पिछले 45 सालों से भारतीय मार्केट में एकाधिकार जमाये रखने वाली क्रीम फेयर एंड लवली का नाम बदल रहा है, लेकिन इसके पीछे का इतिहास क्या है. (क्रीम के विज्ञापन से एक तस्वीर/सांकेतिक तस्वीर)
शाम का समय. दालान में कुर्सियां डाले दो लोग बैठे थे. सामने गेट पर पैदल-रिक्शा आकर रुका. दालान में बैठे व्यक्ति ने आंखें सिकोड़कर आने वाली को देखा और आवाज़ लगाई.
‘ऐ सुन हो, देख त आभा आइल ह.’
रिक्शे से उतरने वाली महिला ने झुककर दोनों जनों के पांव छू लिए. ड्राइंग रूम के दरवाजे के पीछे से झांककर छोटी बच्ची ने देखा. और कूदती हुई अंदर चली गई. अपनी मां को बताने कि कोई आया है. बच्ची उस घर की डोरबेल थी. आज तक उसे याद नहीं था कि उसके रहते किसी ने घर की घंटी बजाई हो. कई साल तक तो खराब पड़ी रही थी डोरबेल, और किसी को पता भी न चला था.
‘तोरे बेटी हवो न ई?’
अंदर आकर उस महिला ने बच्ची की मां से सवाल पूछा. मां ने मुस्कुराते हुए बच्ची को पास खींच लिया. बोलीं,
‘हां दिदिया. ई साल सेकंड क्लास में गेलई हे. केतना साल बाद त तू अइले. एकरा जनम के साल ही न देखले रहले’.
सामने बैठी महिला ने बच्ची का हाथ थामा. पूछा, चॉकलेट खाओगी? बच्ची ने सिर झुकाकर मुस्कान बिखेर दी. अपने पर्स में हाथ डालकर कुछ ढूंढते हुए बिना नज़रें उठाए वो बोलीं,
‘तोर बेटी बा, लेकिन रंग एतना काहे दबल बा एकर? तू त बचपन में एकदम झक सफ़ेद रहले’.
इतने में टॉफ़ी निकालकर उन्होंने बच्ची को पकड़ाई. रैपर खोलने में मगन उस लड़की ने ध्यान ही नहीं दिया कि उसकी मम्मी थोड़ी सी बेचैन हो गई हैं. मम्मी बोलीं,
‘अरे न दीदी, स्कूल जा हई. धूप में खेल हई. ऊ वजह से रंग दब गेलई हे’.
कहकर उन्होंने बच्ची की तरफ देखा. बच्ची को कोई अंदाजा नहीं था कि ये लाइन उसे जिंदगी में अभी कई बार सुननी है. कई बार हल्दी वाले उबटन से उसे घिसा जाना बाकी है. कितने कप चाय के उससे छीने जाने हैं. क्योंकि उसका रंग ‘दबा’ हुआ था. ‘सांवला’ था. और ये कि चाय पीने से रंग ‘काला’ हो जाता है. ये भी कि इसमें न तो वो अकेली है, न उसकी मां. वो लड़की टॉफ़ी खाने में मगन थी. वो टॉफ़ी, जिसका रंग उसकी उंगलियों के रंग जैसा हल्का भूरा था. उस लड़की की लिखी हुई स्टोरी आप इस वक़्त पढ़ रहे हैं. कुछ बदले हुए नामों के साथ. क्योंकि इस लड़की के ब्रेनवॉश की कहानी में लाखों दूसरी लड़कियां भी शामिल हैं. कई ऐसी लड़कियां, जिन्हें इसके बारे में आज तक मालूम न चल सका. क्योंकि-
डरे क्यूं मेरा क़ातिल क्या रहेगा उस की गर्दन पर.
वो खूं जो चश्म-ए-तर से उम्र भर यूं दम-ब-दम निकले.
