कहानी देवी से रानी तक
मणिपुर की ज़ोलियांग्लोंग कबीले के रोंग्मेई खानदान में जन्मीं थीं गाइदिन्ल्यू. साल था 1915. नगा नेता हाइपोउ तदोनांद (कई जगह जदोनांग लिखा मिलता है) रिश्ते में उनके भाई थे. तदोनांग ने 'हेराका' आन्दोलन की शुरुआत की थी. इसका मतलब होता है ‘शुद्ध’. इस आंदोलन को चलाने वाले, ब्रिटिश राज के अफसरों को भगा देना चाहते थे. उनका लक्ष्य था ‘नगा राज’ को पुनर्स्थापित करना. गाइदिन्ल्यू 13 साल की थीं जब वो तदोनांग के इस आन्दोलन से जुड़ीं. मगर तदोनांग इस मूवमेंट को आगे बढ़ाते, इससे पहले ही अंग्रेजों ने उन्हें फांसी दे दी. साल था 1932 और जगह थी इम्फाल.
उनके बाद उनकी विरासत संभाली गाइदिन्ल्यू ने. हेराका को मानने वाले लोगों के बीच उन्हें देवी चेराचमदिन्ल्यू का अवतार माना जाने लगा.

गुरिल्ला लड़ाई में वो दक्ष थीं ही, उन्होंने अपने लोगों को एक साथ जोड़कर ब्रिटिश राज के खिलाफ बग़ावत कर दी. उनके गांव के लोगों ने ब्रिटिश राज को टैक्स देने से मना कर दिया. उनके गांव के लोग गाइदिन्ल्यू को चंदा देते थे. ब्रिटिश राज ने उनको पकड़ने की बहुत कोशिश की, लेकिन पूरा गांव उनके साथ खड़ा था.
असम, मणिपुर और नगालैंड के बीच में भागती-छुपती गाइदिन्ल्यू उनसे बचती रहीं. असम राइफल उनके पीछे लगा दी गई थी. यहां तक कि 500 रुपए नकद इनाम, टैक्स में छूट, कोई भी लालच लोगों को डिगा नहीं सका. ब्रिटिश राज ने कहा था कि जो भी गांव उनके बारे में जानकारी देगा उसे 10 साल तक टैक्स देने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी.
1932 में उनको पोइलवा नाम की जगह पर पकड़ लिया गया. उनको जेल में डाल दिया गया. जेल में जवाहरलाल नेहरू उनसे मिलने गए. उन्हें दुलार से पहाड़ों की बेटी कहा. वहीं पहली बार गाइदिन्ल्यू को नेहरू ने रानी कहकर बुलाया. इसके बाद से ही वो रानी गाइदिन्ल्यू के नाम से जानी गईं. 1933 से 1947 तक वो गुवाहाटी, शिलॉन्ग, तूरा और आइजोल की जेलों में रहीं. नेहरू ने उनको जेल से निकालने के लिए ब्रिटेन की MP लेडी एस्टर को भी चिट्ठी लिखी थी, ऐसा पढ़ने को मिलता है, लेकिन वहां से जवाब इनकारी आया.

जब भारत आज़ाद हुआ तब रानी गाइदिन्ल्यू जेल से छूटीं. उनको लेकर विवाद भी हुए. रानी ने ईसाई धर्म अपना चुके नगा लोगों के धर्म परिवर्तन का विरोध किया था. इसके बाद इन लोगों ने रानी गाइदिन्ल्यू को हिन्दू धर्म का समर्थक मान कर उनसे दूरी बना ली थी.
आज़ादी के बाद भी रानी नगा लोगों के हक़ के लिए काम करती रहीं. नगा नेशनल काउंसिल के लोग भारत से अलग होना चाहते थे. रानी उनके खिलाफ थीं. रानी की मांग ये थी कि उनके जेलियांगरोंग समुदाय के लिए भारत के भीतर ही एक अलग ज़िला दिया जाए. वो हेराका आन्दोलन को दुबारा शुरू करना चाहती थीं. लेकिन वहां के ईसाई नेताओं ने इसे ईसाई धर्म के खिलाफ बताया. कहा, या तो अपना स्टैंड बदलो, या अंजाम भुगतो.
रानी अपनी सुरक्षा के लिए अंडरग्राउंड चली गईं. अंडरग्राउंड रहते हुए ही उन्होंने अपनी एक अलग सेना बनाई. 1965 में उनके समर्थकों ने नौ नगा नेताओं को जान से मार डाला था. इसकी काफी आलोचना हुई थी, और रानी वापस ख़बरों में आ गई थीं. इसके बाद 1966 में रानी ने भारत सरकार के साथ समझौता किया. अपनी अंडरग्राउंड जिंदगी से बाहर निकलीं. उसके बाद भारत सरकार से वादा किया कि वो अहिंसक तरीकों से अपने लोगों की बेहतरी के लिए काम करेंगी. उनके फॉलोअर्स ने भी सरेंडर कर दिया था. 1982 में उन्हें पद्म भूषण से नवाज़ा गया. 1993 में 17 फरवरी को मणिपुर में ही उनकी मौत हुई.

आज रानी को याद करने वाले बहुत कम हैं. लेकिन उनकी याद का एक महत्वपूर्ण टुकड़ा है, जो दिल्ली के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्यूनिकेशन (IIMC ) में देखा जा सकता है. वहां उनके नाम का हॉस्टल है लड़कियों के लिए. 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके जन्म के 100 साल पूरे होने के अवसर पर 100 और पांच रुपये के सिक्के जारी किये थे.
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