पहला सवाल. क्या आपके लिए दोस्तों, घरवालों या ऑफिस में लोगों को न कहना बहुत मुश्किल है. भले ही आपका वो काम करने या बात मानने का एकदम मन न हो. पर कहीं वो बुरा न मान जाएं, इस डर से आप अपना मन मारकर हां बोल देते हैं. दूसरा सवाल. क्या आपको रिजेक्शन से बहुत डर लगता है? इसलिए आप आउट ऑफ़ द वे जाकर, उन लोगों को भी ख़ुश रखने की कोशिश करते हैं जो आपकी इतनी मेहनत डिजर्व नहीं करते?
मन मारकर दूसरों की बात मानते हैं? जानें इसके लिए क्या चीज जिम्मेदार है
बचपन के कुछ अनुभव बड़े होकर 'पीपल प्लीज़िंग' के लिए कैसे ज़िम्मेदार होते हैं?

तीसरा सवाल. क्या आप ख़ुद को दूसरों के मुक़ाबले बहुत कम समझते हैं. इसलिए आप जो भी काम करते हैं उसके लिए दूसरों का अप्रूवल और तारीफ आपके लिए ज़रूरी है? तभी आपको लगता है कि आप सही हैं. अगर इन सारे सवालों का जवाब हां है तो उसके पीछे एक वजह है. आप जो कर रहे हैं उसे कहते हैं पीपल प्लीज़िंग. यानी दूसरों की सहूलियत और खुशी आपके लिए, ख़ुद से ज़्यादा ज़रूरी है. ये एक साइकोलॉजिकल रिएक्शन है.
बचपन पीपल प्लीज़िंग के लिए कैसे ज़िम्मेदार होता है?इसके बारे में हमें बताया डॉक्टर श्वेता शर्मा ने.

बचपन हमारे व्यक्तित्व को पूरी तरह से प्रभावित करता है. इसलिए बचपन के ट्रॉमा का यहां बहुत बड़ा रोल है. जिन बच्चों को बचपन में ग्रुप प्ले से हटाया जाता है या जिनकी बात बाकी लोग नहीं सुनते, उनके साथ ऐसा ज़्यादा होता है. कुछ बच्चों में लीडरशिप का गुण होता है, कुछ उन्हें फॉलो करते हैं. वहीं कुछ बच्चे अपनी बात नहीं रख पाते या कुछ बच्चों में धैर्य नहीं होता. जिस वजह से ये बच्चे अपनी बात रखना नहीं जानते और जिद करते हैं या फिर ये बच्चे बिल्कुल शांत हो जाते हैं. दोनों स्थितियों में उस बच्चे को ग्रुप से बाहर कर दिया जाता है. उस बच्चे को क्लास में बार-बार अपमानित किया जाता है.
कई बार टीचर कुछ बच्चों को बाहर बिठा देते हैं या फिर पूरी क्लास से अलग बिठा देते हैं. उनको हाईलाइट कर दिया जाता है. यहां पर जब भी किसी बच्चे को एक ग्रुप से अलग किया जाता है. इससे उसके मन में भावना पैदा होती है कि 'मैं दूसरों से कम हूं'. इस कमतरी का एहसास उनके मन में बढ़ता चला जाता है. और वो धीरे-धीरे ये सीख जाते हैं कि अगर हमें ग्रुप का हिस्सा बनना है या समाज के साथ चलना है, या दोस्त बनाने हैं तो उनके जैसा व्यवहार करना जरूरी है.
ये बच्चे अपनी असफलता को नहीं समझ पाते हैं. न ही ये समझ पाते हैं कि उन्हें कुछ सीखने की जरूरत है. न ही वो अपने अंदर मौजूद अनोखी खूबियों को पहचान पाते हैं. उन्हें लगता है कि बाकी बच्चे सही हैं, इसलिए उन्हें अलग रखा गया है. ऐसे कुछ मामलों में बिहेवियर थेरेपी काम करती है. 'पीपल प्लीज़िंग बिहेवियर' के बढ़ने का सबसे बड़ा कारण है बिना अपने व्यक्तित्व को जाने किसी ग्रुप का हिस्सा बनना.