हिन्दुस्तान यूनीलिवर लिमिटेड यानी HUL एक कंपनी है, कई प्रोडक्ट बनाती है. लेकिन इसके सबसे पॉपुलर प्रोडक्ट में से एक है 'फेयर एंड लवली'. कथित रूप से चेहरे को ‘गोरा’ बनाने वाली क्रीम. लगभग 1975 के आस-पास से चली आ रही इस क्रीम के पांच रुपए के पैकेट से लेकर कई सौ की ट्यूब तक बाज़ार में धड़ल्ले से बिकती हैं. आपने भी इसके ऐड देखे ही होंगे. चलिए ये एक पुराना ऐड ही देख लीजिए. ऐश्वर्या राय और महिमा चौधरी दिखेंगी आपको इसमें:
कहां से आई ये क्रीम? 1971 में हिन्दुस्तान यूनीलीवर ने नियासिनामाइड नाम का केमिकल पेटेंट कराया. और उसके बाद इस केमिकल के साथ बाज़ार में फेयर एंड लवली उतारी. इस केमिकल को मेलेनिन घटाने वाला कहा जाता है. मेलेनिन की वजह से ही आपकी त्वचा का रंग गहरा या हल्का होता है. कम मेलेनिन- हल्के रंग की त्वचा, ज्यादा मेलेनिन- गहरे रंग की त्वचा. भारत में ये क्रीम 1975 में लॉन्च हुई. उसके बाद से लेकर अब तक कई अलग-अलग पैकेजिंग में शहरों से लेकर गांवों तक पहुंच चुकी है. ‘फेयरनेस प्रोडक्ट्स’ की रेंज में फेयर एंड लवली का मार्केट शेयर तकरीबन 70 फीसद पाया गया, साल 2006 की एक स्टडी के हिसाब से.
तेरा-मेरा रिश्ता पुराना फेयर एंड लवली का टारगेट मार्केट आम तौर पर 18-35 साल की महिलाओं का माना जाता है. लेकिन 16 मार्च 2003 को 'द हिन्दू' में छपे आर्टिकल,
सीइंग रेड विद दिस पिच में
निनान एस लिखते हैं
इस बात के कई उदाहरण मिलते हैं कि 12 से 14 साल की स्कूल जाने वाली लड़कियां भी ये क्रीम लगाती हैं.
और इसकी ख़ास बात ये है कि जो आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लोग हैं, उनके बीच भी इस क्रीम की काफी डिमांड है. निनान अपने आर्टिकल में लिखते हैं कि सैम बलसारा, जो
एडवर्टाइजिंग एजेंसीज एसोसियेशन ऑफ इंडिया के प्रेसिडेंट थे (तत्कालीन), ने कहा कि फेयर एंड लवली कई दशकों से भारतीय बाज़ार में पैठ बनाए हुए है. उनके मुताबिक़ 1994 में हैदराबाद की झुग्गियों में रहने वाले महिलाएं तक बताती थीं कि उनकी बेटियां 'फेयर एंड लवली' का इस्तेमाल करती हैं. अस्सी के दशक का ये ऐड ही देख लीजिए:
दिल है छोटा सा, छोटी सी आशा रंग 'गोरा' करने वाली इस क्रीम को बाज़ार में एक 'एस्पिरेशनल प्रोडक्ट' की तरह बेचा गया. यानी एक ऐसा उत्पाद, जिससे लोग खरीद कर खुद को थोड़ा और बेहतर मान लें. एक तय स्टैण्डर्ड के करीब आ जाएं. इसे टार्गेट किया गया उन लोगों के लिए, जो बाज़ार में खरीदारी करने निकलते, तो शायद कॉस्मेटिक प्रोडक्ट्स उनकी लिस्ट में कतई नहीं होते. इसके पीछे वजह थी कॉस्मेटिक प्रोडक्ट्स से जुड़ी इमेज कि वो बेहद कीमती होते हैं. उन्हें खरीदना आम आदमी के बस की बात नहीं. लेकिन इसका भी उपाय निकाला गया. फेयर एंड लवली को बेहद छोटे सैशेज़ में भी बेचा जाने लगा.
