने के एलिटिस्ट और परिष्कृत तरीकों का पालन न करके भी उसके सही हो जाने में हम उसे अपने जैसा पाते हैं. इसी से हम उसके करीब हो जाते हैं. इसी से सोफे, पलंगों पर पसरे पॉपकॉर्न खाते दर्शकों को ये भ्रम सुहावना लगता है कि किस दिन वो भी मैक्लेन हो सकता है. फिल्में यही करती हैं. इसीलिए हम इन्हें देखते हैं. दूसरी: यहां से शुरू होकर आखिर तक हम देखते हैं कि सोनाक्षी सिन्हा द्वारा निभाया केके का पात्र हमेशा दूसरे नंबर ही रहता है. पहले नंबर पर यश होता है. ये फिल्म असल जिंदगी के कई मंचों की तरह ऐसा आभास देने की कोशिश करती है कि महिला-पुरुष बराबर है क्योंकि दो लोगों को मिशन पर भेजा है जिसमें एक आदमी तो एक औरत भी है. और तो और इस दो लोगों को ग्रुप को लीड करने वाली भी औरत ही है. लेकिन मिशन में सफलता आदमी के फैसलों से मिलती है. एक जगह सोनाक्षी का पात्र केके घुटनों पर आ जाता है. फिल्म में जहां-जहां केके गलत फैसले लेती है हमें गुस्सा आता है कि पुरुष हीरो का कहना क्यों नहीं मान रही? अंत में जब मिशन फेल होने का जिम्मा उस पर आता है और पुरुष हीरो दया दिखाकर उसे मिशन में बरकरार रखवा लेता है तो हमें मजा आ जाता है. कारण ये होता है कि हमेशा की तरह महिला-पुरुष के मुकाबले में महिला नीची साबित हो जाती है. अंत में वो भी पालन करने वाली ही रह जाती है. आगे पुरुष चलता है, वो पीछे-पीछे. 'फोर्स-2' के किसी भी पात्र में चटख़पन नहीं है. विलेन में भी नहीं. ताहिर ने 'मर्दानी' में ध्यान खींचा था. यहां वे कोशिशें करते हैं, ताजा भी लगते हैं लेकिन वे यादगार नहीं हैं. जॉन के अभिनय में काफी सीमाएं हैं. चूंकि रोल सिर्फ एक्शन वाला और सीरियस फेस बनाए रखने का है तो काम चल जाता है. सोनाक्षी के अभिनय में भी बहुत सीमाएं हैं. वे कैरी मैथिसन के पात्र की जटिलता देख सकती हैं. निर्देशक अभिनय देव भी. इस स्क्रिप्ट में कुछ भी प्रभावित करने वाला और नया मोड़ नहीं है. सब कुछ पहले देखा जा चुका है. सबसे खास ये कि जितने भी मोड़ आते हैं, वो बहुत कम साबित होते हैं. स्त्री-पुरुष बराबरी के विमर्श के अलावा दो-तीन अन्य मौकों पर भी फिल्म बनाने वाले की पॉलिटिक्स ढूंढ़ी जा सकती है. आप जान सकते हैं कि उसका ज्ञान कितना कम है. एक दृश्य में केके यश को बताती है कि वो गन चलाते समय ठिठक जाती है तो उसकी वजह क्या है? "लाजपत नगर की एक लॉज में एक नक्सल टैरेरिस्ट छुपा हुआ था. हमें टिप मिली थी. हम गए. मैं गोली नहीं चला पाई. वो भाग गया. उसके बाद उसने पांच लोग मार दिए." 