UP इलेक्शन की पहली लल्लनटॉप ग्राउंड रिपोर्ट: सपा के गढ़ मैनपुरी से
चार सीटें हैं, फिलहाल चारों पर सपा काबिज है. और इस बार?
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फोटो - thelallantop
~ राजन पांडेदेश की सबसे पुरानी सड़क 'ग्रांट ट्रंक रोड' पर दिल्ली से लगभग 250 किलोमीटर दूर है मैनपुरी. कानपुर के रूट पर. मई 1857 में, जब कानपुर से दिल्ली जा रहे विद्रोही सिपाहियों ने जाते जाते शहर में गदर की चिंगारियां छोड़ दीं थीं और मैनपुरी सुलग उठा था.
शहर के गोला बाज़ार में टिकी अंग्रेजी सेना के भारतीय सिपाहियों ने बगावत कर दी थी. स्थानीय जमींदार उनसे जा मिले थे और अंग्रेज प्रशासक जिला छोड़कर भाग गए थे. विद्रोहियों ने ठाकुर तेज सिंह को मैनपुरी का स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया था और अक्टूबर 1857 में अंग्रेजों से दोबारा हारने तक, लगभग चार महीने यह जिला आजाद रहा था.

तेज सिंह आज भी यहां के लोक नायक हैं. ग़दर तो दब गया पर मैनपुरी के विद्रोही तेवर नहीं दबे. आज़ादी की लड़ाई में क्रांतिकारी गतिविधियों का प्रमुख केंद्र रहा. साथ ही, मैनपुरी षड्यंत्र केस में नामित किए गए गेंदा लाल दीक्षित, लक्ष्मणानंद ब्रह्मचारी और रामप्रसाद बिस्मिल जैसे क्रांतिकारियों की कर्मभूमि भी रहा. 15 अगस्त 1942 को जिले के बेवर क्षेत्र में तिरंगा फहराते हुए पुलिस की गोली से तीन सत्याग्रही मारे गए, जिन्में सबसे छोटा 14 साल का कृष्ण कुमार था. इन शहीदों की मूर्तियां बेवर कोतवाली के सामने बने शहीद स्मारक में लगी हुई हैं और हर साल जनवरी में यहां एक शहीद मेला भी लगता है. लेकिन आज़ादी के बाद, अपराध के बढ़ते ग्राफ के चलते मैनपुरी की छवि कुछ और ही बन गई.

बेवर शहीद स्मारक, मैनपुरी
राजनीतिक हलकों में सपा का पावर सेंटर माना जाने वाला मैनपुरी आगरा मंडल के चार जिलों में से एक है. जिले में चार सीटें हैं, मैनपुरी, करहल, भोगांव और किशनी. किशनी जिले की एकमात्र सीट है जो SC उम्मीदवारों के लिए सुरक्षित हैं.

पहले एक पांचवी सीट- घिरोर भी हुआ करती थी जो 2009 के परिसीमन में ख़त्म कर दी गई. यूं ये फैसला बसपा के लिए ख़राब रहा, क्योंकि जिले की यही एक सीट थी जो बसपा कभी जीत पाई थी. 2002 और 2007 में बसपा उम्मीदवार ठाकुर जयवीर सिंह यहां से चुनाव जीते थे. 2007 की बसपा सरकार में वे मंत्री भी रहे. लेकिन नए परिसीमन ने सब छीन लिया. 2012 में पड़ोसी जिले फर्रुखाबाद की एक सीट से चुनाव लड़े और हारे. अब भाजपा में शामिल हो गए हैं और फिरोजाबाद की सिरसागंज सीट पर दावा ठोंक रहे हैं, जहां कि उनका पैतृक मकान भी है.