एक निम्न मध्यम या निम्न आय वर्ग का व्यक्ति सौ रुपए की ट्यूब न खरीद पाए. लेकिन दो या पांच रुपए की पुड़िया की जगह हर बजट में निकल ही आती थी. और इन छोटे पाउचों को खरीदकर गांवों-कस्बों में रहने वाली महिलाएं भी कुप्पा हो जातीं कि वो ऐसी क्रीम लगा रही हैं, जिसका ऐड टीवी पर आता है. इसमें एक महती भूमिका हजारों की संख्या में मौजूद कंपनी के ऑन-ग्राउंड डिस्ट्रिब्यूटर्स की रही, जिन्होंने ये पक्का किया कि बड़े स्टोर्स के साथ नुक्कड़ों पर मौजूद किराने की दुकानों में भी ये प्रोडक्ट पहुंचे.
सीके प्रह्लाद और ए हैमंड ने साल 2004 में
फॉरेन पॉलिसी नाम की मैग्जीन में
सेलिंग टू द पूअर नाम से एक आर्टिकल लिखा. इसमें उन्होंने सड़क पर झाड़ू लगाने वाली एक कमउम्र महिला को कोट किया. उस महिला ने गर्व से फूलकर उन्हें बताया कि वो एक फैशन प्रोडक्ट इस्तेमाल करती है, जो उसे धूप से बचाता है और उसकी चमड़ी को झुलसने नहीं देता. जैसे उसके माता-पिता की झुलस गई थी बाहर धूप में काम करते-करते. उनके मुताबिक़ उस महिला को एक चॉइस मिली, अपनी लाइफ को लेकर. एक ऐसे कॉस्मेटिक प्रोडक्ट का इस्तेमाल करने का मौका मिला, जो वो अपने बजट में खरीद सकती थी. हैमंड और प्रह्लाद के मुताबिक़, इस तरह हिंदुस्तान यूनीलीवर (तब कंपनी का नाम हिंदुस्तान लीवर हुआ करता था) ने लोगों को डिग्निटी और चॉइस के मौके दिए. उदाहरण के तौर पर ये ऐड. जहां पर खूबसूरती को शक्ति कहते हुए क्रीम को बेचा गया:
तुमको जो पसंद, वही बात कहेंगे 'फेयर एंड लवली' की मार्केटिंग स्ट्रेटजी बदलते हुए समय के हिसाब से बदली गई. 90 के दशक की शुरुआत में जब महिलाओं को अरेंज मैरिज के लिए तैयार किया जाता था, तब उस समय उनकी खूबसूरती को एक करेंसी की तरह दिखाया जाता, जिसे भुनाकर वो एक बेहतर पति पा सकती थीं. 'फेयर एंड लवली' ने इस आइडिया को मजबूती देने में महती भूमिका निभाई. कि इस क्रीम का इस्तेमाल करके लड़कियां किसी भी संभावित दूल्हे को आकर्षित कर सकती हैं.
इसके बाद आया Y2K.यानी साल 2000. सदी ने करवट ली और विज्ञापनों के तेवर भी बदल गए. लड़कियां ड्राइंग रूम में चाय की ट्रे लिए खड़ी रहने के बजाए खटखटाती हील्स में एंकर, फ्लाइट अटेंडेंट और हाई-फाई कम्पनियों में काम करने वाली एम्प्लॉयी बनने लगीं (CEO और मैनेजर जैसे पद अभी भी डेढ़ दशक दूर थे). 'फेयर एंड लवली' ने इन मौकों को भी भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. उनके विज्ञापनों में नौकरीपेशा युवतियों के लिए बेसिक प्रोडक्ट बना दिया गया इस क्रीम को. फोकस खूबसूरती से कॉन्फिडेंस पर शिफ्ट हो गया. थोड़ा पॉलिटिकली करेक्ट होने की कोशिश भी हुई. गोरेपन शब्द की जगह निखार शब्द इस्तेमाल किया जाने लगा.
लेकिन इन सबके बीच कोर वैल्यू वही बनी रही. हल्के रंग की त्वचा आपको जॉब दिला देगी. आपको दफ्तर में मान दिला देगी. जेनेलिया डिसूजा कमेंटेटर बनने जाएंगी, तो उनकी क्रिकेट की नॉलेज नहीं, उनका चिट्टा रंग और गुलाबी गाल काम आएंगे. केमिकल के नाम से भागने वाली जनता को पोटने के लिए आयुर्वेद का भी सहारा लिया गया.
