सेनाध्यक्ष बिपिन रावत दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी पैदल सेना के सबसे सीनियर अफसर हैं. तो उनके पास लीडरशिप या नेतृत्व को लेकर कहने को बहुत कुछ है. उन्होंने जो कहा, वो एक बड़ी सामान्य सी राय है जो उनके अलावा भी कई लोगों के ज़ेहन में है. बारीक और सख्त अनुशासन वाले माहौल में पका हुआ फौजी अराजकता को कभी पसंद नहीं करेगा. तो फिर जनरल रावत से क्या गलती हुई?
ये, कि पूरी वर्दी में उन्होंने एक खालिस राजनैतिक मामले पर टिप्पणी की. जनरल रावत के पास भी जेएनयू से डिग्री है. बावजूद उसके, उन्हें यही लगा कि छात्रों के दिमाग पर नेतागिरी चढ़ती है तो वो भीड़ लेकर बसें तोड़ने-जलाने निकल जाते हैं. छात्रों को लेकर उन्हें जो भी लगता हो, उन्हें इस मसले पर सेवा में रहते टिप्पणी नहीं करनी चाहिए थी.
#WATCH Army Chief Gen Bipin Rawat: Leaders are not those who lead ppl in inappropriate direction. As we are witnessing in large number of universities&colleges,students the way they are leading masses&crowds to carry out arson&violence in cities & towns. This is not leadership. pic.twitter.com/iIM6fwntSC
— ANI (@ANI) December 26, 2019
भूल है. हो जाती है. लेकिन क्या ये जनरल की पहली भूल थी? तथ्य कुछ और ही कहते हैं. 12 जून, 2017 को इंडिया टुडे वेबसाइट पर एक खबर छपी थी जिसका शीर्षक था – Army Chief Bipin Rawat’s chemistry with controversies. रिपोर्ट बताती है कि दिसंबर 2016 में पद संभालने के बाद से जनरल कभी विवादों से दूर नहीं रहे –
1. 9 अप्रैल, 2017 को मेजर लीतुल गोगोई ने जब वोट डालने जा रहे फारूक अहमद डार को अपनी जीप पर बांधकर 28 गावों में घुमाया (इस बात की तसदीक खुद जम्मू कश्मीर पुलिस ने की थी कि डार पत्थरबाज़ नहीं था) तो उनके किए पर पहले कम विवाद था. पेशेवर फौजी तौर-तरीकों और मानवाधिकार के उन ‘भारतीय मूल्यों’ की बात न भी करें जिनकी अमित शाह दुहाई देते हैं, तब भी इस बात के लिए काफी जगह थी कि शायद उस दिन चुनाव पार्टी की जान बचाने का ये इकलौता और आखिरी तरीका था. लेकिन इसके बाद जो हुआ, उसे खुद सेना के ही कई रिटायर्ड अफसरों ने अजीब बताया था. क्योंकि मेजर लीतुल गोगोई को आर्मी चीफ का कमेंडेशन मेडल दे दिया गया था. वजह बताई गई कि मेजर ने कश्मीर में उग्रवाद से निपटने में सक्रिय भूमिका निभाई है. समाचार एजेंसी पीटीआई के एक संवाददाता ने इस बात पर ध्यान दिलाया कि मेजर मानव ढाल के एक मामले से जुड़े रहे हैं तो सेनाध्यक्ष रावत ने कहा,
”ये एक छद्म युद्ध है और छद्म युद्ध डर्टी वॉर होते हैं. उन्हें उसी तरह से लड़ा जाता है. रूल्स ऑफ इंगेजमेंट की बात वहां आती है जहां दुश्मन सामने से आकर लड़ता है. लेकिन यहां तो डर्टी वॉर की स्थिति है. यहीं पर इनोवेशन (नए तौर-तरीके) काम आते हैं. आप डर्टी वॉर से लड़ने के लिए इनोवेशन का सहारा लेते हैं.”
फौजियों के मनोबल को बनाए रखने के लिए अपने मातहतों के पक्ष में खड़े होने की सेना में बड़ी पुरानी और गौरवशाली परंपरा है. लेकिन ट्रूप मोराल के लिए मेजर गोगोई को कमेंडेशन मेडल देना अंजाने में ही इस बात को पुख्ता कर गया कि जीप के बोनट पर एक आदमी को बांधने का कोई तो ऐसा कारण हो ही सकता है, जिसे सेना स्वीकृति देती है.

