एक कविता रोज: 'निगाह की पहनाई क्या सिर्फ़ तुम्हें आती है?'
आज पढ़िए अनुराग वत्स को.
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12 मई 2016 (अपडेटेड: 12 मई 2016, 08:19 AM IST)
'निगाह की पहनाई क्या सिर्फ़ तुम्हें आती है?'
अनुराग वत्स -
तो तुम सिगरेट इसलिए पीते रहे?
हां, बिलकुल.
हद है! तब पूरे पागल थे क्या?
फ़र्क कर लो.
और तुम्हें क्या लगा कि मैं तुम्हें मना ही करूंगी? क्या होता गर मैं भी पीती?
कुछ नहीं. मैं छोड़ देता.
उफ्फ़! एक बात बताओ, मेरे इतने डिटेल्स कैसे याद रख सके, जबकि कितना कम देखना होता था हमारा?
आसान रहा यह मेरे लिए.
कैसे?
मैं तुम्हारी निगाह पहन लेता था.
हाहाहा...लोग टोकते नहीं थे?
हां, पर उनकी परवाह कौन करे. तुम अपनी फेवरेट ख़ुद को बताती रही करीना की तरह, तो मुझे लगा, अपनी निगाह से तुम्हें देखना कम देखना होगा. तुम्हें पता है, मुझे यह फ्लर्ट कितनी अच्छी लगती थी?
ओहो! पता होता तो कम करता.
एक लड़की के लिए जो यह बहुत नहीं सोच पाती कि उसे कोई देखने लायक भी मानता है, तुम क्या-क्या नहीं कहते रहे. यह मेरे लिए सबसे कम फ़िल्मी था क्योंकि तुम्हारी आवाज़ किसी परदे से नहीं निकलती थी. उसे मैं अपने रोओं पर रेंगता हुआ महसूस कर सकती थी.
तुम आज मुकाबले में हो.
मैंने भी पहली दफ़ा तब अपने लिबास से ज़्यादा तुम्हारी निगाह पहनना ज़रूरी समझा.
अच्छा, फिर तुम्हारे साथ तो बड़ी छेड़-छाड़ हुई होगी?
नाह, तुम क्या समझे, निगाह की पहनाई सिर्फ़ तुम्हें आती है?
अरे नहीं.
मेरा कभी न कहना मानने वाले बालों को मैंने अपने कन्धों पर 'हलके खुले बाल' की तरह उससे पहले कभी नहीं देखा था. एक बात बताओ, क्या तुम इस तरह शुरू हुई?
शायद इससे पहले.
कब से?
जब से तुम्हारी आवाज़ के लिए जगह बनाना शुरू किया, तब से.
तुम्हें पहला वाक्य याद है?
हां, वह तुम्हारा दनदनाता हुआ-सा मेल जिसका सब्जेक्ट रोमन में लिखा 'तुम' था और टेक्स्ट: मुझे एक भूली हुई भाषा की तरह मिली जिसे खोना नहीं चाहता.
अजब है, तुम इसे सुन सकी?
हां, मेरे कान तुम्हारी आवाज़ चख चुके थे. इसलिए तुमने जो लिखा उसे बाद के दिनों में पढ़ा कम, सुना ज़्यादा. ***