अजी अंदर क्या है, अजी बाहर क्या है? इतने ऐड चलते हैं इस क्रीम के. यामी गौतम मुस्कुराते हुए कहती हैं, इसी से चेहरा धोवो, इसी की क्रीम लगाओ. तो मिलेगा डबल निखार. सिर्फ क्रीम लगाने वाली लड़की अपना सा मुंह लेकर बैठ जाती है. सोचती है अब फेस वॉश भी खरीदूं? कल को स्पेशल पानी भी लेकर आएंगे ये? कि इसी पानी से मुंह धोना, मिलेगा ट्रिपल निखार? लेकिन अगर ये क्रीम इतने सालों से लगातार ये दावा करती आ रही है, तो इसके असर को मेडिकली चैलेन्ज क्यों नहीं किया गया?
वो इसलिए कि ये क्रीम दवाओं की श्रेणी में नहीं आती, जिसे अंग्रेजी में फार्मास्यूटिकल प्रोडक्ट कहते हैं. ये वो नहीं है. और चूंकि ये उस श्रेणी में नहीं आती, हिन्दुस्तान यूनीलीवर पर इसके असर को साबित करने की कोई बाध्यता नहीं है. यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन के प्रोफ़ेसर अनील करनानी अपने रीसर्च पेपर Doing well by doing good—case study: ‘Fair & Lovely’ whitening cream में
स्टार वीकेंड मैग्जीन के हवाले से लिखते हैं, कई स्किन स्पेशलिस्ट (जिनको डर्मेटोलॉजिस्ट भी कहा जाता है) इस क्रीम के असर को शक की निगाह से देखते हैं. उनका मानना है कि फेयरनेस क्रीम्स तब तक कोई असर नहीं कर सकतीं, जब तक उनमें स्किन ब्लीच करने वाले एजेंट न हों, जैसे स्टेरॉयड, मरकरी (पारा), केमिकल सॉल्ट इत्यादि. इनकी मौजूदगी से फेयर एंड लवली पूरी तरह इनकार करती है. इसी रिसर्च पेपर में करनानी प्रिया कुल्लावनिजाया के हवाले से लिखते हैं-
वाइटनिंग क्रीम्स धड़ल्ले से बिकती हैं, लेकिन इनके फायदे का कोई लिखित हिसाब हो, ऐसा नहीं है.
AIIMS के डर्मेटोलॉजी डिपार्टमेंट के हेड रह चुके डॉक्टर आर के पंढी के अनुसार, उन्होंने भी कभी ऐसी कोई मेडिकल स्टडी नहीं देखी, जो चमड़ी सफ़ेद करने के दावों को पुष्ट करती हो. बांग्लादेश की ढाका यूनिवर्सिटी के फार्मास्युटिकल डिपार्टमेंट के चेयर रह चुके प्रोफ़ेसर एबीएम फ़ारूकी के अनुसार, गोरी चमड़ी से लोगों का ऑब्सेशन भले हो, लेकिन सांवली या गहरे रंग की त्वचा ज्यादा स्वस्थ होती है. हल्के रंग की चमड़ी की तुलना में इसे स्किन डिजीज होने की आशंका कम होती है. त्वचा में ज्यादा मेलेनिन इसका सूरज की किरणों से बचाव करता है.
अंगुरी में डसले बिया नगिनिया गोरे रंग को बेहतर बताने के छुपे एजेंडा के अलावा चेहरे को गोरा करने वाली क्रीमों का एक पहलू और भी है, जो जहरीला है. मारक है. 'आउटलुक इंडिया' में छपी रिपोर्ट के मुताबिक़, 2015 में सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (CSE) ने पाया कि भारत में बिकने वाली 44 फीसद फेयरनेस क्रीम्स में पारा होता है. कई ब्यूटी प्रोडक्ट्स में जहरीली धातुएं मिली होती हैं. कई ब्रैंड्स के साथ CSE की इस स्टडी ने 'फेयर एंड लवली' एंटी मार्क्स क्रीम को बढ़े हुए पारे के लेवल्स के लिए फ्लैग किया. FDA (Food and Drug Administration) की गाइडलाइन्स के मुताबिक़, कोई भी कॉस्मेटिक प्रोडक्ट, जिसमें पारे की थोड़ी सी भी ट्रेस मिल जाए, उस पर लीगल एक्शन लिया जा सकता है. लेकिन HUL के स्पोक्सपर्सन की मानें, तो उनके सभी प्रोडक्ट्स FDA द्वारा अप्रूव किए गए हैं.