2. जनरल रावत ये भी कह चुके हैं,
”लोग हम पर पत्थर फेंकते हैं. पेट्रोल बम फेंकते हैं. अगर मेरे आदमी मुझसे पूछें कि वो क्या करें तो क्या मैं ये कह दूं कि बस बैठे रहो और मरो? मैं एक बढ़िया ताबूत और राष्ट्रध्वज लेकर आउंगा और तुम्हारा शव सम्मान के साथ घर भेज दूंगा. क्या मैं सेनाध्यक्ष के नाते अपनी फौज से ये कहूंगा? जो लोग वहां ड्यूटी कर रहे हैं, उनका मनोबल बनाए रखना मेरा काम है.”
फौज के पास जो हथियार और उपकरण होते हैं, वो घातक चोट पहुंचाने के लिए होते हैं. बावजूद इसके जवान तब तक गोली नहीं चलाता जब तक उसे अपने या अपने साथियों की जान बचाने के लिए गोली चलाने के सिवा कोई और उपाय नहीं सूझता. सेना की भाषा में इसे नोबल रीस्ट्रेंट कहा जाता है. माने घातक शक्ति होने के बावजूद संयम को तरज़ीह. सेनाध्यक्ष जब ये पूछते हैं कि वो क्या ये कह दें कि बैठो और मरो, तब लगने लगता है कि उन्हें नोबल रीस्ट्रेंट में ज़्यादा विश्वास नहीं.
3. पीटीआई को ही दिए एक इंटरव्यू में जनरल रावत कहते हैं,
”मैं मनाता हूं कि ये लोग (कश्मीरी प्रदर्शनकारी) हम पर पत्थर चलाने के बजाय गोली चलाएं. तब मैं वो कर पाऊंगा जो… (जो मुझे ठीक लगता है).”
सेना में गोली चलाने को लेकर मोमेंट ऑफ ट्रूथ की बात होती है. हिंदी में शायद इसे कुछ और भी कहते हों. इसका मतलब है उस पल से जब फौजी अपने हथियार से किसी की जान लेने का निर्णय करता है. मैं गलत हो सकता हूं, लेकिन चाहें तो हर उस फौजी से बात कर लीजिए जिसने कश्मीर में पत्थर खाए हैं. वो आपसे यही कहेगा कि जितना बड़ा पत्थर हेलमेट पर आकर नहीं लगता, उससे बड़ा दिल पर पड़ जाता है जब किसी पत्थरबाज़ को उसकी चलाई गोली लगती है. क्योंकि सीधा फायर लगने पर एके 47 (इंसास की भी) की गोली अनिवार्य रूप से जान लेती है. फौजियों को खून और जान की कीमत पता होती है. उनके खून की भी, जिनसे वो लड़ते हैं. तो जनरल ऐसी स्थिति क्यों चाहते हैं कि फौजियों को गोली चलाने पर मजबूर होना पड़े?

4. एक और बयान सुनिए,
”आपके दुश्मन को आपसे डर लगना चाहिए और डर आम लोगों को भी लगना चाहिए. हम एक दोस्ताना फौज हैं. लेकिन जब हमें कानून व्यवस्था को पटरी पर लाने की ज़िम्मेदारी दी जाती है, तब लोगों को हमसे डर लगना चाहिए.”
जनरल रावत सेनाध्यक्ष आज बने हैं, सेना पहले से है और उनके बाद भी रहेगी. देशवासियों (और उनमें से जो दंगाई हैं, उनके भी) के दिल में सेना के लिए भय नहीं आदर होना चाहिए. भय सिर्फ दुश्मनों के मन में होना चाहिए.
5. राजनीति शास्त्र पढ़ाने वालों में चोटी का नाम है पार्था चैटर्जी (इनकी किताबें पढ़कर लोग इसी देश में आईपीएस और आईएएस बनते हैं). इन्होंने जनरल रावत की तुलना जनरल डायर से की थी. तब जनरल रावत ने कहा था कि चैटर्जी ने कहीं और से प्रतिक्रिया पाने के लिए ऐसा कहा था. मैं एक फौजी हूं, मुझे ऐसी-वैसी बातों से फर्क नहीं पड़ता. जनरल रावत को फर्क पड़ना चाहिए था. जनरल डायर एक ऐसी फौज के अफसर थे जो निहत्थे लोगों पर गोलियां चलाती थी. जनरल रावत उस फौज के अफसर हैं जो माइनस 50 डिग्री में 24 घंटे पहरा देती है ताकि कोई किसी निहत्थे पर हथियार उठाने की न सोच सके.