कभी लाल परचम भी लहराता था यहां
मैनपुरी में स्वतंत्रता संग्राम और क्रांतिकारी गतिविधियों के साथ साथ कम्युनिस्टों की सक्रियता भी थी और आज़ादी के बाद सीपीआई यहां से चुनाव भी जीती है. 1942 आंदोलन के शहीद जमुना प्रसाद त्रिपाठी के बेटे जगदीश नारायण त्रिपाठी सीपीआई के ही टिकट पर भोगांव सीट से दो बार विधायक रहे, 1967 और 1974 में. सीपीआई के ही लल्लू सिंह चौहान जिले की घिरोर सीट से 1980 में चुनाव जीते. जगदीश नारायण बाद में सीपीआई की उत्तर प्रदेश इकाई के राज्य सचिव भी बने. लेकिन 1990 में मंडल और कमंडल के उभार के बाद कम्युनिस्ट पार्टियां अस्मिता की लड़ाई में पिछड़ती चली गईं और फिर कभी अपनी खोई जमीन नहीं ढूंढ पाईं.यह जिला सपा का गढ़ माना जाता है और चारों चीटों पर फिलहाल सपा के विधायक हैं.
नेताजी नहीं, कुछ और कहलाते हैं मुलायम यहां
देश भर में मुलायम सिंह को 'नेताजी' कहा जाता है, लेकिन अपनी कर्मभूमि मैनपुरी में लोग उन्हें 'दद्दा' कहते हैं. मैनपुरी शहर से लगभग 30 किलोमीटर ही दूर है मुलायम का गांव सैफई. चौधरी चरण सिंह की शागिर्दी में पिछड़ों की राजनीति शुरू करने के समय से ही यादव बहुल मैनपुरी से उनकी घनिष्ठता बनी रही. 1996 में पहली बार मुलायम मैनपुरी से ही लोकसभा चुनाव जीते थे, और बाद में संयुक्त मोर्चा सरकार में केंद्रीय रक्षा मंत्री भी बने.तब से 2009 तक, मुलायम ने यहां से चुनाव नहीं हारा. हालांकि 2004 में मुख्यमंत्री बनने के बाद मुलायम ने अपने भतीजे धर्मेंद्र के लिए ये सीट छोड़ी थी. 2014 में मुलायम मैनपुरी और आजमगढ़ दोनों जगह से लड़े और जीते. लेकिन जब एक सीट छोड़ने की बात आई तो उन्होंने मैनपुरी सीट ही छोड़ी, क्योंकि उन्हें विश्वास था कि सपा का उम्मीदवार उनके सीट छोड़ने के बाद भी मैनपुरी से नहीं हारेगा, जो कि हुआ भी. मुलायम के पौत्र तेज प्रताप यादव लोकसभा उपचुनाव में आसानी से जीत गए.
2012 विधानसभा चुनाव में जिले की चारों सीटों पर सपा की ही जीत हुई थी. सामान्य सीटों से पार्टी के तीनों विधायक पिछड़े थे (दो यादव, एक शाक्य) जबकि एक दलित. अपनी वफ़ादारी के चलते मैनपुरी को सपा शासन में 24 घंटे बिजली पाने वाले जिले का वीआईपी स्टेटस मिला है जो कि प्रदेश के 75 में से दर्जनभर से भी कम जिलों को ही मिला है. बिजली की किल्लत से जूझते उत्तर प्रदेश में ये एक बड़ी सहूलियत है. विधानसभा सीट 1: मैनपुरी सदर मैनपुरी सदर की सीट पर ठाकुर और शाक्य (कुशवाहा, स्थानीय भाषा में काछी) मतदाता अच्छी तादाद में हैं, ब्राह्मण भी हैं. पर निर्णायक है यादव वोट, जो अपने दम पर ही चुनावी परिणाम को बदल सकता है. ओबीसी और मुस्लिम वोट के साथ यादव वोट एक विनिंग कॉम्बिनेशन बनाता है. पिछले परिसीमन तक ठाकुर वोट ही निर्णायक स्थिति में था. भाजपा के अशोक चौहान इसी के चलते दो बार- 2002 और 2007 में यहां से विधायक रहे. लेकिन नए परिसीमन में ठाकुर बहुल पांच गांवों को, जिन्हें यहां पंचवटी कहा जाता है, काटकर करहल विधानसभा सीट और अन्य सीटों में शामिल करा दिया गया. इसी के चलते सपाई नेताओं का मानना है कि अब इस सीट से सपा के यादव प्रत्याशी को ठाकुर प्रत्याशी नहीं हरा सकता.
