बिहार और आंध्र तो हो गया, अब महाराष्ट्र-पंजाब-तमिलनाडु में BJP साथी ढूंढने के लिए क्या तिकड़म लगा रही है?
Lok Sabha Election 2024: बिहार में Chirag Paswan और आंध्र प्रदेश में Chandrababu Naidu को साथ लाने के बाद भी सहयोगियों की तलाश में BJP की विंडो शॉपिंग जारी है. NDA के नए साथियों की तलाश पंजाब में शिरोमणि अकाली दल और तमिलनाडु में PMK पर जाकर रुकती है. वहीं महाराष्ट्र में Ajit Pawar के बाद MNS प्रमुख Raj Thackeray को साथ लाकर BJP अबकी बार Uddhav Thackeray और Sharad Pawar का तोड़ निकालना चाहती है.
लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Elections 2024) में अपने दम पर 370 से ज्यादा सीटें जीतने का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी (BJP) कोई खतरा मोल लेने को तैयार नहीं है. कांग्रेस, आप और TMC समेत विपक्षी दलों के I.N.D.I.A. गठबंधन को भानुमति का कुनबा कहने वाली प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) और गृह मंत्री अमित शाह (Amit Shah) की जोड़ी खुद अपने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) के साथ नये साथी जोड़ने में लगी है.
राष्ट्रीय स्तर पर जहां राहुल गांधी के मुकाबले चुनाव प्रचार में पीएम मोदी (PM Modi) की टक्कर कराई जा रही है. वहीं दूसरी तरफ क्षेत्रीय स्तर पर बिहार में तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) के मुकाबले नीतीश कुमार (Nitish Kumar) और चिराग पासवान (Chirag Paswan) की जोड़ी होगी. आंध्र प्रदेश में वाईएस जगन मोहन रेड्डी (YS Jagan Mohan Reddy) के मुकाबले चंद्रबाबू नायडू (Chandrababu Naidu) बीजेपी के साथ दिखाई देंगे. तो महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray), कांग्रेस और शरद पवार (Sharad Pawar) की जोड़ी के मुकाबले एकनाथ शिंदे, अजित पवार (Ajit Pawar) और राज ठाकरे (Raj Thackeray) की जोड़ी को बीजेपी साथ लाना चाहती है. इतना ही नहीं पंजाब में AAP के सीएम भगवंत मान (Bhagwant Maan) को चुनौती देने के लिए शिरोमणि अकाली दल के सुखबीर बादल को एनडीए के परिवार में फिर से वापस लाने की कवायद तेज है. अब लाख टके का सवाल ये है कि भाजपा को इन सबकी जरूरत आखिर क्यों पड़ रही है? जवाब जानने के लिए एक-एक करके तीनों राज्यों की सियासत पर गौर करना होगा.
महाराष्ट्र में राज ठाकरे की दरकारमहाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे की गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात कोई एक-दो दिन की कवायद नहीं है. जब से महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी सरकार का पतन हुआ है. तभी से बीजेपी के कर्ताधर्ताओं की नजर मनसे पर जा टिकी थी. खुद मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे भी कई बार राज ठाकरे से उनके आवास पर जाकर मुलाकात कर चुके हैं. बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव विनोद तावड़े भी लगातार MNS मुखिया के संपर्क में बने हुए थे. बावजूद इसके कि पिछले तीन लोकसभा चुनावों में MNS कुछ खास कमाल नहीं दिखा पाई है.
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आंकड़ों पर नजर डालें तो 2009 के लोकसभा चुनावों में राज ठाकरे की पार्टी को महाराष्ट्र की आवाम ने 4.6 फीसदी वोट दिया. मगर सीट एक भी नहीं मिली. जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव में तो मनसे ने हिस्सा ही नहीं लिया था. वहीं महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में भी MNS का प्रदर्शन कुछ खास नहीं रहा है. पार्टी का अब तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन 2009 में देखने को मिला था. जब उसे 5.71 फीसदी वोट और 13 असेंबली सीटें मिलीं. उसके बाद से परफॉरमेंस में गिरावट ही दर्ज हुई. 2014 के विधानसभा चुनावों में मनसे को 3.15 फीसदी वोट और महज एक सीट मिली. वहीं 2019 के चुनावों में एक भी सीट नसीब नहीं हुई. वोट प्रतिशत भी गिरकर 2.5 फीसदी पर आ गया.