जनरल रावत ने 26 दिसंबर वाले बयान में बार-बार लीडर शब्द का प्रयोग किया. फौज में ये शब्द नेतृत्व के संदर्भ में भी काम में लाया जाता है और नायक होने के संदर्भ में भी. अगर यूनिवर्सिटी के ‘दंगाई’ छात्र नायक नहीं हैं, तो क्या उन्हें नायक नहीं कहा जा सकता जो इस देश की गौरवशाली गांधीवादी परंपरा के तहत शांतिपूर्ण और रचनात्मक तरीके से नागरिकता संशोधन कानून का विरोध कर रहे थे? और अगर जनरल अपने फौजी होने के चलते ही अराजकता पर खफा हैं तो उन्हें उन पुलिस अफसरों और जवानों को भी लीडरशिप पर लेक्चर पिलाना चाहिए था जो जामिया मिल्लिया इस्लामिया की सेंट्रल लाइब्रेरी में तोड़फोड़ करते हैं, गेट नंबर आठ के अंदर बनी मस्जिद में भी तोड़फोड़ करते हैं. फौज में मंदिर परेड और गुरुद्वारा परेड होती है जिसमें जनरल रावत असंख्य बार शामिल हुए होंगे. क्या ऐसे में जनरल को मस्जिद में हुई तोड़फोड़ किसी भी सूरत में जायज़ लगी होगी? मेरा दिल कहता है – नहीं. उन्हें बुरा लगा होगा. लेकिन बुरा लगा तो वो बोले क्यों नहीं, ये जनरल ही बता सकते हैं. (वैसे मैं ये भी नहीं चाहता कि वो रिटायर होने से पहले इस बारे में कुछ बोलें).
अब जनरल रावत के बयान को एक तरफ रखते हैं और मोदी सरकार पर आते हैं. सिविल-मिलिट्री रिलेशनशिप की लाज रखने की जो उम्मीद फौज से की जाती है, वो मोदी सरकार से भी की जाती है. फिर क्यों मोदी सरकार अपने अधिकार क्षेत्र में एक जनरल के पैर रखने पर चुप है?
मोदी सरकार की चुप्पी कितनी गंभीर है ये जानने के लिए हमें थोड़ा पीछे जाना होगा. अगस्त 1998. रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नान्डिस शिकायत करते हैं कि चीफ ऑफ नेवल स्टाफ एडमिरल विष्णु भागवत ऐसे काम कर रहे हैं जिससे राष्ट्रीय सुरक्षा को नुकसान पहुंचता है. एडमिरल विष्णु पर 5 और आरोपों की बात हुई –
– कि उन्होंने सीधे पाकिस्तानी उच्चायोग से बात कर ली,
– कि उन्होंने रॉ की खुलेआम आलोचना की,
– कि वो सिविल अथॉरिटी को मानते नहीं थे,
– कि उन्होंने वाइस एडमिरल सुशील कुमार द्वारा भेजी फाइलें रक्षा मंत्री को नहीं बढ़ाईं, और
– कि वो वाइस एडमिरल हरिंदर सिंह की नियुक्ति रोकने के लिए नियमों से परे चले गए, जबकि उनके नाम की सिफारिशि अपॉइंटमेंट कमेटी ऑफ कैबिनेट (ACC) कर चुकी थी.

इन आरोपों में कितना दम था, ये जानने के लिए आप कुलदीप नैयर का वो लेख पढ़ सकते हैं जो 9 जनवरी, 1999 को रीडिफ डॉट कॉम पर छपा था. कुलदीप बताते हैं कि पहले चार आरोपों में लगभग कोई दम नहीं था. लेकिन ये बात सही थी कि एडमिरल भागवत ने वाइस एडमिरल सुशील कुमार की भेजी कम से कम छह चिट्ठियां रक्षा मंत्री तक नहीं पहुंचाईं. कुलदीप कहते हैं कि ये अपराध था भी, तो सिर्फ चेतावनी लायक. रही बात वाइस एडमिरल हरिंदर सिंह की तो तत्कालीन कैबिनेट सेक्रेटरी प्रभात कुमार को भेजे खत में एडमिरल भागवत ने लिखा था,
”कैबिनेट सेक्रेटरी के माध्यम से पूरे आदर के साथ अपॉइंटमेंट कमेटी ऑफ कैबिनेट (ACC) के सदस्यों को सूचित किया जाता है कि चीफ ऑफ नेवल स्टाफ ने कभी ऐसा नहीं कहा कि ACC की सिफारिशों का पालन नहीं होगा. ”
कुलदीप बताते हैं कि कैबिनेट की सिफारिश पर इसलिए अमल नहीं हो सकता था कि वो इंडियन नेवी एक्ट 1975 के खिलाफ जाता थी. एडमिरल भागवत महज़ इन नियमों की तरफ ACC का ध्यान दिला रहे थे.