2012 चुनाव में सदर सीट पर काफी उठापटक हुई. 2009 लोकसभा चुनाव में तृप्ति शाक्य को पार्टी उम्मीदवार बनाए जाने पर भाजपा विधायक अशोक चौहान की अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ नेता और व्यवसायी रामनरेश अग्निहोत्री से खटपट हो गई. चौहान ने आरोप लगाया कि अग्निहोत्री मैनपुरी भाजपा को अपना जेबी संगठन बना के रखे हुए हैं. कलराज मिश्र के करीबी बताये जाने वाले पूर्व एमएलसी अग्निहोत्री पर इस तरह के आरोप पहले भी लगते रहे हैं. पार्टी में उनके विरोधी उन्हें बिना जनाधार का बड़ा नेता भी कहते रहे हैं. बहरहाल, इस मुखालफत और बसपा से नजदीकियां बढ़ाने की कीमत अशोक चौहान को अपनी टिकट कटवा कर चुकानी पड़ी और भाजपा ने पूर्व विधायक नरेंद्र सिंह को उम्मीदवार घोषित कर दिया. उधर सपा में भी टिकट को लेकर सर फुटौव्वल जारी थी. सपा जिलाध्यक्ष और वरिष्ठ नेता प्रोफेसर केसी यादव जहां फिर से टिकट चाहते थे वहीं पार्टी ने रामगोपाल यादव के करीबी व्यवसायी और ठेकेदार राजकुमार उर्फ़ राजू यादव को उम्मीदवार बना दिया. नतीजतन प्रोफ़ेसर साहब बाग़ी हो गए और कांग्रेस से टिकट ले आये. क्षेत्र के शाक्य वोटरों को ध्यान में रखते हुए बसपा ने अपने सबसे बड़े शाक्य नेता स्वामी प्रसाद मौर्य की बेटी संघमित्रा को 2009 लोकसभा चुनाव में उम्मीदवार बनाया था. इसी को जारी रखते हुए बसपा ने फिर से शाक्य बिरादरी की रमा शाक्य को उम्मीदवार बनाया.
वहीं पूर्व नगरपालिका अध्यक्ष दिवंगत महेश वर्मा के बेटे सुनील वर्मा उर्फ़ लालू, कल्याण सिंह की जन क्रांति पार्टी से मैंदान में उतर गए. परंपरागत रूप से भाजपा वोटर मने जाने वाले लोधी वोट के छिटक जाने से भाजपा की स्थिति इस सीट पर दयनीय हो गयी और उसे चौथे स्थान पर खिसकना पड़ा. के सी यादव ने घोसी और कमरिया गोत्र के नाम पर यादवों में फूट करने की कोशिश की पर उन्हें सफलता नहीं मिली और 24,280 वोटों के साथ उन्हें तीसरे स्थान से ही संतोष करना पड़ा. बसपा प्रत्याशी को 40781 वोट मिले, पर सपा के राजकुमार यादव 54990 वोटों के साथ उनसे कहीं आगे थे. पिछले कुछेक चुनावों में सदर की सीट पर यह सबसे बड़ा मार्जिन था.
परिवार में कलह और अफवाहों का दौर
अखिलेश और शिवपाल यादव की कलह का असर मैनपुरी की सपा पर भी पड़ा है. रामगोपाल के भतीजे और एमएलसी अरविन्द यादव को शिवपाल कैंप ने पार्टी से निकाल दिया. बाद में रामगोपाल को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. चूंकि सदर विधायक राजू यादव भी रामगोपाल के ही करीबी थे इसलिए उनके टिकट पर भी संकट बन आया. अटकलें लगाई जा रही थीं कि अपनी जसवंत नगर सीट बेटे आदित्य के लिए छोडकर शिवपाल यादव करहल सीट पर आएंगे और करहल विधायक सोबरन मैनपुरी जाएंगे, जिससे राजू यादव का पत्ता कटना तय माना जा रहा था. लेकिन रामगोपाल की पार्टी में वापसी के बाद इन सुगबुगाहटों पर विराम लगा है.
