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सर्वे में खुलासा: शादी के लिए पुरुषों को नौकरी करने वाली लड़की पसंद नहीं

नौकरीपेशा महिलाओं को मैट्रिमोनियल वेबसाइट पर कम पसंद किया जाता है.

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जो लड़कियां नौकरी नहीं करतीं उन्हें शादी के लिए सबसे ज़्यादा प्रेफर किया गया.

कई लोगों को बहुएं पढ़ी लिखी तो चाहिए, लेकिन नौकरी (Working Women) करने वाली नहीं. ये बात मैं नहीं, स्टडी कहती है. इसी स्टडी में सामने आया कि शादी (Marriage) के वक़्त नौकरी करने वाली लड़कियों को नापसंद करने की वजह क्या है?

दिवा धर नाम की एक लड़की है. ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी से पीएचडी कर रही है. अपनी थीसिस के लिए उन्होंने भारत के नौकरीपेशा वर्ग में महिलाओं की भागीदारी पर स्टडी की. दिवा ने कहा, 

"मैं देखना चाहती थी कि शादी के वक़्त जेंडर रोल्स कैसे काम करते हैं, कामकाजी महिलाओं पर इसका क्या असर होता है. जेंडर रोल्स यानी जेंडर के आधार पर जो काम तय किए जाते हैं. महिला है तो घर की ज़िम्मेदारी उसकी होगी, पुरुष है तो जॉब करना उसके हिस्से आएगा. मेरी उम्र की ज़्यादातर लड़कियां जो मेरी दोस्त हैं उन्होंने शादी के बाद या तो नौकरी छोड़ दी या काम का दायरा कम कर लिया है. मैं एक्सपेरिमेंट कर के ये समझना चाहती थी कि शादी से महिलाओं के करियर पर कोई असर पड़ता है क्या?"

एक्सपेरिमेंट के लिए दिवा ने मैट्रिमोनियल वेबसाइट (Matrimonial Sites) पर 20 फेक प्रोफाइल बनाई. सभी की प्रोफाइल्स में उम्र, लाइफस्टाइल, पसंद, हॉबी जैसी चीजें बिलकुल एक सी लिखी. फर्क बस नौकरी का था. नौकरी करती हैं, करना चाहती हैं, कितना कमाती है इन फैक्टर्स को अलग अलग रखा. दिवा ने अलग अलग कास्ट ग्रुप के लिए ये प्रोफाइल्स बनाई.

अब इस सैंपल को स्टडी कर के दिवा ने पाया-

- जो लड़कियां नौकरी नहीं करतीं उन्हें शादी के लिए सबसे ज़्यादा प्रेफर किया गया.
-सेकंड नंबर पर वो लड़कियां थी जो शादी के बाद नौकरी छोड़ने तैयार हैं. 
- जो लड़कियां शादी के बाद भी नौकरी करना चाहती हैं उनकी प्रोफाइल्स को कम पसंद किया गया.

एक और इंटरेस्टिंग फैक्ट सामने आया. यहां फैक्टर सैलरी था.

-नौकरी करने वाली लड़कियों में जिनकी सैलरी ज़्यादा थी उनको कम सैलरी वालों की  तुलना में ज़्यादा पसंद किया गया.
- लड़के से ज़्यादा सैलरी वाली लड़कियों को 10% कम पसंद किया गया .
-जिन लड़कियों की सैलरी लड़कों से कम थी उनको 15% ज़्यादा पसंद किया गया.

इन फाइंडिंग्स के बाद दिवा ने सैंपल साइज़  के साथ स्टडी की. इसमें फरज़ाना अफरीदी और कनिका महाजन ने भी साथ दिया और उसमें भी यही रिजल्ट आया.

निष्कर्ष के रूप दिवा ने पाया,

शादी के वक़्त वर्किंग वुमन को उसके कामकाजी होने का खामियाजा भुगतना पड़ता है. नौकरीपेशा महिलाओं को मैट्रिमोनियल वेबसाइट पर कम पसंद किया जाता है. शादी के इस चलन के कारण लेबर फ़ोर्स में महिलाओं की भागीदारी पर असर पड़ता है और ये भी एक वजह है भारत में कामकाजी महिलाओं की संख्या कम होने की.

अब जब बात लेबर फ़ोर्स पार्टिसिपेशन की निकली ही है तो ज़रा इससे जुड़े डेटा पर भी नज़र डाल लेते हैं.

कल ही नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस (एनएसओ) ने लेबर फोर्स सर्वे का डेटा जारी किया था. सर्वे में बताया गया कि 15 वर्ष से ऊपर की कामकाजी जनसंख्या में महिलाओं की भागीदारी 28.7 प्रतिशत है, जबकि पुरुषों की भागीदारी 73 प्रतिशत है.