बावजूद इसके अगर बीजेपी को महाराष्ट्र में MNS का साथ चाहिए तो इसकी वजह पार्टी के जनाधार से ज्यादा इसके मुखिया राज ठाकरे के नाम के साथ लगा 'ठाकरे' सरनेम है. वरिष्ठ पत्रकार चेतन काशीकर कहते हैं-
महाराष्ट्र की राजनीति में दो खानदान बहुत बड़े हैं. पहला ठाकरे और दूसरा पवार. पवार कुनबे में नई पीढ़ी के सबसे बड़े नाम अजित पवार अब बीजेपी के साथ हैं. मगर ठाकरे की नई पीढ़ी के उद्धव ठाकरे बीजेपी के खिलाफ हैं. ऐसे में राज ठाकरे को साथ रखकर काफी हदतक इस कमी को पूरा किया जा सकेगा.
महाराष्ट्र की सत्ता से जिस तरह उद्धव ठाकरे को हटाकर एकनाथ शिंदे की ताजपोशी कराई गई. उसे लेकर मराठी मतदाताओं का एक बहुत बड़ा वर्ग बीजेपी से नाराज बताया जाता है. या फिर यूं कहें कि इस वर्ग की हमदर्दी उद्धव ठाकरे के साथ है. मराठा सियासत को दो दशकों से भी ज्यादा समय से कवर करने वाले वरिष्ठ पत्रकार सुभाष शिर्के कहते हैं-
उद्धव ठाकरे को जिस तरह हटाया गया, उसकी वजह से मराठा वोटर का एक बहुत बड़ा वर्ग उनसे हमदर्दी रखता है. वजह है बाला साहेब के प्रति मराठी मानुष की श्रद्धा. ऐसे में ठाकरे को मिलने वाली सिंपैथी की तोड़ के तौर पर एक और ठाकरे का आगे करना बीजेपी का अहम हथियार साबित हो सकता है. यही वजह है कि महायुत्ति सरकार बनने के बाद एकनाथ शिंदे और देवेंद्र फड़णवीस कई बार राज ठाकरे में मिल चुके हैं.
महाराष्ट्र की राजनीति में करीब ढाई करोड़ मराठीभाषी वोटर अहम भूमिका निभाते हैं. इस वर्ग को परंपरागत तौर पर कांग्रेस, शिवसेना और NCP का वोटर माना जाता रहा है. बाला साहेब ठाकरे और बीजेपी की नजदीकियों की वजह से कुछ मराठी वोट बीजेपी को भी मिलते रहे हैं. मगर अबकी बार इस वर्ग को साधना भाजपा के लिए आसान नहीं होगा. सुभाष शिर्के भी विचार से सहमति जताते हुए कहते हैं-
अब जबकि उद्धव ठाकरे और बीजेपी में छत्तीस का आंकड़ा है तो बीजेपी को राज ठाकरे की जरूरत पड़ रही है. पहले भी इसी मराठी वोटर के चक्कर में बीजेपी ने देवेंद्र फड़णवीस की जगह एकनाथ शिंदे को महाराष्ट्र का सीएम बनाया. फिर अजित पवार को अपने साथ लाए. और जब इतना काफी नहीं लगा तो कांग्रेस से तोड़कर अशोक चव्हाण को भी साथ मिला लिया.
लोकसभा चुनावों से पहले शरद पवार, उद्धव ठाकरे और राहुल गांधी की तिकड़ी महाराष्ट्र के गांव-गांव और शहर-शहर में घूमकर महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर बीजेपी को घेरने का काम कर रही है. ऐसे में पहले से ही NDA का हिस्सा बन चुके अजित पवार के साथ राज ठाकरे की जोड़ी शक्ति संतुलन का काम कर सकती है. वरिष्ठ पत्रकार चेतन काशीकर बताते हैं-
पंजाब में फिर एक बार अकालियों की दरकार?