ऐसे भी चुनाव में अपने पैसे खर्च करने की क्षमता, और लोकप्रियता के चलते राजू यादव यदि बागी हो जाते तो सपा के लिए बड़ी दिक्कत पेश कर सकते थे. यूं सपा से राजू का टिकट तय माना जा रहा है पर अभी भी सैफई परिवार से किसी उम्मीदवार के आने की अफवाहों का बाज़ार शांत नहीं हुआ है.
एक बसपा को छोड़कर अन्य सभी दलों में टिकट की मारामारी चल रही है. बसपा ने पहले ही पुराने पार्टी कार्यकर्ता और ठेकेदार महाराज सिंह शाक्य को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया है. भाजपा से अशोक चौहान, विनय राठौर, संजय चौहान और कई और लोग लाइन में लगे हैं. कांग्रेस में भी वही हाल है. उम्मीद है की भाजपा अंततः ठाकुर उमीदवार को ही उतारेगी और टिकट अशोक चौहान को मिलेगा. लेकिन अगर ऐसा हुआ तो चौहान को पार्टी में ही भितरघात झेलना पड़ सकता है क्योंकि अन्य ठाकुर उम्मीदवार उनका विरोध कर सकते हैं. मुख्य मुकाबला सपा-बसपा-भाजपा में ही होने की उम्मीद है.

शाम 7:30 बजे शहर की करहल रोड पर चाय पीते हुए एक भीड़-भाड़ वाली पान की दुकान पर नज़र पड़ी. दुकान पर कांग्रेस का स्टीकर लगा हुआ था. उत्सुकता हुई सो पूछ बैठा- क्या आप कांग्रेस समर्थक हैं? जवाब में दुकान के मालिक, साठ-एक साल के ज्ञानेंद्र कुमार जैन मुस्कुरा देते हैं- 'कोई लगा जाये तो रोकता नहीं हूं. लेकिन हूं मैं पक्का भाजपाई. शाखा में भी जाता हूं.' कब से, पूछने पर बोलते हैं, 'चार-पांच दशक पहले मैनपुरी के एकरसानंद स्कूल में विजया राजे सिंधिया आई थीं, अपने ख़ुद के हेलीकॉप्टर से. बस, तभी से हम जनसंघी हो गए. इंदिरा गांधी भी मैनपुरी आई थीं, उस समय कई लोगों ने पाला बदला पर हम यहीं रहे. आज भी भाजपा को वोट देते हैं.जीते चाहे हारे.'
नोटबंदी का कुछ असर पड़ा है धंधे पर, पूछने पर मुस्कुरा के कहते हैं, 'हां थोड़ा असर तो है, पर ये सब चलता रहता है. हमें इस फैसले से कोई शिकायत नहीं.'
रात 9 बजे रामचंद्र महिला डिग्री कॉलेज के सामने यूनियन बैंक के एटीएम पर लाइन लगी है. कुछ पैसा निकालने के लालच और कुछ बात करने की इच्छा लिए मैं भी लाइन में लग जाता हूं. ज्यादा भीड़ नहीं है इसलिए धक्का मुक्की भी नहीं. एक भाई साहब कहते हैं, 'जानै कब तै लाइनन में ठाड़े हैं तब आज जा मसीन में पैसा मिल्त दिख रए हैं.' दूसरे जवाब देते हैं- 'ठाड़े रहौ, ऐसेइ एक दिनां खाता में 15 लाख रुपयाऊ आय जायेंगे.' सब लोग ठहाका लगाते हैं. तो 15 लाख के मोदीजी के वायदे की पर यही विश्वास है लोगों का. लेकिन नोटबंदी पर अधिकांश लोग समर्थन में ही हैं. मैं पूछता हूं- 'फैसला ठीक रहो या गल्त'? दो-तीन लोग बोल पड़ते हैं, 'फैसला तौ ठीकई है'. 'काए, दिक्कत नांय हुइ रई?' मैं थोड़ा कुरेदता हूं तो कहते हैं, "दिक्कत तौ हुइ रई है लेकिन चलौ देस के लएं इत्ती दिक्कत तौ उठाय लियें.'
