
अविनाश मिश्रा
अविनाश मिश्र मेरे कुछ ही गिने चुने साहित्यिक मित्रों में से एक हैं, या केवल एकमात्र हैं. बाकी मित्र या तो साहित्य वाले नहीं हैं या बाकि साहित्य वाले, मित्र नहीं हैं. होने को ‘साहित्य वाला’ कहने से अविनाश को आपत्ति हो सकती है, लेकिन मैंने उनसे कुछ भी लिखने की ‘आज़ादी’ की ‘आज्ञा’ ले रक्खी है. अस्तु…
05 जनवरी, 1986 को जन्मे अविनाश की ‘अज्ञातवास की कविताएं’ शीर्षक से कविताओं की पहली किताब साहित्य अकादेमी से गए बरस छपकर आई है. ‘नए शेखर की जीवनी’ प्रकाशनाधीन है. आज उनके माध्यम से कबीर को पढ़िए एक कविता रोज़ में. ओवर टू अविनाश:
प्रिय पाठको,
एक कविता रोज़ में आज बातें घनानंद की.
घनानंद हिंदी साहित्य के रीतिकाल की आजाद धारा के कवि हैं. श्रृंगार रस को प्रमुखता से अपनी कविता में बरतने वाले घनानंद कृष्ण की भक्ति उनकी सखी-सहेली होने के भाव से करते हैं. घनानंद की आसक्ति और विरक्ति दोनों ही उल्लेखनीय हैं. कहते हैं कि वह बहादुरशाह के मीर मुंशी थे और वहीं पर सुजान नाम की एक डांसर से उन्हें प्यार हो गया. जिंदगी से जुड़े धुंधले तथ्यों के साथ साहित्य में मौजूद घनानंद की कविताओं का एक बड़ा हिस्सा सुजान को ही संबोधित है. सुजान के बारे में भी ज्यादा जानकारियां नहीं मिलती हैं. हालांकि कुछ सूचनाएं यों बताती हैं कि सुजान के प्यार में चोट खाकर ही घनानंद वैरागी हुए. आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने 'घनानंद ग्रंथावली' संपादित की है, जिसमें घनानंद का वह काव्य-संसार मौजूद है जो किसी भी कवि को युगों तक यादगार बनाए रखने के लिए पर्याप्त है.
अब पढ़िए घनानंद की एक बहुत कोटेबल रचना :