महाराष्ट्र के शहरों में राज ठाकरे का अच्छा असर है. जबकि गांवों में उद्धव ठाकरे की पकड़ है. ऐसे में जब उद्धव ठाकरे गांव-गांव घूमकर बीजेपी को घेरने में लगे हैं तो गांव से आकर शहरों में बसे मराठी मानुष पर राज ठाकरे का जादू काम आ सकता है. आसान शब्दों में कहें तो (उद्धव) ठाकरे की काट (राज) ठाकरे वाली बात है.
NDA के गठन के वक्त से ही शिरोमणि अकाली दल और बीजेपी का साथ रहा है. अकाली 13 दिन की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार का भी हिस्सा थे. जबकि 2014 में जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो अकाली दल की हरसिमरत कौर उनके मंत्रिमंडल का अहम हिस्सा थीं. मगर राज्य स्तर पर दोनों दलों के नेताओं में मतभेद होते रहे. ऐसे में जब 2020 में किसान आंदोलन शुरू हुआ तो अकाली दल ने पंजाब के किसानों का समर्थन करते हुए मोदी सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया. उसके बाद हुए पंजाब विधानसभा चुनावों में अकाली दल और बीजेपी को भारी नुकसान हुआ. ऐसे में 2024 के लोकसभा चुनाव में दोनों पार्टियां उस नुकसान की भरपाई कर लेना चाहती हैं.
आंकड़ों पर नजर डालें तो पंजाब के चुनावों में SAD का अच्छा खासा प्रभाव देखने को मिलता है. 2019 के लोकसभा चुनावों में अकाली दल को राज्य की 13 में से 2 लोकसभा सीटों पर जीत मिली थी. वोट शेयर था 27.76 प्रतिशत. जबकि 2014 में पार्टी ने 26.30 वोट परसेंट के साथ 4 सीटों पर कब्जा किया था. 2009 में भी अकाली दल के खाते में 4 सीटें आई थीं और वोट प्रतिशत था 33.9 फीसदी. जाहिर सी बात है कि इतने बड़े वोट शेयर को खोना बीजेपी और एनडीए दोनों के हित में नहीं होगा.
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तमिलनाडु में PMK का सहारापंजाब के अकालियों की तरह ही तमिलनाडु में पट्टाली मक्कल काची (Pattali Makkal Katchi) भी अटल बिहारी वाजपेयी युग से NDA का हिस्सा रही है. PMK प्रमुख अंबुमणि रामदॉस के साथ नरेंद्र मोदी की तस्वीर दक्षिण भारत में ये संदेश देने के लिए काफी है कि अब दोनों दलों के बीच सब ठीक है. तमिल वोट बैंक पर PMK की पकड़ को नजर अंदाज़ नहीं किया जा सकता. 2019 के लोकसभा चुनावों में PMK को भले ही एक भी सीट ना मिल पाई हो, मगर 5.36 फीसदी वोट जरूर हासिल हुआ था. जबकि 2014 के लोकसभा चुनावों में पार्टी ने 4.51 फीसदी वोट शेयर के साथ एक सीट पर जीत भी दर्ज की थी. 2009 आम चुनावों में भी पार्टी को किसी सीट पर जीत नहीं मिली, मगर 6.4 फीसदी वोट जरूर हासिल हुआ. आंकड़ों से साफ है कि PMK के पास छोटा ही सही मगर स्थाई वोट बैंक है और उसी वोट बैंक पर बीजेपी की नजर है.
छोटे-छोटे मगर अहम साथियों की तलाश का ये फॉर्मूला बीजेपी यूपी, बिहार और आंध्र प्रदेश में पहले ही आजमा चुकी है. जयंत चौधरी, ओपी राजभर, चिराग पासवान, जीतनराम मांझी और चंद्रबाबू नायडू सरीखे क्षेत्रीय लीडर्स अब एनडीए का हिस्सा हैं. महाराष्ट्र, पंजाब और तमिलनाडु में भी बीजेपी इसी रणनीति पर आगे बढ़ना चाहती है.
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