'गुमनाम नायक किसी भी नायक से बड़ा है,' ए वतन, मेरे वतन मूवी रिव्यू
ये फिल्म आपको आजादी के आन्दोलन के प्रति कृतज्ञता से भरती है. बिना किसी नैतिक दबाव के. आपके भीतर राष्ट्रवाद की भावना और प्रबल होगी लेकिन फिल्म की सबसे सुन्दर बात है कि ये आपको कोई एनिमी क्रिएट करके नहीं देती. फिल्म में अंग्रेजों के जुल्म वाले सीन्स दिखाए गए हैं. और पूरी जिम्मेदारी के साथ उन्हें बरता गया है.
“गुमनाम नायक किसी भी नायक से बड़ा है. क्योंकि गुमनाम नायक शुद्ध, खालिस, सौ प्रतिशत निस्वार्थ नायक है.”
अमेजन प्राइम पर 21 मार्च को रिलीज हुई फिल्म, “ए वतन, मेरे वतन” (Ae Watan Mere Watan) का पूरा सार है, ये संवाद. कन्नन अय्यर की डायरेक्ट की हुई ये फिल्म, फ्रीडम फाइटर उषा मेहता के जीवन पर आधारित है. उषा मेहता उन हजारों-लाखों गुमनाम नायकों में से एक हैं जिन्होंने 90 साल यानी 1857 से लेकर 1947 तक चले आजादी के आन्दोलन में धूप, घाम, पानी, पत्थर सहे, सिर्फ एक ख़्वाब के लिए कि देश आजाद हो. उषा मेहता को साल 1998 में देश के दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान, पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया था. साल 2000 में उनकी देह पूरी हुई. उन्हें बरतानिया हुकूमत ने चार बरस तक येरवडा जेल में रखा था. जब वे जेल से बाहर आईं तो उस वक्त 20,000 लोगों का हुजूम दरवाजे पर उनका इन्तजार कर रहा था. ये त्रासदी है कि हम उनके बारे में बिल्कुल नहीं या बहुत कम जानते हैं. ये फिल्म उस कमी को बहुत हद तक पूरा करती है.
फिल्म में उषा मेहता का रोल किया है, सारा अली खान ने और इस किरदार के साथ वे लगभग पूरा न्याय करते हुए नजर आती हैं. यहां लगभग की गुंजाइश इसलिए छोड़ी गई है क्योंकि एक्सप्रेशन वाले सीन्स में सारा कमजोर दिखती हैं. जैसे, एक सीन है जहां वे वन्दे मातरम का नारा लगा रही हैं, यहां वे इतने सपाट चेहरे से नारे लगा रही हैं, जो इस सीन की ग्रैविटी को हल्का करता है. सोशलिस्ट नेता राम मनोहर लोहिया का रोल किया है, इमरान हाशमी ने और उन्होंने अपने स्क्रीनटाइम में दर्शकों को वो सारी वजहें दी हैं कि वे बीच में फोन चेक न करें.
फिल्म की स्टोरी 1940 के दशक के राजनीतिक माहौल पर बेस्ड है. दरअसल 1942 में, देश की आजादी के लिए “भारत छोड़ो आन्दोलन” हुआ था. ये एक कौल था कि अब अंग्रेजों को भारत से खदेड़ देना है. उस पर बरतानिया हुकूमत बिफर गयी थी, उसने गांधी, मौलाना आजाद जैसे सभी बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया था. कांग्रेस पर बैन लगा दिया गया था. ऐसे में देश एक कैसे हो, निराशा भरे इस माहौल में लोगों में देश के प्रति बलिदान होने की ऊर्जा कैसे बलवती की जाए? इसका जवाब खोजा उषा मेहता और उनके दो दोस्तों फहाद और कौशिक ने. इन लोगों ने मुंबई में अंग्रेजों से छिपकर एक रेडियो स्टेशन चलाने की कोशिश की. फहाद का रोल किया है, स्पर्श श्रीवास्तव ने जिन्हें हम इससे पहले लापता लेडीज में देख चुके हैं. और कौशिक का रोल किया है अभय वर्मा ने. अब क्या ये प्लान सफल होता है? कितनी मुश्किलों से गुजरता है? ये रोमांच आपको फिल्म देखकर ही मिलेगा.