मैं बाकी लोगों से पूछता हूं- यहाँ कोई है जिसे लगता हो कि ये फैसला गलत रहा. कोई हां नहीं कहता, हालांकि कुछ लोगों के चेहरों से साफ़ दिखता है कि उन्हें आपत्ति तो है, पर सबके सामने, प्रकट रूप से वो ये बात स्वीकार करना नहीं चाहते. विधानसभा सीट 2: भोगांवब्राह्मण-ठाकुर गैंग वार का रक्तरंजित इतिहास
भोगांव सीट का ही बेवर क़स्बा 1980 के दौर में ट्रांसपोर्ट का हब मन जाता था. यहां के ट्रक नागालैंड तक जाते थे. रमेश दीक्षित उर्फ पहलवान और उनके भाई रामानंद दीक्षित उस वक़्त की एक बड़ी ट्रांसपोर्ट एजेंसी- दीक्षित ट्रांसपोर्ट कंपनी चते थी. पैसे और संख्या से मजबूत होने के चलते यहां के ब्राह्मण भी दबंगई में कम नहीं थे. किसी बात पर मुंहफट रतन पहलवान की उपदेश सिंह चौहान उर्फ खलीफा के परिवार से रंजिश हो गई, जिसने जातीय रंग ले लिया और फिर आए दिन गोलीकांड होने लगे. इसी दौर में राजवीर दीक्षित उर्फ़ छोटे रमेश पहलवान परिवार से आ मिले और इस गुट के नेता बन गए. जब उपदेश गुट ने रमेश की हत्या कर दी तो उपदेश खलीफा के भाई शिवराज सिंह चौहान उर्फ़ पीटीआई पर दो बार जानलेवा हमला किया गया. दूसरा हमला तो दारुल शिफा ललखनऊ के विधायक निवास इलाके में किया गया था, लेकिन दोनों बार वे बच गए. इस बीच उपदेश खलीफा एक बार विधायक बन चुके थे.
1996 के लोकसभा चुनाव में जब उपदेश मुलायम सिंह के खिलाफ भाजपा के टिकेट से उतरे तो छोटे दीक्षित ने ब्राह्मणों का वोट काटने के लिए जान लगा दी. शहीद मेले के संचालक राज त्रिपाठी बताते हैं- "वे अपनी रायफल इलाके के प्रभाव रखने वाले ब्राह्मणों के पैरों में रख देते और कहते अगर भाजपा को वोट दिया तो उपदेश जीत जायेंगे और फिर मेरा मरना तय है. उससे अच्छा आप ये रायफल उठाइए और मुझे अभी ही मार दीजिये. इन कोशिशों का असर ये हुआ की ब्राह्मणों का एक हिस्सा भाजपा से छिटक गया और राम लहर के उफान में उपदेश ये चुनाव हार गए." लेकिन उपदेश गुट इस हार को नहीं भूला और बाद में इसका बदला छोटे दीक्षित की हत्या से चुकाया गया. छोटे दीक्षित की हत्या के बाद ब्राह्मण दावेदारी लगभग समाप्त हो गई. लेकिन दीक्षित गुट के बचे हुए लोगों ने एक आखिरी हमला ज़रूर किया था जिसमें मैनपुरी रेलवे क्रॉसिंग के पास उपदेश गुट के 6 लोगों को गोलियों से भून दिया गया था. इस नरसंहार के बाद ये रक्तपात का सिलसिला थम गया, और दोनों समुदायों की कटुता भी धीरे धीरे ख़त्म हो गई.
