ये आर्टिकल दी लल्लनटॉप के लिए ताबिश सिद्दीकी ने लिखा है.
2004 का भारत. इंडिया-पाकिस्तान के बीच क्रिकेट सीरीज चल रही थी. मेरे दोस्त और उसके अंकल ने लाहौर जा कर मैच देखने की सोची. मुझे भी उसने बोला, मगर मैं अपने कामों की वजह से न जा सका. पाकिस्तान सरकार ने वीज़ा इतनी अधिक मात्रा में बांट दिए थे कि वाघा बॉर्डर पर एकदम अफरा-तफ़री मची थी. वीज़ा की लाइन से बाहर निकलने पर मेरा दोस्त लगभग बीस मिनट तक बेहोशी जैसी हालात में था. बॉर्डर पार करने के लिए उन्हें लगभग ऐसी जद्दोजहद करनी पड़ी जैसे ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से बॉर्डर पार किया हो.
बहरहाल, लाहौर पहुंचने से पहले उनके भीतर पाकिस्तान को लेकर बड़ी शंकाएं और सवाल थे. मगर वहां की गलियों में घूमने और लोगों से मिलने-जुलने के बाद उन्हें लगने लगा कि जैसे वो हिंदुस्तान में ही हैं. इस बात ने उन्हें वहां वैसे ही सहज बना दिया, जैसे वो भारत में होते थे. लाहौर में मेहमाननवाज़ी का ये आलम था कि वहां की गलियों में स्ट्रीट फ़ूड खाते हुए अगर दुकानदारों को पता चलता कि ये लोग भारतीय हैं, तो वो पैसा नहीं लेते थे.

रात को होटल के मालिक ने आ कर पूछा कि क्या आप लोग ड्रिंक करते हैं? हां में जवाब मिलने के बाद उसने मेरे दोस्त के कमरे में कहीं से जुगाड़ करवा के शराब भिजवाई, जबकि उस होटल में वैसे शराब नहीं बेची जाती थी.
मेरा दोस्त और उसके अंकल जितने भी लोगों से मुलाक़ात करते जा रहे थे, उतने ही प्रभावित होते जा रहे थे. धर्म और नफ़रत को लेकर जैसी धारणा उनके मन में थी, वहां उस सब का उलटा ही हो रहा था. किसी ने उनको वहां ये महसूस ही नहीं होने दिया कि वे हम अलग धर्म के हैं.

इतने अच्छे बरताव से अभिभूत मेरा दोस्त और उसके अंकल मैच ख़त्म होने के बाद लाहौर की सड़कों पर घूम रहे थे, तभी शोर शुरू हुआ. देखने पर पता चला कि लोग जुलूस निकाल रहे हैं और तोड़फोड़, आगज़नी कर रहे हैं. सड़कों पर जलते हुए टायर फेंके जा रहे थे. लोग अल्लाह हु अकबर के नारे लगा रहे थे. पता चला कि दूर विदेश में कहीं किसी ने मुहम्मद साहब का कार्टून बना दिया है. ये हिंसक प्रदर्शन उसी के विरोध में हो रहा है.

मेरा दोस्त किसी तरह जल्दी से होटल पहुंचा. होटल पहुंचने पर पता चला कि बाहर हालात बदतर होते जा रहे हैं. कब क्या हो जाए किसी को कुछ पता नहीं था. मेरे दोस्त को लगा कि अगर यहां फंस गए. तो फिर निकलना मुश्किल हो जाएगा. उनको घबराया हुआ देखकर होटल के मालिक ने ढाढस बंधाया. कहा कि वो उनको बॉर्डर तक सुरक्षित पहुंचवा देंगे. उसने एक टैक्सी वाले को बुलाया और ऐसे जोखिम भरे समय में इन लोगों को बॉर्डर तक छोड़ने को बोला. मेरा दोस्त बताता है कि उस टैक्सी वाले ने अपनी जान पर खेलकर उस हिंसक माहौल में उन्हें बॉर्डर तक पहुंचाया. वो लोग उस हादसे से इतनी बुरी तरह सहम गए कि लाहौर में उनके साथ हुए भाईचारे के व्यवहार को लगभग भूल ही गए.

