कौन हैं ये?
अलवर की हैं. हजूरीगेट हरिजन कॉलोनी में रहती थीं. बचपन से मैला ढोने का काम करती आ रही थीं. 10 की उम्र में शादी हुई. ससुराल आईं तो वहां भी मैला ढोने का ही काम करने लगीं. 2003 तक यही किया. लेकिन आज सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस आर्गेनाइजेशन की प्रेसिडेंट हैं.

कैसे पहुंचीं यहां तक?
उषा बताती हैं कि जब वो मैला ढोया करती थीं, तब उन्हें लोग बाज़ार से सब्जी भी खरीदने नहीं देते थे. उन्हें छूने से कतराते थे, और मंदिरों या घरों में घुसने नहीं देते थे. उन्होंने कहा था,
"कौन ऐसा घिनौना काम करना चाहेगा, इंसानों का मल हाथ से उठाना और फेंकना? ये हमारा काम नहीं था, ये हमारी ज़िन्दगी थी. हमें भी कूड़े की तरह ट्रीट किया जाता था."2003 में सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक डॉ. बिंदेश्वर पाठक अलवर आए. वो मैला ढोने वाले परिवारों के साथ काम करना चाहते थे. लेकिन कोई महिला समूह उनसे मिलने को तैयार नहीं था. बड़ी मुश्किल से एक महिला समूह को तैयार किया गया. महल चौक इलाक़े में महिलाएं इकट्ठा हुईं. उषा चौमर इस समूह की मुखिया थीं. बिंदेश्वर पाठक से मिलने के बाद उन्होंने मैला ढोने का काम छोड़ने की ठान ली. पापड़ और जूट से संबंधित काम करने लगीं. सिलाई करना, मेहंदी लगाना जैसे काम उन्होंने सीखे. इसमें सुलभ इंटरनेशनल के NGO नई दिशा ने उनकी मदद की.

किसलिए मिला है ये सम्मान?
उषा को ये सम्मान समाज सेवा के लिए दिया जा रहा है. उनकी वजह से अलवर में मैला ढोने वाली महिलाओं ने ये काम छोड़ा. साल 2010 तक अलवर की सभी मैला ढोने वाली महिलाएं उनसे जुड़ चुकी थीं. उन्होंने महिलाओं में जागरूकता फैलाई, साफ-सफाई के प्रति.
सम्मान मिलने पर क्या कहा?
"मैंने कभी नहीं सोचा था कि कभी मुझे मैला ढोने के काम से छुटकारा भी मिलेगा. लेकिन डॉक्टर पाठक ने मेरे लिए ये संभव किया. मैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से चार बार मिली हूं और मैंने उन्हें राखी भी बांधी है. किसी को भी मैला ढोने का काम करने पर मजबूर नहीं होना चाहिए. इससे छुआछूत को बढ़ावा मिलता है और इस काम को करने वालों को समाज नीची नज़रों से देखता है. मुझे सम्मान मिलने पर मेरे घरवाले बहुत खुश हुए हैं. उन्होंने कहा है कि मैंने पूरे अलवर का नाम रोशन कर दिया."आज उषा पांच देशों की यात्रा कर चुकी हैं. उनके तीन बच्चे हैं. दो बेटे हैं जो पिता के साथ काम पर जाते हैं, और बेटी ग्रेजुएशन के तीसरे साल में पढ़ाई कर रही है. अब उनके घर में कोई भी मैला ढोने का काम नहीं करता.
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