लोधी, शाक्य, यादव और ठाकुर मतदाताओं की अच्छी संख्या है इस सीट पर. सपा नेता आलोक शाक्य इस सीट से तीसरी बार चुनाव जीते हैं. उससे पहले उनके पिता रामौतार शाक्य यहां से पहले जनता दल, फिर सपा के टिकट पर विधायक रहे. उपदेश सिंह चौहान इसी सीट से विधायक रह चुके हैं और लगभग हर बार उनके परिवार का कोई सदस्य इस सीट से चुनाव लड़ता है. पिछली बार उनके दामाद आशीष सिंह उर्फ राहुल राठौर यहां से बसपा के उम्मीदवार थे और दूसरे नंबर पर रहे थे. कांग्रेस के टिकेट पर लोध नेत्री राकेश कुमारी उर्फ़ रश्मि राजपूत तीसरे स्थान पर रही थीं जबकि भाजपा यहां पर भी चौथे स्थान पर थी.
पार्टी के उम्मीदवार और विवादित बयानों के लिए चर्चित सच्चिदानंद हरि उर्फ़ साक्षी महाराज इस लोध बहुल सीट पर खुद लोध नेता होने के बावजूद मात्र 19619 वोट ला पाए थे और उनकी जमानत जब्त हो गई थी. आलोक शाक्य ने ये चुनाव अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी राहुल राठौर से चालीस हज़ार से ज्यादा रिकॉर्ड मतों से जीता था. राहुल अब भाजपा में चले गए हैं और वहीं से टिकट मांग रहे हैं. उनका मुकाबला है पार्टी के ही बड़े नेता रामनरेश अग्निहोत्री से, जो यहां से टिकट की दौड़ में हैं. 1993 विधानसभा चुनाव में जब रामनरेश पहली बार इस सीट से लड़े थे तो उपदेश चौहान ने उन्हें लगभग बीस हज़ार मतों से हराया था. मैनपुरी से पहले बसपा और फिर जन क्रांति पार्टी से चुनाव लड़ चुके सुनील वर्मा भी इस बार भोगांव से भाजपा का टिकेट मांग रहे हैं. ममता राजपूत लोधी होने के चलते दावेदारी कर रहीं हैं. वहीं बसपा ने सुरेन्द्र सिंह यादव को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया है. कांग्रेस से अभी किसी बड़े आदमी ने ढंग की दावेदारी भी नहीं की है. उम्मीद है कि सपा फिर से आलोक शाक्य पर दांव खेलेगी. शाक्य, मुस्लिम और यादव वोट यहां निर्णायक समीकरण बनता है और अभी किसी उम्मीदवार में इस समीकरण को तोड़ने की क्षमता नहीं दिख रही.

मैनपुरी क्रॉसिंग पार करते ही भोगांव का इलाका शुरू हो जाता है. भयानक धुंध के चलते धीमे धीमे बाइक चलाकर जा रहा हूं. मिधौली गांव के पास एक जगह अलाव जलता दिखा तो रुक गया. लोगों ने एक ईंट मेरी ओर भी सरका दी, बैठने के लिए. परिचय देकर मैंने पूछा कि नोटबंदी का कुछ असर है? 40 साल के रौशन लाल कश्यप बोले, 'फायदा नहीं, नुकसान ही हुआ हम जैसे छोटे काश्तकारों को. खाद, अपनी, बीज, दवाई को तरस गए. बड़ा आदमी सब मौज में है.' बाकी लोग सर हिलाते हैं. ये पूछने पर की नोटबंदी का राजनैतिक असर क्या हुआ, कश्यप जी बोलते हैं, 'फरक ताऊ येई मानौ साब की अब सिर्फ भाजपाही जोर मार रई, बाकी सब पार्टी बैठीं खाली अपएं नोट सही कर रईं.' सच में, नोटबंदी के बाद से भाजपा जिले में दो प्रदेश स्तरीय कार्यक्रम कर चुकी है. जगह जगह दिखने वाले फ्लेक्स-पोस्टरों में भी भाजपा वालों की संख्या ज्यादा है. अलाव के पास बैठे बाकी लोग सरकार के काम के बारे में पूछने पर एक सुर में कहते हैं कि अखिलेश ने काम तो कराया है.

