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क्या खेती-किसानी को लेकर सरकार का सारा फोकस मार्केटिंग पर है, प्रोडक्शन पर नहीं?

चार एक्सपर्ट जुटे तो क्या बात हुई?

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वेबिनार से ये बात निकली कि देश इस वक्त भयानक रूप से Demand Collapse यानी मांग में कमी का सामना कर रहा है. ये लंबे समय तक इसी तरह रहा तो किसानों के लिए अच्छी बात नहीं. साथ ही सरकार की तरफ से उठाए गए कदमों पर भी बात हुई.
वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट. WRI. नॉन-प्रॉफिट ऑर्गनाइजेशन है, जो हमसे-आपसे जुड़े मुद्दों पर बात करता है. जैसे- पानी, बिजली, खेती वगैरह. वॉशिंगटन में हेड ऑफिस है. WRI ने अभी बात की है भारत में खेती-किसानी और किसानों पर. 26 मई को. जूम कॉलिंग के ज़रिये. नाम दिया- Farm Sector Reforms वेबिनार. इसमें जो एक अहम सवाल उठा, वो ये कि क्या भारत में पोस्ट-कोरोना काल के लिए जिन सुधारों की, पैकेज की घोषणा की गई हैं, वो सिर्फ मार्केटिंग को ध्यान में रखते हुए है? क्या इन पैकेजेस में प्रोडक्शन को अप करने की कोई बात नहीं है? एक घंटे के सेशन में इन सवालों के जवाब खोजे गए. सेशन में शामिल हुए ये लोग –
- जुगल किशोर मोहापात्रा. IAS. पूर्व सचिव, ग्रामीण विकास मंत्रालय - सरोज काशीकर. सदस्य और एक्स-हेड – शेतकारी संगठन - श्लोका नाथ. हेड – स्पेशल प्रोजक्ट, टाटा ट्रस्ट. एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर – इंडिया क्लाइमेट कोलैबरेटिव - हरीश दामोदरन. एडिटर (रूरल अफेयर एंड एग्रीकल्चर), दी इंडियन एक्सप्रेस
इतने सारे एक्सपर्ट्स जुटे, तो क्या बात हुई? सबसे अच्छा कदम – एशेंशियल कमोडिटी एक्ट में संशोधन श्लोका नाथ ने कहा,
“सरकार ने जो भी ऐलान किए हैं, उनमें एक तरीके से मार्केटिंग पर ज़ोर ज़्यादा है. प्रोडक्शन पर कम. फिर भी इसमें सबसे अहम बात है- एशेंशियल कमोडिटी एक्ट में संशोधन.”
दरअसल, वित्त मंत्री निर्मला सीतरमण ने राहत पैकेजेस का ऐलान करते हुए एशेंशियल कमोडिटी एक्ट में संशोधन की बात कही थी. इस एक्‍ट से अनाज, खाद्य तेल, तिलहन, दालें, प्याज और आलू सहित कृषि खाद्य सामग्री को बाहर किया जाएगा.
इस एक्‍ट के तहत जो भी वस्‍तुएं आती हैं, सरकार इनके उत्पादन, बिक्री, दाम, आपूर्ति और वितरण को नियंत्रित करती है. इसके बाद सरकार के पास अधिकार आ जाता है कि वह उन पैकेज्ड वस्‍तुओं का अधिकतम खुदरा मूल्य तय कर दे. उस मूल्य से अधिक दाम पर चीजों को बेचने पर सजा का प्रावधान है. अब इस एक्ट में संशोधन करके मूल्य तय करने का अधिकार किसानों को दिया जा रहा है.
“पिछली बार कब टमाटर 15 रु किलो बिका था?” हरीश दामोदरन ने कहा कि कोरोना क्राइसिस का सबसे बड़ा असर हुआ है Demand Collapse. यानी लोगों की मांग में, ख़रीद क्षमता में कमी आई है. अगर ऐसा लंबे वक्त तक रहा तो किसानों के लिए मुश्किल होगी. हरीश ने कहा –
“पिछली बार कब इतनी भयंकर गर्मी में आपको टमाटर 15 रुपए किलो मिला था? ये ऐसा मौसम है, जब गाय का दूध 35 रुपए लीटर तक मिलता था. इस बार ये 20-22 रुपए लीटर पर है. दाम कम हैं, क्योंकि डिमांड कम है. सोचिए इतने दाम में किसान को क्या ही मिलेगा?”
हरीश ने कहा कि एशेंशियल कमोडिटी एक्ट में संशोधन तो ठीक है. किसान को अपनी फसल का दाम तय करने की आज़ादी मिलेगी, अच्छी बात है. लेकिन जब लोग खरीदेंगे ही नहीं, तो वो दाम भी कितना ही बढ़ा पाएगा. इसलिए ज़रूरी है कि सरकार लोगों की क्रय क्षमता बढ़ाने के उपाय करे. कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से बेहतरी की उम्मीद
“मैं तो कहता हूं कि बाकी किसी भी व्यवसाय से ज़्यादा दिक्कत किसानों के लिए है. गुड मॉनसून हो, तो दिक्कत. बैड मॉनसून हो, तो दिक्कत.”
इस बात से शुरुआत करते हुए जुगल किशोर ने कहा कि इस समय किसानों की स्थिति बेहतर करने के लिए कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से काफी उम्मीदें हैं. किसान को इससे दो बड़े फायदे हो रहे हैं, पहला कि उसकी पूंजी रिस्क में नहीं रहती. दूसरा कि वो फसल बेचने से जुड़े मार्केट रिस्क से फ्री हो जाता है.
कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का मतलब है कि किसान अपनी ज़मीन पर खेती करता है, लेकिन अपने लिए नहीं, बल्कि किसी और के लिए. एक करार के आधार पर. इसमें किसान को कोई लागत नहीं लगानी पड़ती है. किसान की उगाई फसल को कॉन्ट्रैक्टर खरीद लेता है. फिर वो फसल बेचना उसकी सिरदर्दी. किसान को फसल उगाने का उसका पैसा करार की शर्तों के आधार पर मिल जाता है.
सरोज काशीकर ने भी कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के पक्ष में ही बातें कीं. उन्होंने कहा कि सरकार को दूध वालों से सीखना चाहिए. जब उनकी ग्राहकी कम भी हो जाए, तो भी वो दूध निकालना कम नहीं कर देते. बल्कि इसे बेचने के नए-नए ज़रिये ढूंढते हैं. क्योंकि वो जानते हैं कि उनकी गाय दूध तो देगी ही. अब ये उन पर है कि वो इसे किस तरह बेच पाएं. लेकिन जब देश में डिमांड कम होती है तो ज़िम्मेदार लोग नए ज़रिये खोजने की बजाय हाथ खड़े कर देते हैं.
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