फैक्ट्स, डेटा और आंकड़ों की बात तो हो गई. अब ज़रा रियल लाइफ एग्जांपल्स की ओर रुख करते हैं.

शादी के वक़्त लड़की की नौकरी और शादी के बाद नौकरी करने की इच्छा के बारे में ज़रूर पूछा जाता है. कई परिवार पढ़ी लिखी बहू लाना तो चाहते हैं पर वो शादी के बाद उनके नौकरी करने के पक्ष में नहीं होते. तर्क दिया जाता है कि उनका परिवार संपन्न है, नौकरी की क्या ज़रूरत है. ये भी समझा जाता है कि नौकरी करने वाली लड़की को घर संभालने का कम वक़्त मिलेगा, जिससे घर के कामों में दिक्कत आएगी. क्यूंकि भारत के ज़्यादातर हिस्सों में आम धारणा यही है कि घर संभालना महिलाओं का काम है. कई लोग ये भी कहते हैं कि नौकरी करने अगर बहू घर के बाहर जाएगी, उसके हाथ में पैसे होंगे तो वो घर वालों को कुछ समझेगी नहीं. इसके पीछे की भावना होती है कि लड़की इंडिपेंडेंट होगी. वो अपने लिए खुद फैसले लेंगी और इससे उसपर उनका अधिकार कम होगा. लड़कियों और बहुओं को घर की इज्ज़त का नाम दिया जाता है. लड़की का नौकरी करने घर के बाहर जाना घर वालों की इज्ज़त का बाहर जाने जैसा देखा जाता है. वो बाहर जाएंगी तो उनकी मोबिलिटी अधिक होगी, लोगों से बातचीत और संपर्क बढ़ेगा. उनकी सुरक्षा का हवाला भी दिया जाता है. अगर उन्हें बाहर कुछ हो गया तो परिवार की क्या इज्ज़त  रह जाएगी. 

पुरुषों के मामले में ये फैक्टर्स काम नहीं करते. 

दूसरा पहलू यह भी है कि पति की कमाई कम है और पत्नी की सैलरी कई गुना ज़्यादा है तब मान लिया जाता है कि घर चलाने के लिए महिला का काम करना ज़रूरी है. लेकिन तब भी महिला से ये उम्मीद रखी जाती है कि नौकरी से लौटकर वो घर का काम करे. बेसिकली इस केस में वो सोने की मुर्गी होती है.

एक और फैक्टर भी यहां काम करता है. लड़की काम क्या करती है इससे भी बड़ा फर्क पड़ता है. टीचर या बैंक की नौकरी है तो ज़्यादतर लोगों को दिक्कत नहीं होती. नौ से पांच की नौकरी है. सुबह जाने से पहले और आने के बाद महिला घर की ज़िम्मेदारी निभा सकती है. त्यौहार पर छुट्टियां होती है और काम भी बच्चों और महिलाओं के बीच ही होता है. ऐसी नौकरी में महिला को रात में देर तक बाहर नहीं रहना होता. इसलिए हमेशा कहा जाता है कि लड़कियों के लिए ये दो प्रोफेशन सबसे अच्छे हैं.

कारण बहुत गिनाए जाते हैं लेकिन गौर से देखेंगे तो पाएंगे कि सभी की जड़ें पितृसत्ता से जुड़ी हैं. जब ये तर्क दिया जाता है कि परिवार संपन्न है, उन्हें बहू से नौकरी नहीं करानी तब ये समझने की ज़रूरत है कि महिला पैसे के लिए किसी पर आश्रित होगी? 

नौकरी कर के भले ही उसके हाथ में आपकी नज़र में कम पैसे आएं, पर उसके हाथ में पैसे होना उसे लिबरेट करता है. किसी भी तरह की आज़ादी के लिए ज़रूरी है कि एक लड़की आर्थिक रूप से आज़ाद हो. उसे पैसों के लिए किसी के सामने हाथ न फैलाना पड़े. जब एक महिला आर्थिक रूप से आज़ाद होती है, वो अपने बारे में सोचती है, ठीक उसी तरह जैसे एक पुरुष सोचता है. मैं घर जाऊं, मुझे खाना पका हुआ मिले, मेरा घर साफ-सुथरा मिले. मैं घर में कुछ पल सुकून के बिता सकूं. अपने परिवार और बच्चों को वक्त दे सकूं, बिना किसी टेंशन के. एक पुरुष के लिए ये चीज़ें एकदम आम है. लेकिन एक महिला का ऐसा सोचना उसे बुरा बना देता है? ये भेदभाव क्यों?

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