खास बात ये है कि
# आदित्य एक सिंगल फादर हैं. वो अकेले अवनीश को पाल रहे हैं.
# अवनीश उनका अडॉप्ट किया (गोद लिया) बच्चा है.
# अवनीश को डाउन सिंड्रोम है. ये एक तरह की कंडीशन है जिसमें शरीर का विकास ढंग से नहीं होता. ये जेनेटिक होता है.
# विमेंस डे के मौके पर बेंगलुरु में एक इवेंट में आदित्य को बेस्ट मम्मी इन द वर्ल्ड का खिताब दिया गया.

जब से आदित्य ने अवनीश को अडॉप्ट किया है, उन्हें कई सवालों का सामना करना पड़ा है. जब उन्होंने अवनीश को अडॉप्ट करने की कोशिश की, तब उन्हें काफ़ी परेशानियां भी झेलनी पड़ी थीं. क्योंकि उस समय बच्चों को गोद लेने के लिए कम से कम 30 साल का होना जरूरी था. उस समय आदित्य केवल 27 साल के थे.
उन्होंने लगातार चिट्ठियां लिखी. पीएम से लेकर कई नेताओं के पास. पहले सरकार ने उनकी अपील खारिज कर दी. लेकिन आदित्य ने हार नहीं मानी. उनके आस पास के लोग भी सवाल उठा रहे थे कि बच्चा अडॉप्ट करने की क्या ज़रूरत है. क्या वो खुद अपना बच्चा पैदा नहीं कर सकते? लेकिन आदित्य ने इन सब पर ध्यान नहीं दिया.
आखिरकार 2016 में आदित्य को अवनीश को अडॉप्ट करने की अनुमति मिली. यही नहीं, भारत में अब बच्चों को अडॉप्ट करने के लिए उम्र घटा कर 25 साल कर दी गई है.
एडॉप्शन के बाद उनका अनुभव कैसा रहा
इस पर आदित्य ने ANI को बताया,
मुझे अवनीश की कानूनी कस्टडी 1 जनवरी 2016 को मिली. डेढ़ साल तक स्ट्रगल करने के बाद. तब से लेकर अब तक का हमारा सफ़र बेहद रोमांच भरा रहा है. भगवान द्वारा मुझे दिया गया सबसे प्यारा तोहफा है वो. मैंने कभी खुद को माता-या पिता के रोल में नहीं देखा. मैंने हमेशा कोशिश की है कि उसके लिए एक अच्छा पेरेंट और एक अच्छा इंसान बन सकूं.अवनीश को ही क्यों अडॉप्ट किया? इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार आदित्य ने बताया,
अवनीश में मेरे इंटरेस्ट को लेकर मुझसे लगातार सवाल पूछे जा रहे थे. कोई उसे अडॉप्ट नहीं करना चाह रहा था क्योंकि वो एक स्पेशल नीड्स वाला बच्चा था. (ऐसे बच्चों को अलग तरह की ख़ास देखभाल की ज़रूरत होती है, जो दूसरे बच्चों को नहीं होती.) मेरे बेटे को डाउन सिंड्रोम है और उसे देखभाल की ज़रूरत थी. यही वजह थी कि मैं उसे अडॉप्ट करना चाहता था. जो मैंने किया, उसे स्वीकार करना शुरुआत में लोगों के लिए आसान नहीं था. मेरे परिवार ने भी मुझे मना किया था. उन्हें लोगों ने बाद में मेरे प्रयासों की तारीफ़ की जब उन्होंने देखा कि मैंने जो करने की ठानी थी वो मैंने कर लिया है.अब आदित्य नौकरी नहीं करते. स्पेशल नीड्स वाले बच्चों के पेरेंट्स को कांउसिलिंग देते हैं. वर्कशॉप्स कराते हैं. पूरे देश में घूमते हैं. पूरी दुनिया में लगभग 10,000 पेरेंट्स से जुड़े हुए हैं, ऐसा आदित्य खुद बताते हैं.
आदित्य को जिनेवा के वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम में एक सेशन के दौरान बोलने के लिए भी बुलाया गया था.
जब आदित्य से ये पूछा गया कि बिना किसी पार्टनर के अकेले अवनीश को पालना कैसा लगता है? उन्होंने कहा,
अवनीश ने मुझे सिखाया है कि एक पेरेंट कैसे बनते हैं. ये एक स्टीरियोटाइप है कि सिर्फ एक स्त्री ही एक बच्चे का ध्यान रख सकती है, और इसकी वजह से एडॉप्शन के दौरान मुझे कई मुश्किलों का सामना भी करना पड़ा. सबसे अच्छी बात ये है कि अवनीश ने मुझे एक पेरेंट के रूप में स्वीकार कर लिया है.दिक्कतें उन्हें काफी झेलनी पड़ती हैं. डिसेबिलिटी सर्टिफिकेट (विकलांगता प्रमाणपत्र) आसानी से नहीं मिलता. स्कूल में एडमिशन मिलना मुश्किल होता है क्योंकि पेरेंट्स अपने बच्चों को स्पेशल नीड्स वाले बच्चों के साथ पढ़ाना नहीं चाहते. लोगों को ऐसे बच्चों के बारे में ज्यादा जानकारी भी नहीं होती.सरकार की तरफ से भी कोई खास मदद नहीं मिलती.

आदित्य ने जो किया, और जो वो कर रहे हैं, वो एक बेहद खूबसूरत और बहादुर चीज़ है. लेकिन उनको मिलने वाले अवार्ड में बेस्ट मॉमी लिखा जाना ये दिखाता है कि अभी भी बच्चों को पालने के काम को मांओं से जोड़कर देखा जा रहा है. जिस स्टीरियोटाइप को तोड़ने के खिलाफ आदित्य की जंग रही है, ये अवार्ड उससे और मजबूत ही कर रहा है. अगर आदित्य की जगह कोई महिला होती, और उसने इतना सब कुछ करने के बाद कस्टडी ली होती, और उसे बेस्ट फादर कहा जाता, तो क्या वो तर्कसंगत होता? कई लोग कहेंगे शायद नहीं, बस वही बात यहां भी लागू होती है.
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