'कश्मीरी आतंकियों' का इस्तेमाल हिंदी फिल्मों में बहुत होता है इसलिए यहां निर्देशक ने वैरायटी लाने के लिए 'नक्सल आतंकी' को शत्रु चुन लिया. क्योंकि जनमानस में मीडिया और सरकारों ने प्रतिरोधी आदिवासियों को इसी कैटेगरी में डाल रखा है. पॉपुलर कल्चर इस कैटेगरी को हमारे मनों में और पक्का कर रही है. जब हम दिल्ली और नक्सली शब्दों को देखते हैं तो कोई आदिवासी जेहन में नहीं आता बल्कि डीयू में पढ़ाने वाले प्रोफेसर साइबाबा याद आते हैं जिन्हें माओवादियों से संपर्क होने के अपुष्ट आरोप लगाकर पुलिस ने नाटकीय रूप से उठा लिया था. वे विकलांग/दिव्यांग हैं, मेडिकल कंडीशन है फिर भी उन्हें दो साल तक जेल में रखा गया. जमानत नहीं होने दी गई. इस साल अप्रैल में सुप्रीम कोर्ट ने इसे लेकर संबंधित एजेंसियों को लताड़ लगाई और उन्हें जमानत दी. ऐसी कोई घटना नहीं है जिसमें किसी नक्सली ने शहरों में अपना ऑपरेशन किया हो. नक्सली वारदातें उन्हीं जंगलों में होती हैं जहां सुरक्षा दल जाते हैं. दोनों पक्षों में हिंसक लड़ाई चल रही है. नक्सली दिल्ली आते हैं और पांच लोगों को मारते हैं ऐसा नहीं है. देशभक्त, देशद्रोही, गद्दार जैसे शब्दों का इस्तेमाल भी कहानी में हुआ है तो उस गंवारू सिनेमाई समझ के रूप में जिसकी ऊंचे दर्जे की ह्यूमन स्टोरीटेलिंग में कोई जगह नहीं है. क्लामैक्स में वीडियो गेम वाले अंदाज में चेस सीक्वेंस होता है. फर्स्ट पर्सन में जैसे गेम खेलने वाले दुनिया की खतरनाक बंदूकें, राइफल चलाते हैं और विरोधियों के शव गिराते रहते हैं. हिंसा और ख़ून का तांडव होता है. उन्हीं युवा दर्शकों को कैटर करने के लिए ऐसी सिनेमैटोग्राफी रखी गई लगी. इसका मोटा मकसद यही था. न कि स्क्रिप्ट में इसकी जरूरत थी और न ही ये फिल्मांकन आर्ट जैसा था. फिल्म के अंत में हीरो बोलता है "हमारा देश बदल रहा है." एक अन्य स्थान पर भी ये कहा जाता है कि "अब भारत पहले वाला भारत नहीं रहा, अब हम घर में घुस के मारते हैं." ऐसे विचारों को सुनकर समझ में नहीं आता कि भ्रमित करने वाले इस मनोरंजन के झौंके के बीच इसे प्रोसेस कैसे करें? क्योंकि ये तो सीधा-सीधा हमारी मानसिकता बन जाने वाला है. घर में घुसकर मारने वाले देश क्या महान होते हैं? आप पाकिस्तान के घर में घुसकर सर्जिकल स्ट्राइक करो, फिर चीन आपके घर में करेगा. चीन के आगे तो आप चींटी ही हो. फिर क्या करोगे? इसीलिए कूटनीति नाम की विधा भी होती है जिससे मामले सुलझाए जाते हैं जिसमें एक पत्ता भी नहीं टूटता और मुल्कों के बीच शांति बनी रहती है. ये और भी विस्तृत बात है लेकिन हमारी फिल्में हमें ये नहीं बतातीं, वे सिर्फ गलत विचार हमारे भीतर संक्रमित करके चली जाती हैं. इसलिए 'फोर्स-2' या 'डाई हार्ड' या 'ट्रांसपोर्टर' देखते हुए दिमाग को जो high मिल रहा होता है, उसमें भी सचेत रहें. ये भय नहीं रखें कि मनोरंजन कम हो जाएगा. बल्कि और बेहतर मनोरंजन की परख कर पाएंगे जिससे लंबे समय तक संतुष्ट रहेंगे/रहेंगी.