बॉर्डर पर पहुंचकर जब मेरे दोस्त ने उसको धन्यवाद कहा और पैसे देने की कोशिश की, तो उसने इंकार कर दिया. कोई किराया नहीं लिया. ये बात मेरे दोस्त को बहुत भीतर तक छू गयी. जो प्यार और अपनापन उन्हें लाहौर में मिला था, अचानक याद आ गया. वहां से आने के बाद मेरा दोस्त इतना भावुक हो गया था कि काफी दिनों तक उन बातों को बताते-बताते उसकी आखों में आंसू आ जाते थे.
इस सच्ची घटना को बताने के पीछे मेरा एक मकसद है. आपको ये बताना कि कैसे जब आम इंसान, आम ज़िंदगी में, आम लोगों से मिलता है तो वहां रिश्तों के सारे तार इंसानियत और हमारे मानव होने को आधार बना कर जुड़ते हैं. और वो कहीं भी हो, भारत में, पाकिस्तान में या ब्रिटेन में. मगर जैसे ही उन लोगों की भीड़ से आपका सामना होता है जो किसी विचारधारा को लेकर सड़कों पर टायर जलाते हैं, हिंसा करते हैं और भय फैलाते हैं, तो वो सब यादें जो आपने उस समाज के आम लोगों से इकठ्ठा की होती है, अचानक कहीं पीछे छूट जाती है.
राम-रहीम के समर्थकों ने जो कल किया वो वही है, जो मेरे दोस्त के साथ लाहौर में हुआ था. ये उसी तरह की घटना है. गुडगांव और पंजाब में बैठी विदेशी कंपनियों के लोग क्या सोच रहे होंगे? वो हिंदू धर्म के बारे में क्या राय बना रहे होंगे? अपने यहां जा कर क्या बताएंगे लोगों को?
ये सिर्फ एक घटना नहीं है, बीते कुछ सालों में कई बार ऐसा हो चुका है. और ये उसी तरह की घटनाएं हैं जैसी पाकिस्तान के लाल मस्जिद में हुई थी. पाकिस्तान में ऐसे ही स्टेट अपने धार्मिक गुरुओं पर नियंत्रण नहीं करता था. कितने बुरे हालात बने हैं वहां. यहां भी रामपाल, आसाराम, राम रहीम जैसे गुरुओं की शक्ति इतनी बढ़ जाती है कि वो पूरे देश और सरकार से अकेला लोहा लेने का सोच लेते हैं. वो मुहम्मद के नाम पर ऐसा सोच लेते हैं, यहाँ गुरु, राष्ट्र और संगठन के नाम पर ऐसा सोच लिया जा रहा है.

यहां संगठन और मठ सरकार से बड़े हुए जा रहे हैं. पाकिस्तान में मदरसे बड़े हो जाते हैं, यहाँ मदरसे ऐसे कभी इसलिए नहीं हो सकते हैं, क्योंकि उन्हें स्टेट का कोई सपोर्ट नहीं होता. उलट उनकी हर एक गतिविधि पर निगाह रहती है सरकार की. मगर जो सरकार मदरसों को लेकर इतनी चौकन्नी रहती है, वो मठों को लेकर उदासीन, ढीली रहती है. वो भी सिर्फ इसलिए क्योंकि इन मठों और संगठनों में वो ही नारे लगाए जाते हैं, जो सरकार के मुखिया लोगों के दिलों में बसते हैं.
ये नारे लगते ही इसलिए हैं क्योंकि इनसे उपजी भावनाओं के पीछे असल खेल छिपाया जा सके. ISIS अपने झंडे पर इसीलिए कलमा लिखता है, ताकि आम मुसलमान की भावनाओं से खेला जा सके. आतंकी संगठन स्वयं के नाम को धार्मिक प्रतीकों से जोड़ते हैं, ताकि वो छिप सकें आम लोगों के दिलों में. यहां भी अब जिसे अपना उल्लू साधना होता है, वो अपने आपको राम से जोड़ देता है.
मेरे दोस्त का दिल जीत लिया लाहौर के लोगों ने, मगर अगले ही पल उसको ऐसा अहसास भी दे दिया जिससे वो सहम गया. लाहौर के लोग खुद भी न समझ पाए कि ये हो क्या रहा है, मगर ये सब कुछ उन्ही लोगों का किया धरा था. अपने देश के ऐसे धर्मान्धों, मदरसों, उपद्रवियों और संगठनों को उन्होंने ही सदैव मौन समर्थन दिया. इसी का नतीजा है कि इतने प्यार और मुहब्बत के बाद भी मेरा दोस्त दोबारा पाकिस्तान जाने की हिम्मत न कर सका.

भारत इसी रास्ते पर चल निकला है. आप चेतिए. मैं अपने धर्म की कुरीतियों की बुराई इसलिए नहीं करता हूं कि लोग वाहवाही करें. बल्कि इसलिए करता हूं कि मेरे समाज के लोग किसी दूसरे देश से आए लोगों या यहीं रहने वाले लोगों को कभी ऐसे न दहला दें, जैसे लाहौर में मेरा दोस्त दहल गया था.
चेतिए इस से पहले कि देर हो जाए. देश में मदरसे नहीं, मठ और संगठन सरकार से शक्तिशाली हो चुके हैं. सरकार पर दबाव बनाईए कि वो वहां निगरानी रखे.
ताबिश एक मुखर विचारक हैं. अपनी लॉजिकल सोच की वजह से फेसबुक पर फेमस हैं. इसी वजह से आसपास के कट्टर धार्मिक विचारधारा वाले लोगों के निशाने पर रहते हैं. ताबिश का मानना है कि सबसे पहले खुद के घर से शुरुआत करनी चाहिए. इसीलिए अपने ही मज़हब की कुरीतियों पर खुलकर लिखते हैं. फेसबुक पर फॉलोअर्स और विरोधक समान मात्रा में हैं इनके. अक्सर दोनों तरफ के कट्टरपंथियों के निशाने पर रहते हैं.
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