लेकिन 26 दिसंबर 1998 को फर्नान्डिस ने ACC को 20 पन्नों का एक खत लिखकर एडमिरल भागवत को पद से हटाने हेतु कारण गिनाए. 28 दिसंबर को कैबिनेट कमेटी ऑन सेक्योरिटी एडमिरल को हटाने का फैसला कर लेती है और ACC को ज़रूरी कार्रवाई करने को कहती है. 30 दिसंबर 1998 को एडमिरल नौसेना मुख्यालय पहुंचते हैं तो उन्हें बताया जाता है कि उन्हें पद से हटा दिया गया है. 15 मिनट बाद दक्षिण नौसेना कमान के फ्लैग ऑफिसर कमान्डिंग इन चीफ सुशील कुमार नौसेना मुख्यालय पहुंचकर नौसेना प्रमुख का चार्ज ले लेते हैं.
ये तब भारत के इतिहास में इकलौता उदाहरण था (और आज भी है) कि जब एक सेना प्रमुख को इस तरह हटाया गया हो. एडमिरल भागवत नौसेना प्रमुख होने के साथ-साथ चीफ्स ऑफ स्टाफ कमेटी के भी अध्यक्ष थे. माने तीनों सेनाध्यक्षों में सबसे वरिष्ठ. खूब विरोध हुआ, विपक्ष के साथ-साथ एनडीए की सहयोगी एआईएडीएमके की जयललिता ने भी एडमिरल भागवत को इस तरह हटाए जाने की आलोचना की. लेकिन वाजपेयी एडमिरल भागवत को बर्खास्त करने पर इतना कहकर निकल लिए, “deliberate defiance of the established system of cabinet control over the defence forces.” माने सेना पर चुनी हुई सरकार के नियंत्रण के सिद्धांत और ढांचे की जानबूझकर अवहेलना करना. और वाजपेयी ने एडमिरल भागवत को सिर्फ हटाया ही नहीं. उन्होंने वाइस एडमिरल हरिंदर सिंह की उस पार्टी में भी हिस्सा लिया जो उन्होंने नए साल के स्वागत में अपने अंडमान वाले हेडक्वार्टर में रखी थी. ये साफ बता रहा था कि सरकार किस तरफ खड़ी है. एडमिरल भागवत के साथ-साथ रक्षा सचिव अजीत कुमार को भी हटा दिया गया था.
आखिर तक वाजपेयी सरकार बता ही नहीं पाई कि एडमिरल भागवत ने राष्ट्रीय सुरक्षा को नुकसान पहुंचाया कैसे था. वाजपेयी की सरकार चली गई. फिर वाजपेयी भी चले गए.
एक और बात है. एडमिरल भागवत का मामला अपवाद नहीं था. 26 दिसंबर, 2019 को द प्रिंट में छपे अपने लेख में लेफ्टिनेंट जनरल एच एस पनाग (ले.ज. पनाग सेना की उत्तरी कमान के जीओसी रह चुके हैं. यही कमान कश्मीर में पत्थर और गोलियां खाती है, हिमस्खलन के नीचे दबती है.) बताते हैं कि वाजपेयी सरकार के दौरान ही एयर मार्शल मनजीत सिंह सेखों ने एक मुख्यमंत्री को चिट्ठी लिखी थी. एयर मार्शल सेखों चाहते थे कि सीएम साहब उनकी सिफारिश कर दें ताकि वो पश्चिमी वायु कमान के एयर ऑफिसर इन चीफ बन सकें. एयर मार्शल सेखों ऐसा करके वायुसेना प्रमुख बनने की अंतिम सीढ़ी चढ़ना चाहते थे. लेकिन चिट्ठी की बात लीक हो गई और एयर मार्शल सेखों से इस्तीफा देने को कह दिया गया, जो उन्होंने 19 मार्च, 2002 को दिया भी. इस्तीफा लेने वाली सरकार के प्रधानमंत्री कौन – एक बार फिर अटल बिहारी वाजपेयी.