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फिल्म में एक साइड स्टोरी भी है, उषा और कौशिक के बीच में प्रेम की एक बारीक दीवार है. एक सीन में कौशिक पूछ ही लेते हैं क्या हमारे बीच जो कुछ है, वो झूठ है? सारा कहती हैं, सच है, लेकिन छोटा सच. फिल्म में दोनों से जुड़े कुछ सीन्स हैं. ये बिल्कुल भी लाउड नहीं है. ऐसा लगता है एक शांत झील में एक पत्थर फेंक दिया है. और डायरेक्टर ने उससे उपजी तरंगों को कैप्चर कर लिया है.
फिल्म के साथ एक बुनियादी समस्या है, वो है, साइडएक्टर्स को बिल्कुल इग्नोर करना. फिल्म फहाद और कौशिक की स्टोरी में जरा भी दिलचस्पी नहीं लेती. जबकि स्क्रीनटाइम दोनों को भरपूर मिला है. वे आधी से ज्यादा मूवी में उषा के साथ ही दिखते हैं. उषा के घर में क्या चल रहा है, पिता से उनके झगड़े इस पर एक जैसे इतने सारे सीन्स हैं कि आप गेस कर सकते हैं कि इसके बाद अगला डायलॉग क्या होगा? लेकिन फहाद और कौशिक के घर और निजी जीवन पर एक दफा भी कैमरा नहीं जाता. ये फिल्म की सबसे क्रूर बात है. एक सीन में उषा और कौशिक को अरेस्ट किया गया है. हमें उषा की कहानी तो पता चलती है, लेकिन लगा कि फिल्म के डायरेक्टर कौशिक को अरेस्ट करवाकर ये भूल गए कि वो अरेस्ट भी हुए थे. ये अमानवीय लगता है. फिल्म में उषा के पिता का रोल किया है, सचिन खेडेकर ने. जिनका हृदय परिवर्तन व्यूअर्स के लिए इस फिल्म का एक और हासिल रहेगा.
सबसे बड़ी बात है कि ये फिल्म आपको आजादी के आन्दोलन के प्रति कृतज्ञता से भरती है. बिना किसी नैतिक दबाव के. थोड़ी गंभीर फिल्म है तो कुछ अनुशासन की मांग आपसे करती ही है. आपके भीतर राष्ट्रवाद की भावना और प्रबल होगी लेकिन फिल्म की सबसे सुन्दर बात है कि ये आपको कोई एनिमी क्रिएट करके नहीं देती. फिल्म में अंग्रेजों के जुल्म वाले सीन्स दिखाए गए हैं. और उनको पूरी जिम्मेदारी के साथ बरता गया है. आप भावुक होंगे लेकिन उसमें अनुग्रहिता का भाव होगा, क्रोध और उन्माद का नहीं.
फिल्म के संवाद लिखे हैं, दाराब फारुकी और कन्नन अय्यर ने. हमने संवाद से बात शुरू की थी, उसी से इसे अंत करते हैं. एक सीन में उषा के पिता ने उन्हें एक खत लिखा, उसमें दर्ज था,
“जालिमों से इसलिए नहीं लड़ा जाता कि उनसे जीता जाए. जालिमों से इसलिए लड़ा जाता है कि वे जालिम हैं.”
जाते-जाते एक सूचना, अगर आप उषा मेहता के बारे में और जानना चाहते हैं. पेंग्विन प्रकाशन की किताब, “Congress Radio” जरुर पढ़िए. इसे उषा ठक्कर ने लिखा है.