आगे बढ़ता हूं तो नारैनिपुर के पास मदर डेरी का एक मिल्क कलेक्शन सेंटर दिखता है. कुछ किसान दूध देने आये हैं. डेरी संचालक राजेश कुमार यादव से पूछता हूं तो बताते हैं- "नोट हैं नांय, किसान बिना पैसा के काय माल दे. पहले 1000 लीटर तक कलेक्शन हुई जात थो रोज, आजकल 600 पे आय गओ है." पास ही सिनौरा के विनोद चौहान हैं, आस पास के गांवों से दूध लाकर सेंटर पर देते हैं. चौहान जी भाजपाई हैं, पर नोटबंदी से नाराज हैं. कहते हैं- 'जो लोग एक लीटर, दुई लीटर दूध लाओ कत्त हैं, उन्हें तो हफ्ता में रुपया चाहियें. जे लोग चेक की बात कत्त हैं, बासे कैसे काम चलिए. अब आदिमी ताऊ समझ जात हैं लेकिन औरतन तै रोज किच किच होति है.'
हत्यारे और जातीय नायक
अपराधियों और हत्यारों को जाति का नायक मानने का सिलसिला अभी ख़त्म नहीं हुआ है. भूतपूर्व डकैत और सांसद फूलन देवी ने अपने आपराधिक जीवन में बेहमई गांव में कई ठाकुरों को मौत के घाट उतार दिया था. जिसके बाद उत्तराखंड के एक ठाकुर शेर सिंह राणा ने कथित तौर पर फूलन देवी की हत्या करके बदला लिया था. इस हत्याकांड के बाद कई ठाकुर नेताओं ने शेर सिंह राणा की जमकर तारीफें की.
ठाकुर हलकों में शेर सिंह का दर्जा आज भी नायक सरीखा है. पृथ्वीराज चौहान के स्मारक को लेकर शेर सिंह ने एक कवायद शुरू की थी और उसी दौर में उनकी अस्थियां भोगांव विधानसभा के बेवर कस्बे में अस्थायी तौर पर रखवाई गई थीं. गिरफ्तारी के बाद वे यहां नहीं आ सके थे पर जेल से छूटते ही उनके यहां आने का कार्यक्रम बनाया गया. ठाकुर नेताओं ने स्वागत की बड़ी तैयारियां कीं और जिले में घूमते हुए रास्ते में कुछ जगहों पर उनके पोस्टर्स और कार्यक्रम में जाते लोग दिखे.

किशनी अस्पताल के पास भगवा झंडे लगाए कुछ गाड़ियां खड़ी थीं. पूछने पर पता चला क्षत्रिय समाज के लोग कार्यक्रम में ही जा रहे हैं. वहां लोगों का नेतृत्व कर रहे मिंटू चौहान ने राजनीती पर कोई कमेंट करने से इनकार कर दिया, पर स्पष्ट शब्दों में जता दिया कि 'शेर सिंह हमारे नेता हैं और रहेंगे.' कटरा से पहले एक घर के बाहर 'राजपूत सम्राट भाई शेर सिंह राणा टीम' का पोस्टर लगा दिखा, और दो नौजवान बाहर बैठे मिले. पूछा तो बोले कि बस निकल ही रहे हैं रैली के लिए. रैली में हालांकि अपेक्षित भीड़ नहीं जुटी, पर लगभग सवा सौ से ज्यादा गाड़ियां और कुछेक हज़ार क्षत्रिय भाई लोग जरूर इकट्ठा हुए. साफ है कि दबंग और आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को जातीय नायक बनाने का सिलसिला अभी भी ख़त्म नहीं हुआ है.
शहीद मंदिर के पास ही एक दुकान के बाहर कुछ लोग बैठे हुए बात कर रहे हैं. जाकर पूछता हूं तो पता चलता है भाजपा के कार्यकर्ता हैं. पार्टी टिकट किसको मिलेगा पूछने पर जवाब मिलता है- 'आलोक को मुकाबला देने की कूवत तो राहुल राठौर में ही है, पर पंडितजी (रामनरेश अग्निहोत्री) की पहचान ऊपर के हलकों में ज्यादा है. जो हो, हम लोग तो पार्टी को चुनाव लड़वाएंगे.'
बाकी दो विधानसभाओं का हाल, अगली कड़ी में...
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