अगर तब कैबिनेट के मामलों में एक सेनाध्यक्ष के दखल देने को लेकर वाजपेयी जैसा संयम का धनी प्रधानमंत्री इतना नाराज़ हो सकता है कि उसे पद से हटा दे, तो मोदी जी तो ज़ीरो टॉलरेंस की पॉलिसी रखते हैं. वो जनरल रावत के साथ क्या करेंगे? क्योंकि कैबिनेट के काम में तो रावत ने भी दखल दे ही दिया है. क्या मोदी सरकार की चुप्पी की वजह ये है कि जनरल रावत पर्दे के पीछे से उसका पक्ष ले रहे हैं?
आखिर वो क्या जल्दी थी कि उत्तराखंड भाजपा के ट्विटर हैंडल से ऐन उसी दिन जनरल रावत को सीडीएस बनने की बधाई मिल गई जिस दिन उनके बयान पर बवाल मच रहा था? और सबसे बड़ा सवाल ये, कि क्या इन आरोपों में ज़रा भी सच्चाई है कि जनरल रावत ये सब सीडीएस पद के लिए कर रहे हैं?
2019 में लौटते हैं. जनरल रावत ‘अकेले’ नहीं हैं. सेना की पूर्वी कमान के जनरल ऑफिसर कमांडिंग इन चीफ, लेफ्टिनेंट जनरल अनिल चौहान ने 14 दिसंबर को कोलकाता में एक सार्वजनिक मंच से कहा था,
”मौजूदा सरकार काफी समय से लंबित पड़े मामलों में सख्त निर्णय ले रही है. पूर्वोत्तर के कुछ मुख्यमंत्रियों के विरोध के बावजूद नागरिकता संशोधन विधेयक पास किया गया. अब ये कयास लगाना गलत नहीं होगा कि वामपंथी उग्रवाद को लेकर भी कुछ सख्त कदम उठाए जाएंगे.”
हाल ही में रिटायर हुए पूर्व वायुसेना प्रमुख धनोआ भी सार्वजनिक तौर पर राफेल के पक्ष में बयान देते रहते थे.
एक लेफ्टिनेंट जनरल मुख्यमंत्रियों के विरोध पर टिप्पणी करते हैं, एक एयर चीफ मार्शल एक विवादित रक्षा खरीद में सरकार के पक्ष में खड़े नज़र आते हैं. लेकिन हर जगह सोल्जर हो जाता है. कोई कुछ नहीं बोलता.
मैं चाहता हूं कि यहां ज़ाहिर की गईं सारी चिंताएं निराधार साबित हों और जनरल रावत और देश के पीएम और उनका कैबिनेट बिलकुल सच्चे और पवित्र साबित हों. लेकिन जब तक ऐसा हो नहीं जाता, तब तक सवाल ऐसे ही बने रहेंगे.
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पुनश्चः बाकी लोग तो अपने बुज़ुर्गों से सीखते नहीं. लेकिन जनरल रावत को ये गलती नहीं करनी चाहिए. उन्हें चाहिए कि वो रिटायर होने तक का इंतज़ार करें. वैसे ही, जैसे जनरल वीके सिंह ने कर लिया था. उसके बाद जैसे उनके उनके दिन फिरे, इनके भी फिर जाएंगे.
स्रोतः
1. फारूक अहमद डार –
https://aajtak.intoday.in/story/farooq-dar-used-as-human-shield-in-kashmir-is-unemployed-depressed-boycotted-1-995189.html
2. जनरल रावत के विवादित माने गए बयान –
https://www.indiatoday.in/fyi/story/bipin-rawat-army-chief-kashmir-stone-pelting-indian-army-controversy-982328-2017-06-12
3. एडमिरल भागवत की बर्खास्तगी पर वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर का लेख –
https://www.rediff.com/news/1999/jan/09nayar.htm
4. एडमिरल भागवत की बर्खास्तगी को लेकर प्रधानमंत्री वाजपेयी का बयान –
https://www.indiatoday.in/magazine/cover-story/story/19990111-naval-chief-admiral-vishnu-bhagwat-sacked-for-defiance-of-civilian-authority-779870-1999-01-11#ssologin=1#source=magazine
5. लेफ्टिनेंट जनरल अनिल चौहान, एयर मार्शल सेखों का इस्तीफा और एयर चीफ मार्शल धनोआ के बयानों पर लेफ्टिनेंट जनरल एच एस पनाग (सेवानिवृत्त) का लेख –
https://theprint.in/opinion/indian-military-isnt-politicised-like-china-pakistan-but-the-seeds-have-been-sown-in-2019/340910/
चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ बिपिन रावत ने CAA प्रोटेस्ट पर जो कहा, उसमें दिक्कत कहां है ?