ऐसे लोगों को आप बहुत आसानी से समझ सकते हैं. ये लोग कभी किसी बात का विरोध नहीं करते. ये बड़ी आसानी से तालमेल बिठा लेते हैं. ये लोग हर प्लान और फैसले में हां बोलते हैं. इनकी तरफ से आपको कभी कोई दिक्कत नहीं होगी. ये लोग हमेशा आसानी से बात मान लेते हैं. कई बार ऐसे लोग सबके फेवरेट भी बन जाते हैं. दूसरा लक्षण ये है कि ये लोग भावनात्मक रूप से काफी अकेले होते हैं. देखने में आपको इनके बहुत सारे दोस्त दिखेंगे, लेकिन ये बेहद कम लोगों से जुड़ पाते हैं. ऐसे लोग भावनात्मक रूप से खाली होते हैं. समय के साथ ऐसे लोग एंग्जाइटी और डिप्रेशन के शिकार हो जाते हैं.
एंग्जाइटी तब ज्यादा होती है जब कोई चाहता है कि लोग उसे पसंद करें, 'कंपल्सिव बिहेवियर' और परफेक्ट होने की चाह में ये लोग एंग्जाइटी को और बढ़ावा देते हैं. डिप्रेशन तब होता है जब इनको ये एहसास होता है कि लोगों के बीच वो अपनी बात को नहीं रख पा रहे हैं. क्योंकि जब भी वो अपनी बात रखने की कोशिश करते हैं, उनमें आत्मविश्वास नहीं होता. आत्मविश्वास की कमी के कारण वो अपनी बात नहीं रख पाते. ऐसे में धीरे-धीरे डिप्रेशन होना शुरू हो जाता है. इस तरह के लक्षण 'पीपल प्लीज़िंग बिहेवियर' में दिखाई देते हैं.
इलाजसाइको थेरेपी 'पीपल प्लीज़िंग बिहेवियर' का सबसे असरदार इलाज है. 'साइको थेरेपी' की शुरुआत इस तरह के व्यवहार का कारण जानने से की जाती है. क्या बचपन का कोई ट्रॉमा है, या उनका व्यक्तित्व इस तरह का है, या उनके माता-पिता का व्यवहार ऐसा था. पहले कारण, फिर व्यक्तित्व और फिर मौजूदा लक्षणों को समझा जाता है. क्या ये सिर्फ साइकोलॉजिकल लक्षण हैं या शरीर पर भी इसके लक्षण दिख रहे हैं?
शारीरिक लक्षणों में एंग्जाइटी के लक्षण दिख सकते हैं. जैसे कि तेजी से दिल धड़कना, ब्लड प्रेशर की दिक्कत या कई बार बहुत ज्यादा खुशी भी दिखाई देती है. फिलहाल कौन से लक्षण दखाई दे रहे हैं इनको समझते हुए थेरेपी के लिए एक प्लान बनाया जाता है. जिसके मुताबिक इनके 'कॉगनिशन' (cognition) पर काम किया जाएगा.
'कॉगनिशन' (cognition) यानी सोचने समझने की शक्ति. कॉगनिशन में आप क्या महसूस कर रहे हैं, क्या सीख रहे हैं और दूसरों के साथ कैसे डील करेंगे देखा जाता है. वो सब कुछ जिसे दिमाग की 'हाइर फंगक्शनिंग' कहा जाता है, कॉगनिशन में शामिल होता है. ये गलत है कि किसी ग्रुप में शामिल होने के लिए लोगों के मुताबिक काम करना जरूरी है. वहां उन्हें सिखाया जाता है कि लॉजिक का इस्तेमाल करें. और ये समझाया जाता है कि ऐसा व्यवहार उन्होंने कहां से सीखा, इसका कारण क्या है और ये क्यों जरूरी नहीं है. उनके आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए अलग-अलग तरीके इस्तेमाल किए जाते हैं. ये सब 'बिहेवियर थेरेपी' का हिस्सा होता है. अगर 'साइको थेरेपी' का पूरा कोर्स किया जाए तो इस समस्या का इलाज मुमकिन है.
(यहां बताई गईं बातें, इलाज के तरीके और खुराक की जो सलाह दी जाती है, वो विशेषज्ञों के अनुभव पर आधारित है. किसी भी सलाह को अमल में लाने से पहले अपने डॉक्टर से ज़रूर पूछें. दी लल्लनटॉप आपको अपने आप दवाइयां लेने की सलाह नहीं देता.)
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