बदले-बदले से सरकार नज़र आते हैं हाल में हिन्दुस्तान यूनीलीवर ने घोषणा की कि वो अपने प्रोडक्ट से 'फेयर' शब्द हटा लेंगे. हाल में ही अमेरिका में ब्लैक व्यक्ति जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिस द्वारा निर्मम ह्त्या के बाद से ही नस्लभेद और रंगभेद पर तगड़ी बहस चल रही है. इसी सिलसिले में कई फैशन ब्रैंड्स से लेकर लाइफस्टाइल मैग्जींस तक ने अपने-आप को नए तरीके से पेश किया है. ताकि वो खुद को ज्यादा ‘इन्क्लूसिव’ दिखा सकें. अपने नाम में से फेयर हटा कर हिन्दुस्तान यूनीलीवर इस क्रीम का क्या नाम रखेगा, ये तो पता नहीं. लेकिन इस क्रीम की बिक्री रुकने पर संशय है. वो भी तब, जब 2020 की ही फरवरी में भारत सरकार ने ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडीज (ऑब्जेक्शनेबल एडवर्टिज्मेंट्स) एक्ट 1954 में बदलाव की बात सुझाई है. स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा सुझाए गए ये बदलाव अगर स्वीकृत हो गए, तो गोरा करने, सेक्शुअल क्षमता या दिमागी क्षमता बढ़ाने का दावा करने वाले विज्ञापनों पर पांच साल तक की जेल या 50 लाख तक का जुर्माना लगाया जा सकता है. यही नहीं, विज्ञापनों की परिभाषा में भी बदलाव सुझाए गए हैं.
क्या है ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडीज (ऑब्जेक्शनेबल एडवर्टिज्मेंट्स) एक्ट 1954? इस एक्ट में दवा या गंडे-ताबीजों के विज्ञापन की मनाही की गई है. मुख्यतः ऐसे जो, कुछ ख़ास ‘बीमारियों’ का इलाज करने का दावा करने का विज्ञापन कर रहे हों. 54 बीमारियों और मेडिकल कंडीशंस की लिस्ट है, जिनके लिए विज्ञापन नहीं दिए जा सकते. नए ड्राफ्ट के अनुसार, लिस्ट में जोड़ी गई बीमारियों/मेडिकल कंडीशंस की लिस्ट बढ़ाकर 78 कर दी गई है, जिनके लिए बनाए गए ऐड्स प्रतिबंधित होंगे. उनमें से कुछ हैं प्रीमेच्योर एजिंग रोकना, रंग गोरा करना, याददाश्त बेहतर करना, बच्चों/वयस्कों की हाइट बढ़ाना इत्यादि. ये एक्ट और इसके नियम रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर्स के साइन बोर्ड्स पर लागू नहीं होते. उन पर बीमारी/मेडिकल कंडीशंस के बारे में जानकारी दी जा सकती है. सरकार अगर कोई जानकारी रिलीज करना चाहे, तो उस पर पाबंदी नहीं होगी, उसे भी पब्लिक डोमेन में रखा जा सकता है. इस ड्राफ्ट बिल के कानून बनने के बाद क्या फेयरनेस क्रीम्स के विज्ञापन रुकेंगे? क्या सांवली और उदास दिखती लड़कियां क्रीम पोतकर खुश होती दिखनी बंद हो जाएंगी? क्या अख़बारों में ‘Extremely Fair Bride Wanted’ के क्लासिफाइड ऐड नहीं दिखेंगे? आप सोचिए. मैं ज़रा चाय पीकर आती हूं.
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